शिवाजी के उत्तराधिकारी
शिवाजी के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र शम्भूजी आया। विषय-सुख का प्रेमी होने पर भी वह वीर था। उसका प्रमुख परामर्शदाता उत्तर भारत का एक ब्राह्मण था, जिसका नाम कवि कलश था। कवि कलश का आचरण निन्दा से परे नहीं था। नये राजा (शम्भूजी) के अधीन मराठा शक्ति दुर्बल हो गयी, परन्तु बिल्कुल मंदगति नहीं हुई। शम्भूजी ने स्वयं मुगल संकट की प्रकृति को महसूस किया तथा उस प्रबल सेना के साथ साहस एवं दृढ़ता से लड़ा, जिसे औरंगजेब दक्कन में लाया था। अन्त में मुकर्रब खाँ नामक एक साहसी मुगल अफसर ने उस पर अचानक हमला कर रत्नागिरि से बाईस मील दूर संगमेश्वर नामक स्थान पर उसे पकड़ लिया (11 फरवरी, 1689 ई.)। उसका मंत्री कवि कलश तथा उसके पचीस प्रमुख अनुगामी भी उसके साथ कैद कर लिये गये। दोनों प्रमुख कैदियों को बहादुरगढ़ के शाही पड़ाव में लाया गया तथा खुलेआम घुमाया गया। तीन सप्ताह से अधिक तक तरह-तरह की यातनाएँ देने के बाद बदियों को 11 मार्च, 1689 ई. को मार डाला गया। शाही दल ने शीघ्र बहुत-से मराठा दुगों पर अधिकार कर लिया; यहाँ तक मराठा राजधानी रायगढ़ पर भी घेरा डाल लिया। परन्तु शम्भूजी का छोटा भाई राजाराम भिखारी के वेश में नगर से भाग निकला तथा काफी साहसिक यात्रा के बाद कर्णाटक में जिंजी पहुँचा। इसी बीच राजधानी ने आत्मसमर्पण कर दिया था तथा मुगलों ने शम्भूजी के परिवार को, जिसमें उसका बहुत छोटा पुत्र शाहू भी था, पकड़ लिया था। इस प्रकार ऐसा प्रतीत होने लगा कि मराठा शक्ति पूर्ण रूप से विध्वस्त हो गयी।
परन्तु वह भावना जिससे शिवाजी ने अपने लोगों को प्रेरित किया था, इतनी आसानी से नष्ट नहीं हो सकती थी। मराठों ने शीघ्रतापूर्वक शक्ति संचय किया। उन्होंने मुगलों के साथ राष्ट्रीय प्रतिरोध का युद्ध पुनः आरम्भ कर दिया, जिसने अन्त में मुगलों के साधनों को समाप्त कर डाला। महाराष्ट्र में रामचंद्र पन्त, शांकर जी मल्हार तथा परशुराम त्रयम्बक-जैसे नेताओं ने मराठों को पुनर्जीवित किया। परशुराम 1701 ई. में प्रतिनिधि बना। पूर्वी कर्णाटक में प्रथम प्रतिनिधि प्रह्लाद निराजी योग्यतापूर्वक काम चला रहा था। अब मराठा कप्तान अपने आप विभिन्न दिशाओं में मारकाट मचाने लगे। औरंगजेब को वस्तुत: जन-युद्ध का सामना करना पड़ गया। वह इसका अन्त नहीं कर सकता था, क्योंकि कोई ऐसा मराठा सरदार अथवा राजकीय सेना नहीं थी, जिसे वह आक्रमण कर नष्ट करता। सन्तजी घोरपड़े तथा धनाजी जाधव नामक दो योग्य एवं सक्रिय मराठा सेनापतियों ने एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक रौंद डाला तथा मुगलों को बहुत हानि और गड़बड़ी पहुँचायी। मराठा इतिहासकारों के अनुसार उन्होंने बादशाह के पड़ाव तक अपने साहसपूर्ण आक्रमण पहुँचा दिये। मुगल दक्कन के बहुत-से अफसरों ने मराठों को चौथ देकर अपनी रक्षा की तथा उनमें से कुछ ने तो बादशाह के लोगों को लूटने में शत्रु का साथ तक दिया। जैसा डाक्टर यदुनाथ सरकार कहते हैं, मुगल शासन वास्तव में टूट चुका था, केवल देश में अपनी सारी सेना के साथ बादशाह की उपस्थिति ने इसे एक साथ जोड़कर रखा था किन्तु अब यह भ्रांतिजनक भूत भर था। सन्ता एवं धना इस युग के वीर थे, किसी बात का सूत्रपात करना बिल्कुल उन्हीं के हाथों में था तथा वे शाही दल द्वारा बनाई गयी प्रत्येक योजना एवं गणना को उलट देते थे।
जिंजी पर, जिसने लगभग आठ वर्षों तक घेरे का सामना किया था, जुल्फिकार खाँ ने जनवरी, 1698 ई. में अधिकार कर लिया। परन्तु राजाराम सतारा भाग चुका था। वहाँ उसने एक प्रबल सेना इकट्ठी कर उत्तरी दक्कन में पुन: संघर्ष आरम्भ कर दिया, जहाँ औरंगजेब ने अपनी सेना का जमाव कर रखा था। शाही दल ने दिसम्बर, 1699 ई. में सतारा के दुर्ग पर घेरा डाल दिया, परन्तु रक्षक सेना ने वीरतापवूक इसकी प्रतिरक्षा की। अन्त में राजाराम की मृत्यु (12 मार्च, 1700 ई.) के पश्चात् उसके मंत्री परशुराम ने कुछ शर्तों पर इसे समर्पित कर दिया। अब बादशाह स्वयं मराठों के एक के बाद दूसरे किले पर अधिकार करने लगा। परन्तु मराठे जो आज खोते थे उसे कल पुनः प्राप्त कर लेते थे, इस प्रकार युद्ध अन्तहीन रूप में जारी रहा।
राजाराम की मृत्यु के पश्चात् उसकी विधवा ताराबाई ने, जो अद्वितीय उत्साह वाली महिला थी, इस संकटपूर्ण समय में अपने अल्पवयस्क पुत्र शिवाजी तृतीय की संरक्षिका के रूप में मराठा राष्ट्र की बागडोर सँभाली। खाफी खाँ जैसे कटु आलोचक तक ने स्वीकार किया है कि वह एक चतुर तथा बुद्धिमत्ती स्त्री थी तथा दीवानी एवं फौजी मामलों की अपनी जानकारी के लिए अपने पति के जीवन काल में ही ख्याति प्राप्त कर चुकी थी। राज्य के शासन को संगठित कर तथा गद्दी पर उत्तराधिकार के लिए प्रतिद्वन्द्वी दलों के झगड़ों को दबाकर उसने, जैसा खाफी खाँ बतलाता है, शाही राज्य के रौदने के लिए सशक्त उपाय किये तथा सिरोंज तक दक्कन के छ: सूबों, मंदसोर एवं मालवों के सूबों के लूटने के लिए सेनाएँ भेजीं। मराठे पहले ही 1699 ई. में मालवा पर आक्रमण कर चुके थे। 1703 ई. में उनका एक दल बरार, (एक सदी तक एक मुगल सूबा) में घुस पड़ा। 1706 ई. में उन्होंने गुजरात पर आक्रमण किया तथा बड़ौदा को लूटा। अप्रैल अथवा मई, 1706 ई. में एक विशाल मराठा सेना अहमदनगर में बादशाह की छावनी पर जा धमकी। एक लंबे तथा कठिन संघर्ष के बाद उसे वहाँ से पीछे हटा दिया गया। आक्रमणों के कारण मराठों के साधन बहुत बढ़ गये। इस प्रकार अब तक वे व्यवहारिक रूप में दक्कन की तथा मध्य भारत के कुछ भागों की भी परिस्थिति के स्वामी बन चुके थे। जैसा कि भीमसेन नामक एक प्रत्यक्षदर्शी ने लिखा, मराठे सम्पूर्ण राज्य पर पूर्णतया छा गये तथा उन्होंने सड़कों को बन्द कर दिया। लूटपाट के द्वारा वे दरिद्रता से बच गये तथा बहुत धनी बन गये। उनकी सैनिक कार्यप्रणाली में भी परिवर्तन हुआ, जिसका तात्कालिक परिणाम उनके लिए अच्छा हुआ। मराठा राष्ट्रीयता विजयिनी शक्ति के रूप में उसके बाद भी जीवित रही, जिसका प्रतिरोध करने में मुग़ल राजवंश के दुर्बल उत्तराधिकारी असफल रहे।