फ्रांसीसियों ने पूर्व में व्यापार करने के लिए 1664 ई. में एक फ्रेंच ईस्ट इण्डिया कम्पनी का निर्माण किया। इसका नाम कम्पनी इन्डेसेओरियंतलेस था। इस कम्पनी के निर्माण में लुई-चौदहवें के मन्त्री कोलबर्ट ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। सम्राट् लुई ने कम्पनी को एक चार्टर प्रदान किया। जिसके अनुसार 50 वर्ष तक कम्पनी को मेडागास्कर से पूर्व भारत तक व्यापार का एकाधिकार प्राप्त हो गया। कम्पनी को मेडागास्कर और समीपवर्ती टापू भी प्रदान किये गये। कम्पनी की स्थापना फ्राँस के मंत्री कोलबर्ट के प्रयास से हुई। प्रबन्धकारिणी के रूप में 21 संचालकों की एक समिति बनायी गई। कम्पनी की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए लुई ने कम्पनी को 30,00,000 लिवर ब्याज रहित प्रदान किये, जिसमें से कम्पनी को 10 वर्ष में जो भी हानि हो, काटी जा सकती थी। राज-परिवार के सदस्यों, मन्त्रियों और व्यापारियों को प्रोत्साहित किया गया था कि वे कम्पनी में धन लगाये।
लुई ने कम्पनी को विस्तृत अधिकार प्रदान किये। कम्पनी पूर्व के देशों में अपने राजदूत भेज सकती थी, युद्ध की घोषणा कर सकती थी और सन्धि कर सकती थी। लुई ने आश्वासन दिया कि कम्पनी के जहाजों की सुरक्षा के लिए अपने जगी जहाज भेजेगा और कम्पनी को अपने जहाजों पर फ्रांस का राजकीय झंडा फहराने की आज्ञा प्रदान की। कम्पनी के अपने भू-प्रदेशों का प्रशासन देखने के लिए एक गवर्नर-जनरल नियुक्त करने की आज्ञा प्रदान की गई और उसे राजा के लेफ्टिनेंट जनरल की उपाधि से विभूषित किया गया। उसकी सहायता के लिए 7 सदस्यों की एक काउन्सिल बनायी गयी। यह काउन्सिल सर्वप्रथम मेडागास्कर में स्थापित की गई। 1671 में इसे सूरत और 1701 में पाण्डिचेरी ले जाया गया। इस प्रकार पाण्डिचेरी में पूर्व फ्रांसीसियों का प्रमुख केन्द्र बन गया।
सूरत में फ्रेंच फैक्टरी की स्थापना
सूरत मुगल-साम्राज्य का प्रसिद्ध बन्दरगाह और संसार का प्रमुख व्यापारिक केन्द्र था। 1612 ई. और 1618 ई. में यहाँ इंगलिश और डच फैक्टरियों की स्थापना हो चुकी थी। इसके अतिरिक्त मिशनरी, यात्री और व्यापारियों के द्वारा फ्रांसीसियों को मुग़ल-साम्राज्य और उसके बन्दरगाह सूरत के विषय में विस्तृत जानकारी मिल चुकी थी। थेबोनीट, बर्नियर और टेवर्नियर फ्रांस के थे जिन्होंने अपने देशवासियों को भारत के बारे में जानकारी दी है। अत: कम्पनी ने सूरत में अपनी फैक्टरी स्थापित करने का निश्चय किया इस हेतु अपने दो प्रतिनिधि भेजे जो मार्च 1666 ई. में सूरत पहुँचे। सूरत गवर्नर ने इन प्रतिनिधियों का स्वागत किया, परन्तु पहले स्थापित इंगलिश और डच फैक्टरी के कर्मचारियों को एक नये प्रतियोगी का आना अच्छा नहीं लगा। ये प्रतिनिधि सूरत से आगरा पहुँचे, उन्होंने लुई-चौदहवें के व्यक्तिगत पत्र को औरंगजेब को दिया और इन्हें सूरत में फैक्टरी स्थापित करने की आज्ञा मिल गयी। कम्पनी ने केरोन को सूरत भेजा और इस प्रकार 1661 ई. में भारत में सूरत के स्थान पर प्रथम फ्रेंच फैक्टरी की स्थापना हुई।
सूरत की फ्रेंच फैक्टरी के कर्मचारियों की विभिन्न श्रेणियाँ थीं। ये श्रेणियाँ डायरेक्टर, मर्चेण्ट सेक्रेटरी, खजान्ची और कलर्क की थीं। केरोन नव-स्थापित फैक्टरी का डायरेक्टर था। उसके नेतृत्व में फ्रेंच व्यापार का तेजी से विकास हुआ। कम्पनी का मुख्यालय भी फोर्ट डोफिन (मेडागास्कर) से बदल कर सूरत कर दिया गया परन्तु इसी समय कम्पनी ने ऐसी त्रुटि की जिससे उसके व्यापार को बड़ा धक्का लगा। कम्पनी ने सूरत फैक्टरी में एक डायरेक्टर के स्थान पर 4 डायरेक्टर नियुक्त किये और उनको समान अधिकार प्रदान किये क्योंकि चारों डायरेक्टरों को समान अधिकार प्राप्त थे, अत: इनमें साधारण-सी बातों पर झगड़े होने लगे। इससे फ्रांसीसियों के व्यापार और उनकी प्रतिष्ठा को आघात पहुँचा।
आपसी झगड़ों के अतिरिक्त कम्पनी के कर्मचारियों में व्यापारिक कुशलता का भी अभाव था। इंगलिश और डच व्यापारिक कुशलता में फ्रांसीसियों से आगे थे। फ्रांसीसियों के व्यापार से उन्हें क्या मिल रहा है और इस पर उनका कितना खर्च हो रहा है, इस पर अधिक ध्यान नहीं दिया। वह अंग्रेजों और डचों की अपेक्षा भारतीय माल को अधिक मूल्य पर खरीदते थे और अपना माल कम मूल्य पर बेचते थे। फ्रेंच शान-शौकत पर अधिक खर्च करते थे। वे मितव्ययी नहीं थे। अपनी समृद्धि का प्रदर्शन करने के लिए वे स्थानीय अधिकारियों को बहुमूल्य उपहार देते थे। इन उपहारों से खर्च की अपेक्षा लाभ कम होता था। इन कारणों से फ्रांसीसियों की आर्थिक स्थिति बिगड़ गयी और उन्होंने सूरत फैक्टरी का त्याग कर दिया।
व्यापारिक शत्रुता
यूरोपीय कम्पनियों में घोर व्यापारिक शत्रुता थी। ये कम्पनियाँ जियो और जीने दो के सिद्धान्त में विश्वास नहीं करती थी। जिस प्रकार ये कम्पनियाँ अपने देश में व्यापारिक एकाधिकार प्राप्त करना चाहती थीं और चार्टर द्वारा उन्हें पूर्व से व्यापार करने का एकाधिकार मिला हुआ था, उसी प्रकार से कम्पनियाँ भारत और सुदूर पूर्व के दूसरे प्रदेशों पर व्यापारिक एकाधिकार प्राप्त करना चाहती थीं। इस कारण इन कम्पनियों में व्यापारिक युद्ध हुए। सत्रहवीं शताब्दी में यह संघर्ष तिकोना था। अंग्रेज़-पुर्तगीज-संघर्ष, डच-पुर्तगीज संघर्ष और अंग्रेज़-डच संघर्ष। अठाहरवीं शताब्दी में यह संघर्ष अंग्रेज़ और फ्रांसीसियों के बीच हुआ।
अंग्रेज़-पुर्तगीज और डच-पुर्तगीज संघर्ष
जैसा कि पहले कहा जा चुका है वास्कोडिगामा ने 1498 ई. में भारत के लिए एक नया समुद्री मार्ग खोजा। इस खोज के आधार पर तथा पोप के पोपल बुल के कारण लगभग एक शताब्दी तक पूर्व के व्यापार पर पुर्तगालियों का एकाधिकार बना रहा। सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में अंग्रेज़ों और डचों ने पुर्तगालियों के इस एकाधिकार को चुनौती दी। अंग्रेजों की अपेक्षा डच पुर्तगालियों के प्रबल शत्रु सिद्ध हुए और डचों ने पुर्तगालियों को मसालों की प्राप्ति के प्रमुख प्रदेश पूर्वी द्वीप समूह, लंका और मालाबार तट से खदेड़ दिया। इसी प्रकार जब ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने सूरत में अपनी फैक्टरी स्थापित करने का प्रयत्न किया, पुर्तगालियों के प्रभाव और कुचक्रों के कारण हाकिन्स को अपने उद्देश्य में सफलता नहीं मिली। 1612 ई. में थॉमस वैस्ट के जहाजों पर पुर्तगाली जहाजी बेड़े ने आक्रमण कर दिया। इस समुद्री युद्ध में जो सुआली (सूरत) के मुहाने पर लड़ा गया, पुर्तगालियों की पराजय हुई। इस विजय से अंग्रेजों की प्रतिष्ठा बढ़ गई।
ऐंग्लो-डच युद्ध
अंग्रेज-पुर्तगीज संघर्ष कुछ समय तक चलता रहा। परन्तु एक साझे शत्रु डचों ने दोनों को एक-दूसरे के समीप ला दिया। पुर्तगीज डचों से बहुत तंग थे और उन्होंने अंग्रेजों से मित्रता करने में अपना हित समझा। इसी प्रकार अंग्रेज़ भी पुर्तगालियों की मित्रता के लिए उत्सुक थे क्योंकि इस मित्रता से उन्हें मालाबार-तट पर मसालों के व्यापार की सुविधा प्राप्त होती थी। इस कारण गोवा के पुर्तगीज गवर्नर और सूरत के अंग्रेज प्रैजीडेन्ट में 1635 ई. में एक सन्धि हो गयी। यह मित्रता पुर्तगीज राजकुमारी केथराइन का इंग्लैण्ड के सम्राट चार्ल्स-द्वितीय से विवाह से और पक्की हो गई। इस विवाह के फलस्वरूप चार्ल्स द्वितीय को बम्बई का द्वीप दहेज में प्राप्त हुआ जिसे उसने 10 पौंड वार्षिक किराये पर कम्पनी को दे दिया।
अंग्रेज़-डच संघर्ष
डच पुर्तगालियों की अपेक्षा अंग्रेजों के अधिक प्रतिद्वन्द्वी सिद्ध हुए। अंग्रेजों और डचों दोनों ही की फैक्टरियाँ सूरत में स्थापित थीं। मसालों के व्यापार के एकाधिकार पर अंग्रेजों और डचों का संघर्ष हो गया। डच मसालों के व्यापार पर अपना एकाधिकार स्थापित करना चाहते थे जिसे अंग्रेजों ने चुनौती दी। मालाबार-तट के लिए डचों ने राजाओं से समझौते किये जिसके अनुसार काली मिर्च केवल डचों को ही बेची जा सकती थी। इस समझौते के फलस्वरूप डच कम मूल्य पर काली मिर्च प्राप्त करते थे यद्यपि स्वतन्त्र रूप से बेचने पर अधिक मूल्य प्राप्त किया जा सकता था। अंग्रेजी कम्पनी के मालाबार-तट से काली मिर्च खरीदने के मार्ग में डच हर प्रकार से रोडा अटकाते थे। जो जहाज इंगलिश कम्पनी के लिए काली मिर्च ले जाते थे, इन्हें पकड़ लिया जाता था। इन सब रुकावटों के होते हुए भी इंगलिश कम्पनी मालाबार तट से बड़ी मात्रा में काली मिर्च खरीदने और उसे इंग्लैण्ड भेजने में सफल हो जाती थी।
यद्यपि इंग्लैंड और हालैंड दोनों ही प्रोस्टेंट देश थे, परन्तु व्यापारिक शत्रुता के कारण उनमे शत्रुता के कारण उनमें तीन घमासान युद्ध 1652-54 ई., 1665-66 ई. और 1672-74 ई. में हुए। ब्रिटिश पार्लियामेंट ने अपने देश के व्यापारिक हित के लिए 1651 ई. में जहाजरानी कानून (नेवीगेशन्स ला) पास किया। जहाजरानी कानून डचों के व्यापारिक हित में नहीं थे और उन्होंने उन्हें मानने से इंकार कर दिया। जब प्रथम एंग्लो-डच युद्ध की सूचना मार्च, 1635 में सूरत पहुँची तो अंग्रेज़ बड़े चिंतित हुए और उन्होंने सूरत के मुगल सूबेदारों से डचों के आक्रमणों से रक्षा की प्रार्थना की। इससे प्रतीत होता है कि पूर्व में उस समय डच अंग्रेजों से अधिक शक्तिशाली थे। युद्ध की सूचना मिलते ही एक शक्तिशाली जहाजी सुआली (सूरत) पहुँच गया। मुगल अधिकारियों की सतर्कता के कारण डचों ने सूरत की इंगलिश फैक्टरी पर आक्रमण नहीं किया। यद्यपि स्थल पर संघर्ष नहीं हुआ, परन्तु समुद्र पर अंग्रेज और डचों में कई युद्ध हुए। अंग्रेज़ी जहाज डचों द्वारा पकड़े गये और व्यापार को हानि पहुँची। अन्य दो युद्धों (1665-67 ई. और 1672-74 ई.) में भी व्यापार को आघात पहुँचा। पहले की तरह इन युद्धों के समय भी अंग्रेजों ने मुगल-सरकार से सुरक्षा की प्रार्थना की। स्थल पर कोई युद्ध नहीं हुआ, परन्तु समुद्र पर डचों ने अंग्रेज़ी जहाजों को पकड़ लिया। सन् 1688 ई. की गौरवपूर्ण क्रान्ति से जिसमें विलियम इंग्लैण्ड का राजा बन गया, अंग्रेज़-डच सम्बन्ध सुधर गये।
डेनिस कम्पनी
डेनिस कपनी का आगमन 1616 ई. में हुआ। 1620 ई. में तमिलनाडु के टूकोबर नामक क्षेत्र में इसने व्यापारिक केन्द्र खोला। बाद में यह वापस चली गई।
आगे चलकर पुर्तगाली भी गोवा तक सीमित हो गए और ब्रिटिश और फ्रेंच कंपनियाँ ही रह गई। कर्नाटक के युद्धों में फ्रांसीसियों का भाग्य भी तय हो गया।
इंगलिश ईस्ट इण्डिया कम्पनी
1579 ई. में विलियम ड्रेक ने पूर्वी क्षेत्र का भ्रमण किया। 1578 ई. में स्पेनिश आर्मडा की हार हुई और इसी के साथ ब्रिटेन की नौसैनिक श्रेष्ठता स्थापित हो गई। 1599 में ब्रिटिश मर्चेन्ट एडवेंचर कम्पनी की स्थापना हुई। इंग्लैण्ड की महारानी एलिजाबेथ ने 31 दिसम्बर, 1600 ई. को एक चार्टर प्रदान किया जिसके अनुसार इंगलिश ईस्ट इंडिया कम्पनी का जन्म हुआ। कम्पनी ने भारतवर्ष से व्यापार करने का निश्चय किया और इस हेतु विलियम हॉकिन्स को मुग़ल सम्राट् से बातचीत करने भेजा। हाकिन्स अपने साथ इंग्लैण्ड के सम्राट् जेम्स प्रथम का, मुगल सम्राट् अकबर के नाम एक पत्र भी ले गया जिसमें मुगल-साम्राज्य में व्यापार करने की प्रार्थना थी। हाकिन्स 24 अगस्त, 1608 ई. को मुग़ल-साम्राज्य के प्रमुख बन्दरगाह सूरत पहुँचा। पुर्तगालियों ने अंग्रेजों के मार्ग में हर प्रकार की बाधा डाली और हाकिन्स को सूरत में फैक्टरी स्थापित करने की आज्ञा न मिल सकी। सूरत के गवर्नर ने हाकिन्स को मुग़ल-सम्राट् जहाँगीर से मिलने का परामर्श दिया। जहाँगीर ने हाकिन्स का स्वागत किया, परन्तु पुर्तगालियों के कुचक्रों के कारण अपने कार्य में हाकिन्स को सफलता न मिल सकी। 1611 ई. में निराश होकर हाकिन्स आगरा से चल दिया।
हेनरी मिडिलटन को 1611 ई. में पुर्तगालियों के विरुद्ध विजय प्राप्त हुई। स्थानीय अधिकरियों की दृष्टि में इस विजय ने अंग्रेजों की प्रतिष्ठा बढ़ा दी, परन्तु पुर्तगालियों के विरोध के कारण अंग्रेजी कम्पनी को कोई व्यापारिक सुविधा न प्राप्त हो सकी। सितम्बर 1612 ई. में थॉमस वेस्ट अपने छोटे से जहाजी बेड़े के साथ सूरत के बन्दरगाह पर पहुँचा। यहाँ उसका स्वागत हुआ। यह देखकर पुर्तगाली चौकन्ने हो गये और उन्होंने गोवा से एक शक्तिशाली जहाजी बेड़ा अंग्रेज़ी जहाजों पर आक्रमण करने भेजा। पुर्तगाली जहाजी बेडे ने 22 अक्टूबर 1612 ई. को अंग्रेजी बेड़े पर आक्रमण कर दिया। इस समुद्री युद्ध में, जो सुआली के मुहाने पर लड़ा गया, अंग्रेजों की विजय हुई। अंग्रेजों की प्रतिष्ठा बढ़ गयी और उन्हें सूरत में इंगलिश फैक्ट्री स्थापित करने की आज्ञा मिल गयी। 1612 में प्रथम इंगलिश फैक्ट्री सूरत में स्थापित हुई। इस समझौते की पुष्टि के लिए सम्राट् से प्रार्थना की गई। मुग़ल-सम्राट् जहाँगीर ने एक फरमान दिनांक 11 जनवरी 1613 ई. के द्वारा सूरत के अधिकारियों द्वारा किये गये समझौते की पुष्टि करते हुए कम्पनी को सूरत में अपनी फैक्ट्री स्थापित करने की स्वीकृति प्रदान कर दी तथा 3½ प्रतिशत कस्टम-ड्यूटी निश्चित की।
अपने कुचक्रों को पुर्तगालियों ने जारी रखा। अधिकारियों पर दबाव डालने के लिए उन्होंने लाल सागर से लौटते हुए सूरत के एक मूल्यवान जहाज को पकड़ लिया, यद्यपि उसके पास पुर्तगालियों की अनुमति थी। मुगल-सम्राट् जहाँगीर पर भी पुर्तगालियों ने दबाव डाला कि वह अंग्रेजों को दी गयी व्यापारिक सुविधाओं को वापस ले ले। मुग़ल-दरबार में पुर्तगालियों के इन कुचक्रों का मुकाबला करने के लिए अंग्रेज़ों ने भी एक राजदूत भेजने का निश्चय किया। इसके लिए सर टॉमस रो को चुना गया। वह अपने साथ मुगल-सम्राट् जहाँगीर के लिए जेम्स प्रथम का एक पत्र भी लाया, जिसमें प्रार्थना की गई थी कि उन्हें (अंग्रेज़ो की) दूसरों की शत्रुता ईर्ष्या अथवा बहकाने पर किसी प्रकार की असुविधा न हो और उनके व्यापार को हानि न पहुँचे। आपके बन्दरगाह सुआली और सूरत में, उनके (अंग्रेज़ों के) जहाजों पर पुर्तगालियों ने आक्रमण किये हैं, यद्यपि उन्होंने (अंग्रेजों ने) इन आक्रमणों से अपनी रक्षा करते हुए अपनी शक्ति का अच्छा प्रदर्शन किया है, फिर भी आपसे प्रार्थना है कि उन भागों में आप उन्हें (अंग्रेजों को) सहायता प्रदान करें और उनकी रक्षा करें। रो का सम्राट् जहाँगीर ने स्वागत किया। उसके प्रयत्नों से अंग्रेजों की स्थिति सुदृढ़ हो गई, परन्तु वह निश्चित संधि मुग़ल-सम्राट् और इंग्लैण्ड के सम्राट् के बीच कराने में सफल न हो सका। 1619 में रो के इंग्लैण्ड जाने के समय तक सूरत, आगरा, अहमदाबाद और भड़ौच में अंग्रेजों की फैक्टरियाँ स्थापित हो गई थीं।
संगठन-सत्रहवीं शताब्दी के मध्य तक इंगलिश ईस्ट इंडिया कम्पनी की फैक्ट्रियाँ दो प्रैज़ीडेटों के अन्तर्गत संगठित थीं। इसमें से एक सूरत की अंग्रेज़ी फैक्टरी का प्रैज़ीडेंट था। सूरत प्रैजीडेंट के अधीन पश्चिमी भाग में स्थित फैक्ट्रियाँ, दक्षिण भारत में मालाबार तट स्थित राजापुर की फैक्ट्री, फारस और लालसागर स्थित फैक्ट्रियाँ थीं। सूरत के प्रैजीडेंसी के अधीन निम्नलिखित फैक्ट्रियाँ थीं-
(1) सूरत, (2) अहमदाबाद, (3) आगरा, (4) थट्टा (सिंध), (5) गोमरूप (बन्दर अब्बास) तथा (6) इस्पहान (फारस)।
1657 ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी ने पूर्व में स्थित अपनी समस्त फैक्टरियों को सूरत प्रैजीडेंसी के अधीन कराने का निश्चय किया। इस प्रैजीडेसी के अन्तर्गत 4 शाखाएँ थीं, जो एजेण्ट और काउन्सिल के अधीन थीं, ये शाखाएँ थीं-(1) कोरोमण्डल-तट, (2) बंगाल, (3) फारस एवं (4) बांटाम।
बम्बई की प्राप्ति
बम्बई का द्वीप चार्ल्स सेकिण्ड को इनफैण्टा केथराइन से शादी के रूप में पुर्तगाल के सम्राट् से प्राप्त हुआ। वास्तव में बम्बई द्वीप देकर पुर्तगाली डचों के विरुद्ध अंग्रेजों की सहायता प्राप्त करना चाहते थे। एक गुप्त संधि के द्वारा चाल्र्स सेकिण्ड ने पूर्व में पुर्तगालियों की बस्तियों की डचों के आक्रमणों से रक्षा करने तथा पुर्तगाल सम्राट् और नीदरलैण्ड के स्टेट्स जनरल के बीच स्थायी शांति स्थापित करने हेतु प्रयत्न करने का वचन दिया। 1661 ई. में चार्ल्स सेकिण्ड ने मार्लवरो के अधीन एक जहाजी बेड़ा बम्बई द्वीप को प्राप्त करने के लिए भेजा। 18 सितम्बर, 1662 ई. को मार्लवरो बम्बई पहुँचा, परन्तु बम्बई का पुर्तगाली गवर्नर जो इस निर्णय से प्रसन्न नहीं था, किसी-न-किसी बहाने बम्बई के हस्तान्तरण को टालता रहा। मार्लवरो इंग्लैण्ड वापस लौट गया।
पुर्तगाली सम्राट् ने पुनः बम्बई गवर्नर को आदेश भेजा और 1665 ई. में बम्बई के द्वीप को अंग्रेजों को सौंप दिया। साथ-ही-साथ उसने पुर्तगाल के सम्राट् को बम्बई का महत्त्वू बताते हुए लिख दिया- भारत (पुर्तगालियों के लिए) उसी दिन खो जाएगा जिस दिन अंग्रेजों को बम्बई सौंप दिया जाएगा। चार्ल्स सेकिण्ड को 10 पौण्ड वार्षिक के मामूली किराये पर 27 मार्च, 1668 ई. को दे दिया। कम्पनी ने अपने अधिकारियों को बम्बई द्वीप प्राप्त करने के निर्देश भेज दिये। बम्बई द्वीप को सूरत प्रैजीडेंसी के अधीन रखा गया। सूरत फैक्टरी के प्रैज़ीडेंट सर जार्ज आक्सिण्डन को बम्बई द्वीप का गवर्नर और कमाण्डर-इन-चीफ़ नियुक्त किया गया।
कर्मचारियों द्वारा निजी व्यापार
कम्पनी के कर्मचारियों के वेतन कम थे। अपनी आय को बढ़ाने के लिए कर्मचारी अपना निजी व्यापार करते थे। निजी व्यापार ही कम्पनी की सेवा में कर्मचारियों के लिए सबसे बड़ा आकर्षण था। अपने कर्मचारियों द्वारा किया गया व्यापार कम्पनी के लिए हानिकारक था। इस निजी व्यापार को रोकने के लिए कम्पनी ने समय-समय पर आदेश जारी किये। कर्मचारियों को निजी व्यापार न करने की शपथ लेनी होती थी। जहाजों के कप्तान को एक बॉण्ड इस आशय का भरना होता था कि वह कम्पनी के माल के अतिरिक्त अन्य माल न इंग्लैंड लायेंगे और न इंग्लैंड से ले जायेंगे। निजी माल पकड़ा जाने पर कम्पनी उसे जब्त कर लेती थी। जब कम्पनी के संचालकों को यह सूचना मिली कि उनके कर्मचारी कम्पनी के जहाजों में भारत के एक बन्दरगाह से दूसरे बन्दरगाह को अपना निजी माल भेजकर खूब कमा रहे हैं, तब उन्होंने सूरत के प्रैजीडेण्ट को कठोर आदेश भेजे कि इस निजी व्यापार को तुरन्त बन्द किया जाये और निजी व्यापार करने वाले कर्मचारियों को कम्पनी से बखास्त करके इंग्लैंड भेज दिया जाय।
कम्पनी के कर्मचारी कभी-कभी भारतीय व्यापारियों से गुप्त साझेदारी करके लाभ कमाते थे। भारतीय व्यापारी कस्टम ड्यूटी और अन्य राहदरी करों में कम्पनी को रियायत होने के कारण इस गोपनीय साझेदारी में जाते थे। कम्पनी को जब पता चला कि इस प्रकार माल फारस को तब उसने इसके विरुद्ध सूरत प्रैज़ीडेन्सी को कठोर चेतावनी भेजी।
कम्पनी के कर्मचारी कभी-कभी कम्पनी के धन को अपने निजी व्यापार में ले आते थे और इस प्रकार कम्पनी को बड़ी हानि पहुँचती थी। कम्पनी के संचालकों ने अपने एक आदेश दिनांक 21 अक्टूबर, 1679 ई. के द्वारा कठोर चेतावनी देते हुए कहा कि- जो कर्मचारी कंपनी के धन का इस प्रकार प्रयोग करेंगे, इन्हें कंपनी की नौकरी से निकल दिया जाएगा और कंपनी से मिलने वाली समस्त सुविधाओं से उन्हें वंचित कर दिया जाएगा।
निजी व्यापार के विरुद्ध कठोर आदेशों के होते हुए भी, कम्पनी निजी व्यापार को पूर्ण रूप से रोकने में सफल न हो सकी। यह देखकर कम्पनी ने कुछ निर्धारित वस्तुओं में निजी व्यापार की अनुमति प्रदान कर दी, परन्तु निजी व्यापार की वस्तुओं को कम्पनी के रजिस्टर में दर्ज कराना अनिवार्य कर दिया गया, जिसकी सूचना कम्पनी के संचालकों को देनी पड़ती थी।
महारानी एलिजाबेथ ने इंगलिश ईस्ट इंडिया कम्पनी को 1600 ई. में चार्टर द्वारा पूर्व से व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान किया था। जिन व्यापारियों को व्यापार करने का अधिकार नहीं मिला था, वे अनाधिकृत रूप से व्यापार करते थे। जेम्स प्रथम और चार्ल्स प्रथम ने व्यक्तिगत व्यापारियों को पूर्व से स्वतन्त्र रूप से व्यापार करने के लाइसेंस दिये। कॉमनवेल्थ के समय में अनधिकृत व्यापारियों की गतिविधियाँ अधिक बढ़ गयीं। 1660 ई. में राजतंत्र की पुन: स्थापना पर कम्पनी को चार्ल्स द्वितीय ने अधिक सुविधाएँ प्रदान कीं। चाल्र्स द्वितीय ने कम्पनी को यह अधिकार दिया कि वह इन अनाधिकृत व्यापारियों को बन्दी बनाकर इंग्लैंड भेज दे। कम्पनी के संचालकों ने सूरत प्रैजीडेन्सी को आदेश भेज दिये कि इन अनाधिकृत व्यापारियों को बन्दी बनाकर इंग्लैंड भेज दिया जाये।
1688 ई. की गौरवपूर्ण क्रान्ति (गोरियास रिवाल्यूशन) ने विलियम को इंग्लैंड का राजा बनाया और पार्लियामेन्ट की प्रभुता का युग प्रारम्भ हो गया। इस प्रकार राजा द्वारा किया गया व्यापारिक एकाधिकार पार्लियामेन्ट के कानून के द्वारा रद्द किया जा सकता था। एक अनाधिकृत व्यापारी ने हाऊस ऑफ कॉमन्स की एक कमेटी के समक्ष कहा कि वह पूर्व से व्यापार करना कोई अपराध नहीं समझता और तब तक व्यापार करता रहेगा जब तक इसके विरुद्ध पार्लियामेन्ट कानून नहीं बनाती। इंग्लैंड की पार्लियामेन्ट ने एक प्रस्ताव पास किया, जिसके द्वारा पूर्व से व्यापार करना सब अंग्रेजों का अधिकार है, जब तक इसके विरुद्ध पार्लियामेन्ट कोई कानून नहीं बनाती।
पार्लियामेन्ट के इस प्रस्ताव से अनाधिकृत व्यापारियों को बड़ा प्रोत्साहन मिला। उन्होंने एक विरोधी कम्पनी का निर्माण किया। सरकार को धन की आवश्यकता थी। इस विरोधी कम्पनी ने 20 लाख पौंड 8 प्रतिशत ब्याज पर सरकार को देने का प्रस्ताव किया। साथ ही सरकार से एक चार्टर प्रदान करने की प्रार्थना की। सरकार ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। 1698 ई. में पार्लियामेन्ट के एक एक्ट द्वारा नयी कम्पनी का जन्म हुआ। सरकार ने पुरानी कम्पनी को तीन वर्ष तक का नोटिस दे दिया।
दो कम्पनियाँ और परस्पर संघर्ष
इस प्रकार दो कम्पनियाँ भारत से व्यापार करने लगीं, क्योंकि तीन वर्ष की नोटिस मिलने पर पुरानी कम्पनी को भी 29 सितम्बर, 1701 ई. तक पूर्व से व्यापार करने का अधिकार था। इस प्रकार भारत में दोनों कम्पनियों के कर्मचारियों में झगड़ा प्रारम्भ हो गया। नयी कम्पनी के प्रैजीडेंट सर निकोलस वेंट ने मुग़ल-अधिकारियों को सूचित किया कि उनकी कम्पनी को भारत से व्यापार करने का एकाधिकार इंग्लैंड की पार्लियामेन्ट द्वारा प्राप्त है और पुरानी कम्पनी के कर्मचारी किसी भी दिन कम्पनी के कर्जों को बिना चुकाये भारत को छोड़ कर जा सकते हैं। उससे स्थानीय व्यापारियों के मन में सन्देह पैदा हो गया। सम्राट् विलियम ने सर विलियम नोरिस को अपना विशेष दूत बनाकर मुग़ल-दरबार में भेजा। नोरिस का उद्देश्य नयी कम्पनी के लिए व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त करना था। विलियम नोरिस को यह निर्देश था कि वह यह स्पष्ट कर दे कि नयी कम्पनी का पुरानी कम्पनी के ऋणों से कोई सम्बन्ध नहीं है। सर विलियम नोरिस ने औरंगजेब को बहुमूल्य उपहार दिये। उसने मुग़ल-सम्राट् को सूचित किया कि नई कम्पनी को चार्टर प्रदान किया गया है और पुरानी कम्पनी समाप्त कर दी गई है। सम्राट् से उसने प्रार्थना की कि पुरानी कम्पनी के कर्मचारियों को मुग़ल-साम्राज्य में व्यापार करने की आज्ञा न दी जाये।
पुरानी कम्पनी के कर्मचारी भी चुप नहीं थे। उन्होंने मुगल-दरबारियों को समझाया कि वह ही वास्तविक कम्पनी है जो राजकीय चार्टर के आधार पर व्यापार कर रही है और नयी कम्पनी के सदस्य भी अंग्रेजू व्यापारी हैं जिनको भारत से व्यापार करने की आज्ञा मिल गई है। मुगल-सम्राट् का उत्तर यह था कि मुग़ल-बन्दरगाह सब व्यापारियों के लिए खुले हुए हैं और वह पुरानी कम्पनी के कर्मचारियों को अपने साम्राज्य से नहीं निकाल सकता। सर विलियम नोरिस अपने उद्देश्य में सफल नहीं हुआ।
दोनों कम्पनियों का एक होना
दोनों कम्पनियों ने अनुभव किया कि आपसी संघर्ष दोनों को विनाश के कगार पर ले जायेगा। इंग्लैंड का जनमत दोनों कम्पनियों को एक करने के पक्ष में था। दोनों कम्पनियों में समझौते की बातचीत चली। दोनों कम्पनियों ने अपने सात-सात प्रतिनिधि बातचीत के लिए चुने। 1702 ई. में दोनों कम्पनियों में समझौता हो गया और दोनों कम्पनियों की एक संयुक्त कम्पनी बन गई।