प्रत्येक 1000 पुरुषों पर महिलाओं की संख्या के रूप में लिंगानुपात को परिभाषित किया जाता है। लिंगानुपात, एक समय विशेष पर पुरुषों एवं महिलाओं के बीच सहभागिता का एक महत्वपूर्ण सामाजिक संकेतक है। लिंगानुपात को प्रभावित करने वाले कारकों में, मुख्य रूप से मृत्यु-दर में विभेद, लिंग चयन प्रवास, जन्म पर लिंगानुपात और, जनसंख्या परिगणना में लिंग विभेद हैं।
अधिकतर विकसित देशों के मुकाबले भारत में जनसंख्या की असमान संरचना दिखाई देती है। इस मामले के लिए कुछ बातों को सामने रखा गयाः उच्च मातृत्व मृत्यु-दर, कन्या भ्रूण हत्या, लिंग चयन, कन्या गर्भपात, बालिका की उपेक्षा जिस कारण किशोरावस्था में लड़कियों के बीच उच्च मृत्यु-दर, और जन्म पर लिंगानुपात में परिवर्तन
ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकृति के कानून ने स्वयं जन्म पर प्रतिकूल लिंगानुपात को स्थापित किया: सामान्यतः प्रति एक हजार पुरुष जन्मों पर 943-952 महिला जन्मी हैं जो कि औसत रूप से प्रति हजार पुरुषों पर लगभग 50 महिलाओं की कमी की ओर संकेत करते हैं। यहां तक कि भारत में जनसंख्या की लिंग संरचना एक चिंता का विषय है जो एक लंबे समय से 950 से कम रहा है।
2001 में हुई पिछली जनगणना से राष्ट्रीय लिंगानुपात में सात अंक की वृद्धि हुई है। यह 1971 की जनगणना के बाद अधिकतम है।
2011 में, वैश्विक आकलनों के अनुसार, विश्व में प्रति 100 महिलाओं पर 102 पुरुष हैं। अमेरिका, रूसी संघ, जापान एवं ब्राजील में महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक है। भारत के पड़ोसी देशों में मिली-जुली तस्वीर सामने आती है। म्यांमार (94), श्रीलंका (96) और नेपाल (94) में कुल जनसंख्या में पुरुषों का अनुपात अधिक है जबकि अन्य देशों में लिंगानुपात में पुरुषों की संख्या अधिक है।
स्वतंत्रता पूर्व समय में, लिंगानुपात 1951 तक निरंतर गिरता रहा। स्वतंत्रता पश्चात्, यह पैटर्न जारी रहा और 1951 के पश्चात् लगातार दो दशकों में लिंगानुपात गिरकर 1971 में 930 तक पहुंच गया। 1961-71 के दौरान लिंगानुपात में 11 बिन्दुओं भारत में लिंगानुपात की तीव्र गिरावट देखी गई।
1971 की जनगणना के बाद, यह पैटर्न जारी नहीं रहा, एक दशक में वृद्धि (लिंगानुपात में) और दूसरे में गिरावट दर्ज की गई। हालांकि, यह 930 के आस-पास मंडराता रहा। 1971 से लिंगानुपात के अनंतिम परिणामों के अनुसार, यह उच्चतम रहा।
महिलाओं की दृश्यता में ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में इजाफा हुआ। देश के ग्रामीण क्षेत्र में 2001 से 2011 तक केवल 3 बिन्दु (946 से 949) की वृद्धि हुई। शहरी क्षेत्रों में 2001-2011 में 29 प्वांइट (900-929) की प्रशंसनीय वृद्धि हुई।
देश में लिंगानुपात, जो 2001 की जनगणना में 933 था, जनगणना वर्ष 2011 में बढ़कर 943 हो गया है। ग्रामीण क्षेत्रों में यह 946 से बढ़कर 949 हो गया।
केरल में कुल जनसंख्या (1084), ग्रामीण जनसंख्या (1078) और शहरी जनसंख्या (1091) के संदर्भ में उच्चतम लिंगानुपात है। शहरी क्षेत्रों के संदर्भ में निम्नलिखित लिंगानुपात चंडीगढ़ में (690) दर्ज किया गया है। इसके बाद दमन एवं दीव का स्थान (551) आता है। सात राज्यों नामतः जम्मू एवं कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड, बिहार, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और एक संघ प्रदेश लक्षद्वीप ने ग्रामीण क्षेत्रों में लिंगानुपात की निम्न स्थिति को प्रदर्शित किया है। दमन एवं दीव और दादरा और नागर हवेली ने शहरी क्षेत्रों में समान प्रवृत्ति प्रकट की है।
केरल में लिंगानुपात सर्वाधिक रहता है। यह एकमात्र ऐसा राज्य है जहां महिलाओं की संख्या अधिक है। केंद्र शासित प्रदेश पुदुचेरी (पांडिचेरी) में लिंगानुपात 1037 है। पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में लिंगानुपात में सुधार तो हुआ है लेकिन यह अब भी 1000 पुरुषों पर 900 महिलाओं से कम है। पंजाब और हरियाणा के दस जिलों में सबसे कम लिंगानुपात 754 से 784 के मध्य है। लिंगानुपात की दृष्टि से शीर्ष 5 राज्य हैं- केरल (1084); तमिलनाडु (996); आंध्र प्रदेश (993); छत्तीसगढ़ (991), और ओडिशा (979)।
बाल लिंगानुपात: 1981 से आगे, भारतीय जनगणनाओं ने 0-6 वर्ष आयु वर्ग के पुरुष एवं महिला के लिए जनसंख्या आंकड़े जारी किए। इसने इस आयु वर्ग के बच्चों के लिंगानुपात की गणना में सक्षम बनाया।
1991 के बाद, समग्र लिंगानुपात में निरंतर वृद्धि हुई, लेकिन 1961 से बच्चों के लिंगानुपात में निरंतर गिरावट भी आई। बाल लिंगानुपात, 2001 में 927 था जो 2011 में घटकर 919 रह गया है। 0-6 आयु वर्ग के सर्वोच्च लिंगानुपात में तीन राज्य क्रमशः अरुणाचल प्रदेश (971) मिजोरम (970), मेघालय (970) और छत्तीसगढ़ (969) हैं। संघ शासित क्षेत्र के संदर्भ में यह स्थान क्रमशः अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह (968), पुदुचेरी (967) और दादरा और नागर हवेली (926) को प्राप्त है।
सर्वाधिक न्यूनतमलिंगानुपात (0-6 वर्ष) में आने वाले राज्य हरियाणा (834), पंजाब (846) और जम्मू एवं कश्मीर (862) हैं जबकि केंद्र शासित प्रदेशों में दिल्ली (871), चंडीगढ़ (880), और लक्षद्वीप (911) न्यूनतम स्यान पर हैं।
ग्रामीण क्षेत्र में बाल लिंगानुपात (0-6 वर्ष) महत्वपूर्ण रूप से गिरकर 2001 में 934 की तुलना में 2011 में 923 रह गया। शहरी क्षेत्र में यह गिरावट 1 अंक तक सीमित रही जो कि 2001 में 906 से गिरकर 2011 में 905 तक पहुंच गई।
प्रतिकूल लिंगानुपात क्यों?
सामान्य रूप में प्रतिकूल लिंगानुपात के लिए कई कारक जिम्मेदार हैं। इनमें से बेहद प्रचलित कारक हो सकते हैं: अधिक संख्या में नर बच्चे का पैदा होना, बीमारियों के कारण, विशेष रूप से पोषक तत्वों की कमी से होने वाले रोग, पुरुष की अपेक्षा महिलाओं में अधिक मृत्यु-दर, समय से पूर्व बच्चे का जन्म और प्रसव कार्य अकुशल दाइयों द्वारा होने से मातृ मृत्यु-दर बढ़ जाती है, और मादा बच्चे की निरंतर उपेक्षा। समग्र रूप से, महिलाओं की निम्नदशा भी प्रतिकूल लिंगानुपात में योगदान करती है।
जब 0-6 आयु समूह के बच्चों के बीच प्रतिकूल लिंगानुपात पर विचार किया जाता है, तो लिंग की पूर्व जन और मादा भ्रूण की हत्या जैसी कुप्रथाएं सामने आती हैं। भारत में सामाजिक-सांकृतिक परम्पराओं के तहत् लड़के को अधिक प्राथमिकता दी जाती है। इन परिस्थितियों में, जब एक जोड़ा (पति-पत्नी) परिवार के आकार को सीमित करना चाहते हैं (जैसाकि छोटा परिवार मानक तेजी से स्वीकार किया जा रहा है) और पहला बच्चा लड़की हो जाती है, तो इस बात की बेहद संभावना होती है कि वे लिंग निर्धारण जांच करवाएंगे और यदि यह लड़की हुई तो भ्रूण, को नष्ट करवा देंगे। यह तब भी होता है जबकि प्रसव पूर्व लिंग निर्धारण की जांच कानून के विरुद्ध है।असंतुलित किए गए लिंगानुपात के सामाजिक-आर्थिक परिणाम बेहद गंभीर हो सकते हैं।