जनजातियां  FOR UPSC IN HINDI

परिभाषा

आदिम मानव अपनी खान-पान की जरूरतों के लिए अपने आस-पास के पर्यावरण पर निर्भर थे। खाने के प्राकृतिक स्रोत में मौसम के साथ बदलाव आएगा जो मौसम के अनुसार खाद्य उपलब्धता निर्भरता के कारण एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने की आवश्यक बना देता था। पहाड़ियां, नदियां इत्यादि जैसे भौतिक स्थलाकृतियां उन पर प्राकृतिक सीमाएं आरोपित करती थीं: समय के साथ उनके एक स्थान विशेष पर निरंतर रहने से उस स्थान के प्रति उनके लगाव एवं जुड़ाव में वृद्धि हुई। समूहीकरण अपरिहार्य हो गया, और ये आदिम सामाजिक संरचना जनजाति संरचना थी।

परम्परागत रूप से, मानव विज्ञानियों ने माना कि सभी लोग जनजाति के तौर पर, जो कुछ मायनों में पिछड़े हुए थे, सुदूरवर्ती दुर्गम स्थानों में रहते थे और लेखन कला से अवगत नहीं थे। उन्हें नस्लीय रूप से पृथक् माना जाता था और अलग-थलग रहते थे। ऐसी अवधारणा, हालांकि, भारत की जनजातियों का हू-ब-हू वर्णन नहीं करती: इन समूहों का हमेशा अन्य लोगों के साथ (जो जनजातियां नहीं थे) संबंध था और उनके साथ व्यापक रूप से साझा सांस्कृतिक विरासत रखते थे। इस प्रकार, आंद्रे बीटिले ने अपनी पुस्तक जनजाति, जाति और धर्म में कहा कि- हमने जनजाति को राजनीतिक, भाषायी, और कुछ हद तक अस्पष्ट रूप से परिभाषित सांस्कृतिक सीमा वाले समाज के तौर पर वर्णित किया है। एक ऐसा समाज जो नातेदारी पर आधारित है, लेकिन जहां सामाजिक स्तरीकरण नहीं है। अब इस बात पर जोर डालना होगा कि सामाजिक श्रेणियों की कई परिभाषाओं की तरह, यह भी एक आदर्श प्रकार की परिभाषा है। यदि हम समाजों का वर्गीकरण करते हैं, तो वे स्वयं को एक सांतत्यक में क्रमबद्ध कर लेंगी। इनमें से कई, स्तरीकरण और विभेदीकरण प्रस्तुत करेंगी, लेकिन मात्र आरंभिक तौर पर। प्रक्रिया जिसके द्वारा जनजातियां परिवर्तित हुई, एक ऐतिहासिक प्रक्रिया है और यदि मात्र एक समूह के पूर्वजों का अध्ययन करके, क्या हम विश्वास के साथ कह सकते हैं कि इसे एक जनजाति के तौर पर माना जाना चाहिए या नहीं।

आधिकारिक स्तर पर, अनुसूचित जनजाति शब्द का प्रयोग सामान्यीकरण के तौर पर किया जाता है जो भारत की जजतियों की अन्तर्निहित विषम जातीयता को बिलकुल प्रतिविम्बित नहीं करता है। एक बात को लेकर बेहद संदेह रहता है और वह है नाम को लेकर असमंजस की स्थिति, क्योंकि कई क्षेत्रों में जनजातियों के नाम एक जैसे होते हैं, हालांकि वे एक जैसी जनजाति का प्रतिनिधित्व नहीं करते। भाषा में बदलाव से भी संदेह उत्पन्न होता है। अलग-अलग क्षेत्रों में अलग तरीके से नाम का उच्चारण किया जाता है। इस प्रकार, जनजातियों और उनके वितरण की स्पष्ट तस्वीर हासिल करना मुश्किल होता है।

भारत में अनुसूचित जनजातियां शब्द को सामान्य रूप से भारत के लोगों के एक वर्ग के राजनीतिक और प्रशासनिक उन्नयन के मनन द्वारा निर्धारित किया गया जो पारस्परिक रूप से पहाड़ों और वनों में सुदूरवर्ती रहता है और जो विकास के सूचकों के संदर्भ में पिछड़ा हुआ है। अनुसूचित जनजातियों की पारस्परिक एकांत और पिछड़ेपन जैसे दो मापकों के संदर्भ में पहचान की गई है।

अभी हाल के एक सर्वेक्षण में, जिसे पीपुल ऑफ इंडिया प्रोजेक्ट के अंतर्गत भारतीय मानव विज्ञान सर्वेक्षण द्वारा आयोजित किया गया, पूरे देश में 461 जनजातीय समुदायों की पहचान की गई, जिसमें से 174 उपसमूह हैं।

जैसाकि अजाजुद्दीन अहमद ने अपनी पुस्तक सोशल ज्योग्राफी में उल्लेख किया है- जनजातीय समुदायों को विभिन्न संदर्भों के अंतर्गत अनुसूचित किया गया है। इसके परिणामस्वरूप गंभीर अस्पष्टता हुई है। कई बार राज्यों ने अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित जातियों को पारस्परिक रूप से अंतरापर्वतनीय श्रेणियों के तौर पर लिया है।

इस प्रकार, गुर्जर हिमाचल प्रदेश में और जम्मू एवं कश्मीर में मुस्लिम अनुसूचित जनजाति (एसटी) होती हैं लेकिन पंजाब में यह अनुसूचित जनजाति नहीं हैं, कमार महाराष्ट्र में अनुसूचित जनजाति है लेकिन पश्चिम बंगाल में हिंदू जाति है; माने डोरा आंध्र प्रदेश में अनुसूचित जनजाति है लेकिन ओडीशा में गैर-अनुसूचित हिंदू हैं।

वितरण

सामान्यतः, जनजातियों का एकत्रीकरण पहाड़ी, वनीय और दुर्गम क्षेत्रों में होता, जो अधिकांशतः स्थायी कृषि के लिए अनुपयुक्त होते हैं। जनजातियों को इन क्षेत्रों में कृषक समूहों द्वारा धकेला जाता है। जनजातियों की जीवन शैली (जिसमें उनकी अर्थव्यवस्था भी शामिल है) उनके आवास के पारिस्थितिकीय तंत्र के साथ गहरे रूप से जुड़ी होती है। जनजाति जनसंख्या पंजाब और हरियाणा तथा चंडीगढ़, दिल्ली और पुडुचेरी संघ प्रशासित प्रदेशों को छोड़कर, हालांकि इनके घनत्व में परिवर्तन होता रहता है, समस्त भारत में फैली हुई है।

जनजातीय जनसंख्या के वितरण एवं विविधता के आधार पर भारत की सात क्षेत्रों में बांटा जा सकता है, ये क्षेत्र हैं-

1. उत्तरी क्षेत्र: इस क्षेत्र के अंतर्गत हिमाचल प्रदेश, पंजाब, उप-हिमालयी उत्तर प्रदेश एवं बिहार शामिल है। इस क्षेत्र की प्रमुख जनजातियों में खासा, थारू, भोक्सा, भोटिया, गुज्जर एवं जौनसारी आदि को सम्मिलित किया जाता है। खासा जनजाति में बहुपतित्व की प्रथा प्रचलित होती है। भोटिया चटाइयां व कालीन आदि बनाते हैं तथा भारत-चीन सीमा व्यापार से जुड़े हैं। गुज्जर मुख्यतः पशुचारणिक गतिविधियों में संलग्न हैं।

इस क्षेत्र की जनजातियों की मुख्य समस्याएं गरीबी, अशिक्षा, संचार साधनों का अभाव, दुर्गम भौगोलिक स्थिति तथा भूमि हस्तांतरण आदि हैं।

Tribes

2. पूर्वोत्तर क्षेत्र: इस क्षेत्र के अंतर्गत सात पूर्वोत्तर राज्य शामिल हैं तथा यहां की मुख्य जनजातियां नागा, खासी गारो, मिशिंग, मिरी, कर्वी एवं अपांटेनिस हैं। झूम खेती के कारण होने वाला पर्यावरणीय क्षय तया संचार सुविधाओं की कमी इस क्षेत्र की मुख्य समस्याएं हैं। पार्थक्य के उच्च परिमाण के कारण इस क्षेत्र की जनजातियों की ऐतिहासिक भागीदारी मुख्यधारा के भारतीयों के बजाय पड़ोसी समुदायों के साथ अधिक रही है। ये जनजातियां मुख्य मंगोलॉयड प्रजाति से सम्बद्ध हैं, जो इन्हें एक विशिष्ट नृजातीय पहचान प्रदान करती है। ये जनजातियां मुख्यतः औपनिवेशिक शासनकाल के दौरान चलायी गयीं मिशनरी गतिविधियों के परिणामस्वरूप ईसाई धर्म से अधिकाधिक रूप में प्रभावित हई हैं। इनकी साक्षरता दर भी काफी उच्च है। खासी, गारो एवं मिरी इस क्षेत्र की सर्वाधिक प्रगतिशील जनजातियां हैं।

3. मध्य क्षेत्र: इस सर्वाधिक जनजातीय संकेंद्रण वाले क्षेत्र में दक्षिणी मध्य प्रदेश से लेकर दक्षिणी बिहार तक फैली विस्तृत पट्टी एवं उत्तरी ओडीशा शामिल है। इस क्षेत्र की प्रमुख जनजातियों में- संथाल, हो, अभुजमारिया, बैगा, मुरिया, मुंडा तथा बिरहोर आदि शामिल हैं। इस क्षेत्र की जनजातियों को भूमि अन्याक्रमण, ऋणग्रस्तता, ठेकेदारों व अधिकारियों द्वारा जनजातीय महिलाओं के शोषण जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। इस क्षेत्र में हिंदू धर्म का व्यापक प्रभाव दिखाई देता है

संथाल जनजाति द्वारा अपनी खुद की एक लिपि ओले चीकी विकसित की गयी है। बैगा जनजाति प्रमुखतः झूम खेती में संलग्न रहती है। बिरहोर इस क्षेत्र की सर्वाधिक पिछड़ी जनजाति है तथा अत्यधिक पिछड़ेपन एवं आजीविका के सुरक्षित साधनों के अभाव ने इसे विलुप्ति के कगार तक पहुंचा दिया है।

4. दक्षिणी क्षेत्र: इस क्षेत्र में नीलगिरि तथा उससे जुड़े कर्नाटक व आंध्र प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्र शामिल हैं। इस क्षेत्र की प्रमुख जनजातियां हैं- टोडा, कोया, चेंचू व अल्लार आदि। टोडा पशुचारण में संलग्न जनजाति है। अल्लारगुफाओं में तथा पेड़ों के ऊपर निवास करते हैं,चेचू अत्यंत पिछड़ी जनजाति है, जो मुख्यतः आखेट संबंधी गतिविधियों पर टिकी हुई है। दक्षिणी क्षेत्र की जनजातियां पार्थक्य, झूम कृषि, आर्थिक पिछड़ेपन, संचार सुविधाओं के अभाव तथा भाषाओं के विलुप्त होने का खतरा जैसी कई समस्याओं का सामना कर रही हैं।

5. पूर्वी क्षेत्र: इस क्षेत्र के अंतर्गत प. बंगाल तथा ओडीशा के कई भाग शामिल हैं। पारजा, खोंड, भूमिज, बोंडा, गदाबा, साओरा एवं भुइयां आदि इस क्षेत्र की प्रमुख जनजातियां हैं पिछली शताब्दियों में खोंड अपने मानव बलि सम्बंधी कर्मकांडों के कारण कुख्यात थे। इस कुप्रथा को ब्रिटिश शासन द्वारा प्रतिबंधित किया गया। साओरा अपनी जादू विद्या के लिए प्रसिद्ध हैं। इस क्षेत्र की जनजातियों की प्रमुख समस्याओं में आर्थिक पिछड़ापन, भूमि अन्याक्रमण, वन अधिकारियों व ठेकेदारों द्वारा किया जाने वाला शोषण, बीमारियों की व्याप्ति तथा औद्योगिक परियोजनाओं के कारण होने वाला विस्थापन आदि शामिल हैं।

6.पश्चिमी क्षेत्र: इस क्षेत्र के अंतर्गत शामिल राजस्थान व गुजरात की जनजातियों में भील, गरेशिया एवं मीणा शामिल हैं। भीलों को हिंसक जनजाति माना जाता है। भील अच्छे तीरंदाज माने जाते हैं एक मान्यता के अनुसार महाराणा प्रताप की सेना का गठन मुख्यतः भीलों से हुआ था। मीणा बहुत ही प्रगतिशील एवं सुशिक्षित जनजाति है।

7. द्वीप समूह क्षेत्र: इस क्षेत्र में अंडमान एवं निकोबार, लक्षद्वीप तथा दमन व दीव शामिल हैं। इनमें से कुछ जनजातियां अत्यंत पिछड़ी हुई हैं तथा जीविका के पाषाणयुगीन तरीकों से मुक्ति पाने हेतु संघर्षरत हैं। इनमें से अधिकांश जनजातियों को गौण जनजाति के रूप में वर्गीकृत किया गया है, जो विलुप्त होने के खतरे का सामना कर रही हैं। सरकार द्वारा कुछ जनजातियों को पुख्य धारा के साथ एकीकृत करने का प्रयास किया गया है। यह क्षेत्र जनजातीय प्रशासन की प्राथमिकता वाला क्षेत्र है तथा यहां धीमे एवं क्रमिक परिवर्तन पर बल दिया गया है। उत्तरजीविता की समस्या के अतिरिक्त बीमारियों की व्याप्ति तथा कुपोषण जैसी समस्याएं भी इस जनजाति क्षेत्र में मौजूद हैं।

अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या

जनगणना वर्ष 2011 के अनुसार, अनुसूचित जनजातियों की कुल जनसंख्या 104.3 मिलियन (10,42,81,034) हो गई है। जिसमें 93.8 मिलियन (9,38,19,162) ग्रामीण क्षेत्रों से और 10.5 मिलियन (1,04,61,872) शहरी क्षेत्रों में है। यदि अनुपात की बात करें तो, अनुसूचित जनजाति की संख्या कुल जनसंख्या का 8.6 प्रतिशत है जो 2001 की जनगणना में 8.2 प्रतिशत थी। इस प्रकार अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या में विगत् दशक के दौरान 0.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। अनुसूचित जनजाति का अधिकतम अनुपात लक्षद्वीप में (94.8 प्रतिशत) और निम्नतम अनुपात (0.6 प्रतिशत) उत्तर प्रदेश में दर्ज किया गया है।

अनुसूचित जनजाति की जनसंख्या में 20.0 मिलियन तक की निरपेक्ष बढ़ोतरी हुई है। यह 23.7 प्रतिशत की दशकीय वृद्धि बनती है। अनुसूचित जनजाति की सर्वाधिक जनसंख्या मध्यप्रदेश में (15.3 मिलियन) और निम्नतम संख्या दमन एवं दीव में (15,363) दर्ज की गई है।

लिंग संरचना के लिहाज से, पुरुष अनुसूचित जनजाति की संख्या 52.4 मिलियन है (ग्रामीण-47.1 मिलियन और शहरी-5.3 मिलियन) महिला जनजाति की संख्या 51.9 मिलियन (ग्रामीण-46.7 मिलियन और शहरी-5.2 मिलियन) हो गई है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *