भारतीय इतिहास में मुग़ल साम्राज्य एक युग के समान है। सल्तनतकाल की समाप्ति के साथ भारतीय इतिहास में इस नए युग का प्रारम्भ होता है। भारतीय इतिहास का यह नव युग मुग़लकाल के नाम से प्रसिद्ध है। इस राजवंश का संस्थापक बाबर था जो चगताई तुर्क था। बाबर अपने पिता की ओर से तैमूर का वंशज था और माता की ओर से चंगेज खाँ का। जैसा कि डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है बाबर मुग़ल नहीं था, एक तुर्क था और अपने पिता की ओर से तैमूर का वंशज था, उसकी माँ मध्य एशिया के युनूस खाँ नामक एक मुग़ल या मंगोल सरदार की पुत्री थी। वास्तव में भारत के वे सम्राट् जो मुग़ल कहलाते हैं, तुर्क के मंगोल नहीं। सत्य तो यह है कि बाबर का मुगलों के साथ घृणास्पद व्यवहार था और उनके रहन-सहन से उसे घृणा थी। उसने तुर्कों तथा मंगोलों में सदैव भेद रखा और उन्हें वह सदा मुग़ल लिखा करता था। किन्तु इस अन्तर के होते हुए भी इतिहासकारों ने उत्तर मध्ययुग में उदित इस राजवंश को मुग़ल राजवंश और उनके द्वारा स्थापित साम्राज्य को मुग़ल साम्राज्य की संज्ञा दी है। लगभग दो शताब्दियों के ऊपर विशाल काल-खण्ड में फैला मुग़ल शासन-काल भारतीय इतिहास का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण युग है।
इस्लाम धर्म ग्रहण करने के बाद मंगोलो की ही एक शाखा मुग़ल कही जाने लगी। तैमूर ने एक बृहत साम्राज्य का निर्माण किया था। इसका साम्राज्य उत्तर में बोलगा नदी से दक्षिण में सिंधु नदी तक फैला हुआ था। इसमें एशिया माइनर का क्षेत्र, मावराउन्नहर (ट्रांस आक्तिसयाना), अफगानिस्तान और इरान का क्षेत्र शामिल था। पंजाब भी उसके अधीन रहा था। 1404 ई. में तैमूर की मृत्यु हो गयी और उसका उत्तराधिकारी शाहरुख मिर्ज़ा ने साम्राज्य के बहुत बड़े भाग पर एकता बनाये रखी। शाहरुख के पश्चात् साम्राज्य का विभाजन हो गया। तैमूर राजकुमार आपस में ही संघर्ष करने लगे और एक प्रकार की राजनैतिक शून्यता की स्थिति उत्पन्न हो गयी। इसी रिक्ति को भरने के लिये कुछ नये राज्य अस्तित्व में आये। तैमूर साम्राज्य के पतन के पश्चात् तीन साम्राज्य अस्तित्व में आए यथा मुग़ल, सफवी और उजबेक। ईरान के पश्चिम में अर्थात् पूर्वी यूरोप में ओटोमन साम्राज्य की स्थापना हुयी।
बाबर: 1526-1530 ई.
1526 ई. से लेकर 1556 ई. तक का भारत का इतिहास मुख्यतः इस भूमि पर प्रभुता स्थापित करने के लिए मुग़ल अफगान-संघर्ष की कहानी है। भारत पर जो पहले मुग़ल (मंगोल) आक्रमण हुए थे, उनका दो बातों को छोड़ और कोई स्पष्ट फल नहीं निकला। इन आक्रमणों से नये मुसलमानों के बसने के फलस्वरूप भारतीय आबादी में एक नया तत्व जुड़ गया जो समय-समय पर तुर्क-अफगान सुल्तानों के लिए समस्याएँ खड़ा करता रहा। पर तैमूर के, जिसने साम्राज्य के एक प्रांत पंजाब पर अधिकार कर लिया था, आक्रमण से ह्रासोन्मुख सल्तनत के पतन की गति तीव्र हो गयी। उसके एक वंशज बाबर को उत्तरी भारत की क्रमबद्ध विजय करने का प्रयत्न करना तथा इस प्रकार यहाँ एक नये तुर्की राज्य की स्थापना करना बदा था। यह राज्य उसके पुत्र एवं उत्तराधिकारी हुमायूँ के समय में अफगान पुनरूत्थान के कारण हाथ से निकल गया तथा 1556 ई. तक पुन: अधिकार में आया, जिसे अकबर ने धीरे-धीरे बढ़ाया। वास्तव में भारत की मुग़ल-विजय के इतिहास में तीन अवस्थाएँ थीं। पहली अवस्था (1526-1540 ई.) हुमायूँ के शासनकाल से आरम्भ हुई, जिसने मालवा, गुजरात एवं बंगाल को वशीभूत करने के असफल प्रयास किये, पर शेरशाह द्वारा भारत से भगा दिया गया। इसका मतलब था अफगान शक्ति का पुनरुत्थान। तीसरी अवस्था में (1545-1556 ई.) हुमायूँ द्वारा मुग़ल राज्य का पुन: स्थापन एवं अकबर द्वारा उसका दृढ़ीकरण हुआ।
बाबर कुछ समय से हिन्दुस्तान पर आक्रमण करने की महत्त्वाकांक्षा को पाल रहा था। विपत्ति-विद्यालय में हुए उसके प्रारंभिक प्रशिक्षण के कारण उसमें साहसिक काम करने की भावना घर कर गयी थी। उसने शीघ्र पंजाब में घुसकर 1524 ई. में लाहौर पर अधिकार कर लिया। पर उसके भारतीय मित्र दौलत खां तथा आलम खां ने तुरंत पानी गलती महसूस की जब उन्होंने देखा की भारत में जीते प्रदेशों के छोड़ने का बाबर का इरादा नहीं है, तब वे उसके विरुद्ध हो गये। इससे विवश होकर बाबर काबुल लौट गया, जहाँ वह फिर एक बार आक्रमण करने के उद्देश्य से सेना इकट्ठी करने लगा।
इस आक्रमण के आने में बहुत देर नहीं लगी। नवम्बर, 1525 ई. में वह से सेना लेकर चला तथा पंजाब पर अधिकार कर दौलत खाँ लोदी को अधीन होने के लिए बाध्य कर दिया। दिल्ली-विजय करने का दुस्तर कार्य, जो निश्चय ही बाबर की महत्वाकांक्षा के घेरे में था, अभी पूरा करना बाकी था। इसलिए वह एक छोटे से अफगान-साम्राज्य के नाममात्र के शासक इब्राहिम लोदी के विरुद्ध बढ़ा तथा 21 अप्रैल, 1526 ई. को पानीपत के ऐतिहासिक मैदान में उससे मुठभेड़ हुई। उसके पास तोपों के रखने का एक विशाल यंत्र तथा बारह हजार मनुष्यों की एक सेना थी, जबकि इब्राहिम के सिपाहियों की संख्या बहुत अधिक थी, जिसमें बाबर की गणना के अनुसार एक लाख मनुष्य थे। पर बाबर में चरित्रबल एवं एक रण-कुशल सेनापति का अनुभव था। इस प्रकार उच्चतर युद्ध-कौशल एवं सेनापतित्व तथा तोपों के प्रयोग के कारण बाबर की लोदी सुल्तान पर निर्णयात्मक जीत हुई। इस लड़ाई में बाबर ने तुलगमा युद्ध प्रणाली को तोपखान से जोड़ दिया। कुछ इतिहासकारों ने इस युद्ध पद्धति को रूमि पद्धति भी कहा है।बाबर एशिया के इतिहास में एक अत्यन्त रोमांचकारी तथा रोचक व्यक्तित्व है। यह अदम्य साहस तथा विलक्षण सैनिक पराक्रम का मनुष्य था। वह अनावश्यक जन-संहारों तथा उद्देश्यहीन विध्वंस में प्रफुल्लित होने वाला निर्दय विजेता नहीं था। वह स्नेही पिता, दयालु स्वामी, उदार मित्र, ईश्वर में दृढ़ आस्था रखने वाला, प्रकृति एवं सच्चाई का उत्कट प्रेमी तथा संगीत एवं अन्य कलाओं में दक्ष था। शायद साहसिकता की अविश्रांत प्रवृत्ति एवं स्वभाव की दयालुता उसे अपने पिता से मिली थी, जिसे उसने अपने जीवन के अत्यन्त कष्टपूर्ण समय तक में नहीं खोया तथा साहित्यिक रुचि उसे अपने नाना से मिली थी। उसने मंगोल की शक्ति तथा तुर्क के साहस एवं योग्यता का प्रयोग असावधान हिन्दू को पराधीन बनाने में किया। यद्यपि वह स्वयं साम्राज्य-निर्माता नहीं, बल्कि जीविका ढूंढने वाला सैनिक था, तथापि उसने भव्य इमारत का पहला पत्थर डाला, जिसको उसके पौत्र अकबर ने पूरा किया।…….इतिहास में उसका स्थायी स्थान उसकी भारतीय विजयों के कारण है, जिन्होंने सम्राटों के एक वंश की स्थापना का रास्ता खोल दिया, परन्तु जीवन-कथा तथा साहित्य में उसका स्थान उसके अपने प्रारम्भिक दिनों के साहसपूर्ण कार्यों तथा अनवरत चेष्टाओं के कारण तथा उसकी आनन्ददायक आत्मकथा के कारण जिसमें उसने इनका वर्णन किया है, निश्चित होता है। जीविका ढूंढने वाला एक सैनिक होते हुए भी बाबर साहित्यिक सुरुचि एवं दुस्तोषणीय आलोचनात्मक दृष्टि का व्यक्ति था। संस्कृति की भाषा तथा मध्य एशिया की लैटिन फारसी में, जो भारत की भी लैटिन (भाषा) है, वह निपुण कवि था। स्वदेशीय भाषा तुर्कों में
समान रूप से गद्य एवं पद्य की शुद्ध और स्वाभाविक शैली पर उसका असाधारण अधिकार था। उसकी आत्मकथा का मानव-साहित्य के इतिहास में उच्च स्थान है, जो उचित ही है। 1590 ई. में अकबर के समय में अब्दुर्रहीम खानखाना ने उसका फारसी में अनुवाद किया। लीडेन एवं एर्सकीन ने 1826 ई. में इसका अंग्रेजी में अनुवाद किया। 1871 ई. में फ्रेंच भाषा में इसका अनुवाद निकला। एनिटी सुसन्ना बेवेरिज ने इसका एक संशोधित अंग्रेजी संस्करण प्रकाशित किया है। उसके सुन्दर तुर्की गीतों का भी एक छोटा संग्रह है।
बाबर (1526-1530 ई.)
- दिल्ली सल्तनत के अंतिम शासक इब्राहिम लोदी को 1526 ई. में पराजित कर बाबर ने मुग़ल साम्राज्य की स्थापना की।
- बाबर फरगना का शासक था। बाबर को भारत आने का निमंत्रण पंजाब के सूबेदार दौलत खां लोदी तथा इब्राहिम लोदी के चाचा आलम खां ने लोदी ने दिया था।
- बाबर ने पानीपत के प्रथम युद्ध से पूर्व भारत पर चार बार आक्रमण किया था। पानीपत विजय उसका पांचवा आक्रमण था।
- बाबर ने जिस समय भारत पर आक्रमण किया उस समय भारत में बंगाल, मालवा, गुजरात, सिंध, कश्मीर, मेंवाड़, खानदेश, विजयनगर और बहमनी आदि स्वतंत्र राज्य थे।
- बाबर का पानीपत के बाद दूसरा महत्त्वपूर्ण युद्ध राणा सांग के विरुद्ध खानवा का युद्ध (1527 ई.) था, जिसमें विजय के पश्चात बाबर ने गाजी की उपाधि धारण की।
- बाबर ने 1528 में मेंदिनी राय को परास्त कर चंदेरी पर अधिकार कर लिया।
- बाबर ने 1529 में घाघरा के युद्ध में बिहार और बंगाल की संयुक्त अफगान सेना को पराजित किया, जिसका नेतृत्व महमूद लोदी ने किया था।
- बाबर ने पानीपत के प्रथम युद्ध में ‘तुगलकनामा युद्ध पद्धति’ का प्रयोग किया था, जिसे उसने उज्बेकों से ग्रहण किया था।
- बाबर ने अपनी आत्मकथा ‘बाबरनामा’ में विजयनगर के तत्कालीन शासक कृष्णदेव राय को समकालीन भारत का सबसे शक्तिशाली राजा कहा है।
- बाबर ने दिल्ली सल्तनत के शासकों की परम्परा ‘सुल्तान’ को तोड़कर अपने को बादशाह घोषित किया।
- अपनी उदारता के कारण बाबर को ‘कलन्दर’ कहा जाता था। उसने पानीपत विजय के पश्चात काबुल के प्रत्येक निवासी को एक-एक चांदी का सिक्का दान में दिया था।
- बाबर ने आगरा में बाग लगवाया, जिसे ‘नूर-ए-अफगान’ के नाम से जाना जाता था, किन्तु अब इसे ‘आराम बाग’ कहा जाता है।
- बाबर ने ‘गज-ए-बाबरी’ नामक नाप की एक इकाई का प्रचलन किया।
- बाबर ने ‘मुबइयान’ नामक एक पद्य शैली का विकास किया। ‘रियाल-ए-उसज’ की रचना बाबर ने ही की थी।
- 26 दिसंबर, 1530 को आगरा में बाबर की मृत्यु हो गयी, उसे नूर-ए-अफगान बाग में दफनाया गया।
हुमायूं: 1530-1540 ई. एवं 1555-1556 ई
बाबर की मृत्यु के तीन दिनों के पश्चात् हुमायूँ तेईस वर्षों की आयु में हिन्दुस्तान के राजसिंहासन पर बैठा। उसके सिंहासन पर बैठने के समय परिस्थिति वास्तव में बहुत आसान नहीं थी। उसे सब ओर से अनेक विरोधी शक्तियाँ घेरे हुए थीं, जो छिपे रूप में थीं, अत: अधिक खतरनाक थीं। राजपरिवार में लेशमात्र एकता नहीं थी तथा उसके चचेरे भाई मुहम्मद जहाँ एवं मुहम्मद सुल्तान गद्दी के हकदार थे। साथ-साथ मुसलमानों में राजसिंहासन सबसे बड़े लड़के के मिलने के नियम का कड़ाई से पालन नहीं होने से, उसके तीनों भाईयों-कामरान, हिन्दाल तथा अस्करी की भी लोलुप दृष्टि राजसिंहासन पर थी। दरबार भी ऐसे सरदारों से भरा था, जो गद्दी प्राप्त करने के लिए योजनाएँ रचते रहते थे। उसके पास जी सेना थी वह एक म्मिलिजुली संस्था थी, जिसमें विभिन्न जातियों के साहसिक थे, जिनके हित आपस में एक-दूसरे से टकराते थे। इस प्रकार वह अपने सम्बन्धियों, अपने दरबार अथवा अपनी सेना के समर्थन का निश्चित होकर भरोसा नहीं कर सकता था। फिर हुमायूँ को बाबर की देन अनिश्चित किस्म की थी। राजपूत केवल कुछ काल के लिए दबा दिये गये थे। यद्यपि अफगान पराजित कर दिये गये थे पर वे सदा के लिए कुचले नहीं गये थे। अनेक तितर-बितर अफगान सरदारों को, जो सर्वदा विद्रोह के लिए तैयार रहते थे, केवल एक प्रबल एवं योग्य नेता की जरूरत थी, जो उनमें जीवन डाल दे और यह उन्हें शेरशाह में मिल गया। बहादुर शाह के अधीन गुजरात की बढ़ती हुई शक्ति भी हुमायूँ के लिए एक भयंकर संकट थी।हुमायूँ की पहली गलती यह थी कि सम्भवत: अपने पिता की मृत्युकालीन आज्ञा के अनुसार, उसने पूर्ण नियंत्रण में रखने के बदले अपने भाईयों के प्रति विवेक रहित कोमलता प्रदर्शित की, जो उसके ईर्ष्यालु प्रतिद्वन्द्वी थे। अस्करी को सम्भल की जागीर दी गयी। हिन्दाल को अलवर की जागीर मिली। इन तीनों में सबसे बड़े कामरान का न केवल काबुल एवं कान्धार पर ही अधिकार स्वीकार किया गया, बल्कि लाहौर में हुमायूँ के सेनापति मीर युनूस अली के विरुद्ध सैनिक प्रदर्शन करने के बाद उसे पंजाब तथा टैठ पंजाब के पूर्व का हिसार फीरोजा का जिला भी मिले। इस प्रकार हुमायूँ ने बाबर के साम्राज्य की अखण्डता की जड़ पर आघात किया। और भी, सिंधु नदी के क्षेत्र एवं उसके आगे के भागों को कामरान को दे देने के कारण सेना भतीं करने व सर्वश्रेष्ठ स्थान से हुमायूँ वंचित हो गया, यद्यपि भारत में सद्योजात मुग़ल-राज्य की रक्षा के लिए सेना की शक्ति नितान्त आवश्यक थी। हिसार फिरोजा मिल जाने से पंजाब तथा दिल्ली के बीच के मुख्य मार्ग पर कामरान का अधिकार हो गया।उसके जीवन की अन्य घटनाओं की तरह यहाँ भी उसके चरित्र की दुर्बलता परिलक्षित हुई। विजय की उमंग में वह, उसका भाई अस्करी तथा उसके अधिकतर सैनिक भोज एवं आमोद-प्रमोद में लिप्त हो गये, जिसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि उसके (राज्य के) सारे काम अव्यवस्थित हो गये तथा उसकी अपनी छावनी तक शोरगुल एवं अवज्ञा का रंगमंच बन गयी। गुजरात के सुल्तान ने इससे लाभ उठाकर मुगलों से अपने
खोये हुए प्रदेश फिर ले लिये। हुमायूँ पुन: उसे अधीन करने की सोच भी न सका क्योंकि उसका ध्यान पूर्व की ओर आकृष्ट हो गया, जहाँ अफगान अत्यन्त शक्तिशाली बन बैठे थे। ज्यों ही वह लौटने के लिए मुड़ा कि मालवा भी उसके हाथों से निकल गया। इस प्रकार एक वर्ष में दो बड़े प्रान्तों की शीघ्रता से विजय हुई; अगले वर्ष वे तुरंत खो गये। हुमायूँ के जीवन के अगले चरण में अफगान पुनर्जागरण के नेता शेर के साथ उसके दुर्भाग्यपूर्ण संघर्ष हुए।
हुमायूं (1530 ई.-1556 ई.)
- बाबर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र हुमायूं मुग़ल वंश के शासन पर बैठा।
- बाबर के चरों पुत्र-कामरान, अस्करी, हिंदाल और हुमायूं में हुमायूं सबसे बड़ा था।
- हुमायूं ने अपने साम्राज्य का विभाजन भाइयों में किया था। उसने कामरान को काबुल एवं कंधार, अस्करी को संभल तथा हिंदाल को अलवर प्रदान किया था।
- हुमायूं के सबसे बड़े शत्रु अफगान थे, क्योंकि वे बाबर के समय से ही मुगलों को भारत से बाहर खदेड़ने के लिए प्रयत्नशील थे।
- हुमायूं का सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी अफगान नेता शेर खां था, जिसे शेरशाह शूरी भी कहा जाता है।
- हुमायूं का अफगानों से पहला मुकाबला 1532 ई. में ‘दोहरिया’ नामक स्थान पर हुआ। इसमें अफगानों का नेतृत्व महमूद लोदी ने किया था। इस संघर्ष में हुमायूं सफल रहा।
- 1532 में हुमायूं ने शेर खां के चुनार किले पर घेरा डाला। इस अभियान में शेर खां ने हुमायूं की अधीनता स्वीकार कर अपने पुत्र क़ुतुब खां के साथ एक अफगान टुकड़ी मुगलों की सेवा में भेज दी।
- 1532 ई. में हुमायूं ने दिल्ली में ‘दीन पनाह’ नामक नगर की स्थापना की।
- 1535 ई. में ही उसने बहादुर शाह को हराकर गुजरात और मालवा पर विजय प्राप्त की।
- शेर खां की बढती शक्ति को दबाने के लिए हुमायूं ने 1538 ई. में चुनारगढ़ के किले पर दूसरा घेरा डालकर उसे अपने अधीन कर लिया।
- 1538 ई. में हुमायूं ने बंगाल को जीतकर मुग़ल शासक के अधीन कर लिया। बंगाल विजय से लौटने समय 26 जून, 1539 को चौसा के युद्ध में शेर खां ने हुमायूं को बुरी तरह पराजित किया।
- शेर खां ने 17 मई, 1540 को बिलग्राम के युद्ध में पुनः हुमायूं को पराजित कर दिल्ली पर बैठा। हुमायूं को मजबूर होकर भारत से बाहर भागना पड़ा।
- 1544 में हुमायूं ईरान के शाह तहमस्प के यहाँ शरण लेकर पुनः युद्ध की तैयारी में लग गया।
- 1545 ई. में हुमायूं ने कामरान से काबुल और गंधार छीन लिया।
- 15 मई, 1555 को मच्छीवाड़ा तथा 22 जून, 1555 को सरहिंद के युद्ध में सिकंदर शाह सूरी को पराजित कर हुमायूं ने दिल्ली पर पुनः अधिकार लिया।
- 23 जुलाई, 1555 को हुमायूं एक बार फिर दिल्ली के सिंहासन पर आसीन हुआ, परन्तु अगले ही वर्ष 27 जनवरी, 1556 को पुस्तकालय की सीढियों से गिर जाने से उसकी मृत्यु हो गयी।
- लेनपूल ने हुमायूं पर टिप्पणी करते हुए कहा, “हुमायूं जीवन भर लड़खड़ाता रहा और लड़खड़ाते हुए उसने अपनी जान दे दी।“
- बैरम खां हुमायूं का योग्य एवं वफादार सेनापति था, जिसने निर्वासन तथा पुनः राजसिंहासन प्राप्त करने में हुमायूं की मदद की।
शेरशाह:1540-1545 ई.
पानीपत एवं घाघरा में बाबर की विजयों के परिणामस्वरूप अफगान नायकों का पूर्ण उन्मूलन नहीं हुआ। नव-स्थापित विदेशी शासन के विरुद्ध वे असन्तोष से खौल रहे थे। उन्हें केवल एक पराक्रमी व्यक्ति के पथप्रदर्शन की आवश्यकता थी, जो उनके छिटपुट प्रयत्नों को इस शासन के विरुद्ध एक संगठित राष्ट्रीय प्रतिरोध के रूप में एकीभूत कर दे। यह उन्हें शेर खाँ सूर में मिल गया, जिसने अफगान शक्ति का पुनरुत्थान किया तथा नवस्थापित मुग़ल शक्ति को निकालकर भारत में एक गौरवपूर्ण शासन स्थापित किया, यद्यपि यह बहुत कम समय के लिए टिक सका।
हिन्दुस्तानी मुस्लिम पुनर्जागरण के नायक शेर खाँ सूर का जीवन बाबर के जीवन की तरह आकर्षक है तथा महान् मुग़ल अकबर के जीवन से कम उपदेशपूर्ण नहीं है। आरम्भ में उसका नाम फरीद था। उसके जीवन का प्रारंभ साधारण ढंग से हुआ। इतिहास के बहुत-से अन्य महापुरुषों की तरह उसे अनेक परीक्षाओं एवं भाग्य के परिवर्तनों से होकर गुजरना पड़ा; तब कहीं जाकर वह अपनी व्यक्तिगत योग्यता के बल से प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ। उसका दादा इब्राहिम, जो सूर खानदान का एक अफगान था, पेशावर के निकट रहता था।शेरशाह एक साहसी योद्धा एवं सफल विजेता नहीं, बल्कि एक ऐसी देदीप्यमान शासन-पद्धति का निर्माता था, जिसकी प्रशंसा उसके शत्रु मुगलों के स्तुति-गायकों ने भी की है। वास्तव में शासक के रूप में उसके गुण रणक्षेत्र में उसकी विजयों की अपेक्षा अधिक विलक्षण थे। पाँच वर्षों के उसके छोटे राज्यकाल में शासन की प्रत्येक सम्भव शाखा में विवेकपूर्ण एवं हितकर परिवर्तन लाये गये। इनमें से कुछ तो भारत की पुरानी हिन्दू एवं मुसलमानी शासन-प्रणालियों की परम्परागत विशेषताओं के पुनर्जीवन एवं सुधार के रूप में थे। अन्य परिवर्तन पूर्णत: मौलिक थे जो, वास्तव में प्राचीन एवं आधुनिक भारत के बीच एक कड़ी हैं। मिस्टर कीन ने स्वीकार किया है कि किसी सरकार ने, अंग्रेजी सरकार तक ने-इतनी बुद्धिमत्ता नहीं दिखलायी है, जितनी कि इस पठान ने। यद्यपि शेरशाह की सरकार अत्यन्त केद्रीभूत प्रणाली थी, जिसके शिखर पर नौकरशाही थी
तथा वास्तविक शक्ति सुल्तान के हाथों में केद्रित थी, पर वह बेलगाम एवं एकतंत्री शासक नहीं था, जिसे लोगों के अधिकारों एवं हितों की परवाह नहीं थी। एक प्रज्ञापूर्ण निरंकुश शासक की भावना से उसने एक ऐसा साम्राज्य स्थापित करने का प्रयत्न किया, जो जनता की इच्छा पर विस्तृत रूप में आधारित हो। शेरशाह के बाद उसका पुत्र जमाल खाँ (1545-53) हुआ जो इस्लाम शाह के नाम से शासक बना। इस्लाम शाह अपनी राजधानी आगरा से ग्वालियर ले गया। साम्राज्य का खजाना भी चुनार से ग्वालियर ले आया। साम्राज्य के आर्थिक एवं राजनैतिक एकीकरण में उसने सम्पूर्ण इक्ता भूमि को खालसा भूमि में तब्दील कर दिया और महत्त्वपूर्ण अधिकारियों का वेतन खजाने से देने लगा। इसका एक महत्त्वपूर्ण कदम था-इस्लामी कानूनों का संहिताकरण। इससे उलेमा वर्ग पर शासन की निर्भरता कम हो गई।
शेरशाह सूरी (1540 ई. -1545 ई.)
- बिलग्राम के युद्ध में हुमायूं को पराजित कर 1540 ई. में 67 वर्ष की आयु में दिल्ली की गद्दी पर बैठा। इसने मुग़ल साम्राज्य की नींव उखाड़ कर भारत में अफगानों का शासन स्थापित किया।
- इसके बचपन का नाम फरीद था। शेरशाह का पिता हसन खां जौनपुर का एक छोटा जागीरदार था।
- दक्षिण बिहार के सूबेदार बहार खां लोहानी ने शेर मारने के उपलक्ष्य में फरीद खां की उपाधि प्रदान थी।
- बहार खां लोहानी की मृत्यु के बाद शेर खां ने उसकी विधवा ‘दूदू बेगम’ से विवाह कर लिया।
- 1539 ई. में बंगाल के शासक नुसरतशाह को पराजित करने के बाद शेर खां ने ‘हजरत-ए-आला’ की उपाधि धारण की।
- 1539 ई. में चौसा के युद्ध में हुमायूं को पराजित करने के बाद शेर खां ने ‘शेरशाह’ की उपाधि धारण की।
- 1540 में दिल्ली की गद्दी पर बैठने के बाद शेरशाह ने सूरवंश अथवा द्वितीय अफगान साम्राज्य की स्थापना की।
- शेरशाह ने अपनी उत्तरी पश्चिमी सीमा की सुरक्षा के लिए ‘रोहतासगढ़’ नामक एक सुदृढ़ किला बनवाया।
- 1542 और 1543 ई. में शेरशाह ने मालवा और रायसीन पे आक्रमण करके अपने अधीन कर लिया।
- 1544 ई. में शेरशाह ने मारवाड़ के शासक मालदेव पर आक्रमण किया। बड़ी मुश्किल से सफलता मिली। इस युद्ध में राजपूत सरदार ‘गयता’ और ‘कुप्पा’ ने अफगान सेना के छक्के छुड़ा दिए।
- 1545 ई में शेरशाह ने कालिंजर के मजबूर किले का घेरा डाला, जो उस समय कीरत सिंह के अधिकार में था, परन्तु 22 मई 1545 को बारूद के ढेर में विस्फोट के कारण उसकी मृत्यु हो गयी।
- भारतीय इतिहास में शेरशाह अपने कुशल शासन प्रबंध के लिए जाना जाता है।
- शेरशाह ने भूमि राजस्व में महत्वपूर्ण परिवर्तन किया, जिससे प्रभावित होकर अकबर ने अपने शासन को प्रबंध का अंग बनाया।
- प्रसिद्द ग्रैंड ट्रंक रोड (पेशावर से कलकत्ता) की मरम्मत, करवाकर व्यापार और आवागमन को सुगम बनाया।
- शेरशाह का मकबरा बिहार के सासाराम में स्थित है, जो मध्यकालीन कला का एक उत्कृष्ट नमूना है।
- शेरशाह की मृत्यु के बाद भी सूर वंश का शासन 1555 ई. में हुमायूं द्वारा पुनः दिल्ली की गद्दी प्राप्त करने तक कायम रहा।
अकबर: 1556-1605 ई.
अकबर को, जो उस समय अपने अभिभावक एवं अपने पिता के पुराने साथी बैरम खाँ के साथ पंजाब में था, तेरह वर्ष की आयु में 14 फरवरी, 1556 ई. को विधिवत् हुमायूँ का उत्तराधिकारी घोषित किया गया। परन्तु अभी भी हिन्दुस्तान पर मुगलों की प्रभुता अनिश्चित थी। शेरशाह के उत्तराधिकारियों के मूर्खतापूर्ण कारनामों और झगड़ों के कारण देश उसके सुधारों के लाभों से वंचित हो गया था। उसी समय उसे एक भयंकर दुर्भिक्ष का शिकार बनना पड़ा। साथ-साथ भारत के विभिन्न भागों में प्रत्येक स्वतंत्र राज्य शक्ति के लिए स्पर्धा कर रहा था। उत्तर-पश्चिम में अकबर का सौतेला भाई मिर्जा मुहम्मद हकीम काबुल पर लगभग स्वतंत्र रूप से शासन कर रहा था। उत्तर में कश्मीर एक स्थानीय मुसलमान वंश के अधीन था। हिमालय के राज्य भी स्वतंत्र थे। सिंध तथा मुल्तान शेरशाह की मृत्यु के बाद दिल्ली के अधिकार से मुक्त हो गये थे। उड़ीसा, मालवा एवं गुजरात तथा गोंडवाना (आधुनिक मध्यप्रदेश में) के स्थानीय नायक किसी भी प्रभुसत्ता के नियंत्रण से मुक्त थे। विन्ध्य पर्वत के दक्षिण विस्तृत विजय नगर-साम्राज्य तथा खानदेश, बरार, बीदर, अहमदनगर एवं गोलकुंडा की मुस्लिम सल्तनतें थीं, जिन्हें उत्तरीय राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं थी। पुर्तगीजों ने गोआ एवं दिव पर अधिकार कर पश्चिमी तट पर अपना प्रभाव स्थापित कर लिया था। अपनी मृत्यु के पहले हुमायूँ हिन्दुस्तान में अपने राज्य का एक बहुत छोटा हिस्सा फिर से लौटा सका था। अभी भी शेरशाह के राज्य के अधिकांश भाग पर सूरों का कब्जा था। जैसा अहमद यादगार हमें बताता है, आगरे से मालवा तक के देश तथा जौनपुर की सीमाओं पर आदिलशाह की राजसत्ता थी; दिल्ली से छोटे रोहतास तक, जो काबुल के रास्ते पर था, शाह सिकन्दर के हाथों में था; तथा पहाड़ियों के किनारे से गुजरात की सीमा तक इब्राहिम खौं के अधीन था।
पानीपत की दूसरी लड़ाई (1556 ई.) से भारत में मुग़ल साम्राज्य का वास्तविक प्रारम्भ हुआ तथा इसने उसके विस्तार का मार्ग प्रशस्त कर दिया। 1558 ई. तथा 1560 ई. के बीच ग्वालियर, अजमेर एवं जौनपुर इसमें मिला लिये गये। पर अपने अभिभावक एवं संरक्षक बैरम खाँ की रक्षा के जाल में बँधे रहने के कारण अकबर स्वेच्छापूर्वक काम करने की स्वतंत्र न था। संरक्षक ने मुगलों की बहुमूल्य सेवा की थी, परन्तु उच्छृखल तरीके से कार्य करने के कारण उसने अब तक बहुतों को अपना शत्रु बना लिया था। 1560 ई. में बादशाह ने अपने हाथों में शासन-सूत्र ले लेने का अपना निर्णय बैरम खाँ के सामने स्पष्ट रूप से व्यक्त किया तथा उसे बर्खास्त कर दिया। संरक्षक प्रत्यक्ष रूप से आत्मसमर्पण दिखलाते हुए अपने स्वामी के निर्णय के सामने झुक गया तथा मक्का चला जाना स्वीकार कर लिया। खनवा के युद्ध (1527 ई.) के परिणामस्वरूप उत्तर में राजपूतों के प्रभाव का पूर्ण ह्रास नहीं हुआ। भारत के इतिहास में राजस्थान अभी भी एक प्रबल तत्त्व था। अकबर एक राजनीतिज्ञ की सच्ची सूझ तथा उदार दृष्टिकोण से सम्पन्न था। उसका खानदान विदेशी था। अफगान इसी भूमि के लाल थे। ऐसी परिस्थिति में उसने भारत में अफगानों को हटाकर अपने खानदान के लिए साम्राज्य निर्माण के अपने कार्य में राजपूत मैत्री के मूल्य को अनुभव किया। इस प्रकार उसने के मिलाने का तथा अपने लगभग सभी कायों में उनका सक्रिय सहयोग प्राप्त करने और स्थिर रखने का यथासम्भव प्रयत्न किया। अपनी विवेकपूर्ण एवं उदार नीति से उसने उनमें से अधिकांश के दिल इस हद तक जीत लिये कि उन्होंने उसके साम्राज्य की बहुमूल्य सेवायें कीं तथा इसके लिए अपना रक्त तक बहाया। वास्तव में अकबर का साम्राज्य मुग़ल पराक्रम एवं कूटनीति तथा राजपूत वीरता एवं सेवा के एकीकरण का परिणाम था।
अकबर (1556 ई. – 1605 ई.)
- 1556 ई. में हुमायूं की मृत्यु के बाद उसके पुत्र अकबर का कलानौर नामक स्थान पर 14 फरवरी, 1556 को मात्र 13 वर्ष की आयु में राज्याभिषेक हुआ।
- अकबर का जन्म 15 अक्टूबर, 1542 को अमरकोट के राजा वीरमाल के प्रसिद्द महल में हुआ था।
- अकबर ने बचपन से ही गजनी और लाहौर के सूबेदार के रूप में कार्य किया था।
- भारत का शासक बनने के बाद 1556 से 1560 तक अकबर बैरम खां के संरक्षण में रहा।
- अकबर ने बैरम खां को अपना वजीर नियुक्त कर खाना-ए-खाना की उपाधि प्रदान की थी।
- 5 नवम्बर, 1556 को पानीपत के द्वितीय युद्ध में अकबर की सेना का मुकाबला अफगान शासक मुहम्मद आदिल शाह के योग्य सेनापति हैमू की सेना से हुआ, जिसमें हैमू की हार एवं मृत्यु हो गयी।
- 1560 से 1562 ई. तक दो वर्षों तक अकबर अपनी धय मां महम अनगा, उसके पुत्र आदम खां तथा उसके सम्बन्धियों के प्रभाव में रहा। इन दो वर्षों के शासनकाल को पेटीकोट सर्कार की संज्ञा दी गयी है।
- अकबर ने भारत में एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की, जो इस प्रकार है:
जहाँगीर: 1605-1627 ई.
1605 अकबर की मृत्यु के एक सप्ताह के पश्चात् छत्तीस वर्ष की आयु में सलीम आगरे में राजसिंहासन पर बैठा तथा नूरुद्दीन मुहम्मद जहाँगीर बादशाह गाजी की उपाधि धारण की। विषय-सुख में आसक्त होने पर भी उसमें सैनिक महत्त्वाकांक्षा का एकदम अभाव नहीं था तथा वह प्रारम्भिक तैमूरियों की राजधानी ट्रांस-औक्सियाना जीतने का स्वप्न देखा करता था। उसने सैनिकों के वेतन में 20 प्रतिशत की वृद्धि की। सिंहासन पर बैठने के शीघ्र बाद, उसने अनेक कार्यों द्वारा, असद के शब्दों में, सब लोगों के हृदयों पर विजय पाने का प्रयत्न किया। यमुना के किनारे पर खड़े किये गये पत्थर के एक खम्भे के बीच न्याय की प्रसिद्ध जंजीर लगवायी तथा बारह घोषणाएँ प्रकाशित करवायीं जिनके उसके राज्य में आचरण के नियम माने जाने की आज्ञा हुई-
- करों (जकात) का निषेध।
- आम रास्ते पर डकैती तथा चोरी के सम्बन्ध में नियम।
- मृत व्यक्तियों की सम्पत्ति पर निर्विघ्न उत्तराधिकार।
- मदिरा तथा सभी प्रकार के मादक द्रव्यों की बिक्री का निषेध।
- अपराधियों के घरों की कुर्की तथा उनके नाकों और कानों के काटे जाने का निषेध।
- सम्पत्ति (गसबी) पर बलपूर्वक अधिकार करने का निषेध।
- अस्पतालों का निर्माण तथा रोगियों की देखभाल के लिए वैद्यों की नियुक्ति।
- विशेष दिनों को पशुओं के वध का निषेध।
- रविवार के प्रति आदर।
- नसबों तथा जागीरों का सामान्य प्रमाणीकरण।
- ऐमा भूमि का प्रमाणीकरण।
- दुर्गों तथा प्रत्येक प्रकार के बंदीगृहों के सभी बंदियों को क्षमाप्रदान।
जहाँगीर को अपने राज्य-काल के प्रारम्भिक भाग में कुछ महत्त्वपूर्ण सैनिक सफलताएँ मिलीं। पहले बंगाल की ओर ध्यान दिया गया, जिसके राज्य में मिलाये जाने पर भी वहाँ अफ़गान विरोध का अन्त नहीं हुआ था। बंगाल में सूबेदारों के बहुधा परिवर्तन से प्रोत्साहन प्राप्त कर स्थानीय अफ़गानों ने उसमान खाँ के अधीन विद्रोह कर दिया। इस समय सूबेदार इस्लाम खाँ था। वह योग्य व्यक्ति था। उसने विद्रोह का दमन करने के लिए तुरंत कार्रवाई की। शाही दल ने उस्मान खाँ एवं मूसा खाँ को 12 मार्च, 1612 ई. को परास्त कर दिया। ये दोनों बारहभुईयाँ के नाम से भी जाने जाते थे। उनके नेता उसमान खाँ के सिर में गम्भीर घाव लगने के फलस्वरूप मृत्यु हो गयी। अफ़गानों की, जो अब तक मुगलों के विरुद्ध थे, राजनैतिक शक्ति का अन्त हो गया तथा जहाँगीर की मेलवाली नीति से वे अब से साम्राज्य के मित्र बन गये। जहाँगीर प्रथम मुग़ल शासक था जिसने अफगानों को मनसबदारी पद्धति में शामिल किया।
दक्कन में जहाँगीर ने अपने पिता की नीति का अनुसरण किया तथा उसके सम्पूर्ण राज्य काल में अहमदनगर राज्य के विरुद्ध एक अनिवार्य युद्ध किसी तरह चलता रहा। अंशत: दक्कन के इस राज्य की शक्ति के कारण तथा अशन शाही फौज द्वारा कमजोर तरीके से युद्ध संचालन के कारण, अहमदनगर की सेना पर मुग़ल सेना की पूर्ण सफलता सम्भव नहीं थी। उस समय अहमदनगर राज्य पर इसका अबिसीनियन मंत्री मलिक अम्बर योग्यतापूर्वक शासन कर रहा था। 1616 ई. में मुगलों को केवल आंशिक सफलता मिली, जबकि शाहजादा खुर्रम ने अहमदनगर तथा कुछ अन्य गढ़ों पर अधिकार कर लिया। इस विजय के लिए खुर्रम को उसके पिता ने शाहजहाँ (संसार का राजा) की उपाधि देकर पुरस्कृत किया। उसे अनेक उपहार मिले। उसे ऊँचा उठाकर तीस हजार जात और बीस हज़ार सवार का पद दिया गया। पर अहमदनगर पर मुगलों की विजय वास्तविक से अधिक दिखावा थी। दक्कन को वे पूरा-पूरा जीत नहीं सके।
दक्कन में जहाँगीर ने अपने पिता की नीति का अनुसरण किया तथा उसके सम्पूर्ण राज्य काल में अहमदनगर राज्य के विरुद्ध एक अनिवार्य युद्ध किसी तरह चलता रहा। अंशत: दक्कन के इस राज्य की शक्ति के कारण तथा अशन शाही फौज द्वारा कमजोर तरीके से युद्ध संचालन के कारण, अहमदनगर की सेना पर मुग़ल सेना की पूर्ण सफलता सम्भव नहीं थी। उस समय अहमदनगर राज्य पर इसका अबिसीनियन मंत्री मलिक अम्बर योग्यतापूर्वक शासन कर रहा था। 1616 ई. में मुगलों को केवल आंशिक सफलता मिली, जबकि शाहजादा खुर्रम ने अहमदनगर तथा कुछ अन्य गढ़ों पर अधिकार कर लिया। इस विजय के लिए खुर्रम को उसके पिता ने शाहजहाँ (संसार का राजा) की उपाधि देकर पुरस्कृत किया। उसे अनेक उपहार मिले। उसे ऊँचा उठाकर तीस हजार जात और बीस हज़ार सवार का पद दिया गया। पर अहमदनगर पर मुगलों की विजय वास्तविक से अधिक दिखावा थी। दक्कन को वे पूरा-पूरा जीत नहीं सके।
शाहजहाँ (1627 ई. 1658 ई.)
- शाहजहाँ (खुर्रम) का जन्म 1592 मेँ जहाँगीर की पत्नी जगत गोसाईं से हुआ।
- जहाँगीर की मृत्यु के समय शाह जहाँ दक्कन में था। जहाँगीर की मृत्यु के बाद नूरजहाँ ने लाहौर मेँ अपने दामाद शहरयार को सम्राट घोषित कर दिया। जबकि आसफ़ खां ने शाहजहाँ के दक्कन से आगरा वापस आने तक अंतरिम व्यवस्था के रुप मेँ खुसरो के पुत्र द्वार बक्श को राजगद्दी पर आसीन किया।
- शाहजहाँ ने अपने सभी भाइयो एवम सिंहासन के सभी प्रतिद्वंदियोँ तथा अंत मेँ द्वार बक्श की हत्या कर 24 फरवरी 1628 मेँ आगरा के सिंहासन पर बैठा।
- शाहजहाँ का विवाह 1612 ई. मेँ आसफ की पुत्री और नूरजहाँ की भतीजी ‘अर्जुमंद बानू बेगम’ से हुआ था, जो बाद मेँ इतिहास मेँ मुमताज महल के नाम से विख्यात हुई।
- शाहजहाँ को मुमताज महल 14 संतानेँ हुई लेकिन उनमेँ से चार पुत्र और तीन पुत्रियाँ ही जीवित रहै। चार पुत्रों मेँ दारा शिकोह, औरंगजेब, मुराद बख्श और शुजाथे, जबकि रोशनआरा, गौहन आरा, और जहांआरा पुत्रियाँ थी।
- शाहजहाँ के प्रारंभिक तीन वर्ष बुंदेला नायक जुझार सिंह और खाने जहाँ लोदी नामक अफगान सरदार के विद्रोह को दबाने मेँ निकले।
- शाहजहाँ के शासन काल मेँ सिक्खोँ के छठे गुरु हरगोविंद सिंह से मुगलोँ का संघर्ष हुआ जिसमें सिक्खों की हार हुई।
- शाहजहाँ ने दक्षिण भारत मेँ सर्वप्रथम अहमदनगर पर आक्रमण कर के 1633 में उसे मुग़ल साम्राज्य मेँ मिला लिया।
- फरवरी 1636 में गोलकुंडा के सुल्तान अब्दुल्ला शाह ने शाहजहाँ का आधिपत्य स्वीकार कर लिया।
- मोहम्मद सैय्यद (मीर जुमला), गोलकुंडा के वजीर ने, शाहजहाँ को कोहिनूर हीरा भेंट किया था।
- शाहजहाँ ने 1636 में बीजापुर पर आक्रमण करके उसके शासक मोहम्मद आदिल शाह प्रथम को संधि करने के लिए विवश किया।
- मध्य एशिया पर विजय प्राप्त करने के लिए शाहजहाँ ने 1645 ई. में शाहजादा मुराद एवं 1647 ई. मेँ औरंगजेब को भेजा पर उसको सफलता प्राप्त न हो सकी।
- व्यापार, कला, साहित्य और स्थापत्य के क्षेत्र मेँ चर्मोत्कर्ष के कारण ही इतिहासकारोँ ने शाहजहाँ के शासनकाल को स्वर्ण काल की संख्या दी है।
- शाहजहाँ ने दिल्ली मेँ लाल किला और जामा मस्जिद का निर्माण कराया और आगरा मेँ अपनी पत्नी मुमताज महल की याद मेँ ताजमहल बनवाया जो कला और स्थापत्य का उत्कृष्ट नमूना प्रस्तुत करते हैं।
- शाहजहाँ के शासन काल का वर्णन फ्रेंच यात्री बर्नियर, टेवरनियर तथा इटालियन यात्री मनुची ने किया है।
- शाहजहाँ ने अपने शासन के प्रारंभिक वर्षोँ में इस्लाम का पक्ष लिया किंतु कालांतर मेँ दारा और जहाँआरा के प्रभाव के कारण वह सहिष्णु बन गया था।
- शाहजहाँ ने अहमदाबाद के चिंतामणि मंदिर की मरमत किए जाने की आज्ञा दी तथा खंभात के नागरिकोँ के अनुरोध पर वहाँ गो हत्या बंद करवा दी थी।
- पंडित जगन्नाथ शाहजहाँ के राज कवि थे जिनोने जिंहोने गंगा लहरी और रस गंगाधर की रचना की थी।
- शाहजहाँ के पुत्र दारा ने भगवत गीता और योगवासिष्ठ का फारसी मेँ अनुवाद करवाया था। शाहजहाँ ने दारा को शाहबुलंद इकबाल की उपाधि से विभूषित किया था।
- दारा का सबसे महत्वपूर्ण कार्य वेदो का संकलन है, उसने वेदो को ईश्वरीय कृति माना था। दारा सूफियोँ की कादरी परंपरा से बहुत प्रभावित था।
- सितंबर 1657 ई. में शाहजहाँ के बीमार पड़ते ही उसके पुत्रों के बीच उत्तराधिकार के लिए युद्ध प्रारंभ हो गया।
- शाहजहाँ के अंतिम आठ वर्ष आगरा के किले के शाहबुर्ज मेँ एक बंदी की तरह व्यतीत हुए। शाहजहाँ दारा को बादशाह बनाना चाहता था किन्तु अप्रैल 1658 ई. को धर्मत के युद्ध मेँ औरंगजेब ने दारा को पराजित कर दिया।
- बनारस के पास बहादुरपुर के युद्ध मेँ शाहशुजा, शाही सेना से पराजित हुआ।
- जून 1658 में सामूगढ़ के युद्ध मेँ औरंगजेब और मुराद की सेनाओं का मुकाबला शाही सेना से हुआ, जिसका नेतृत्व दारा कर रहा था। इस युद्ध मेँ दारा पुनः पराजित हुआ।
- सामूगढ़ के युद्ध मेँ दारा की पराजय का मुख्य कारण मुसलमान सरदारोँ का विश्वासघात और औरंगजेब का योग्य सेनापतित्व था।
- सामूगढ़ की विजय के बाद औरंगजेब ने कूटनीतिक से मुराद को बंदी बना लिया और बाद मेँ उसकी हत्या करवा करवा दी।
- औरंगजेब और शुजा के बीच इलाहाबाद खंजवा के निकट जनवरी 1659 मेँ एक युद्ध हुआ जिसमें पराजित होकर शुजा अराकान की और भाग गया।
- जहाँआरा ने दारा शिकोह का, रोशनआरा ने औरंगजेब का और गौहन आरा ने मुराद बख्श का पक्ष लिया था।
- शाहजहाँ की मृत्यु के उपरांत उसके शव को ताज महल मेँ मुमताज महल की कब्र के नजदीक दफनाया गया था।
औरंगजेब(1658-1707 ई.)
- औरंगजेब का जन्म 3 नवंबर 1618 को उज्जैन के निकट दोहन नामक स्थान पर हुआ था।
- उत्तराधिकार के युद्ध मेँ विजय होने के बाद औरंगजेब 21 जुलाई 1658 को मुग़ल साम्राज्य की गद्दी पर आसीन हुआ।
- एक शासक के सारे गुण औरंगजेब में थे, उसे प्रशासन का अनुभव भी था क्योंकि बादशाह बनने से पहले औरंगजेब गुजरात, दक्कन, मुल्तान व सिंधु प्रदेशों का गवर्नर रह चुका था।
- औरंगजेब ने 1661 ई. में मीर जुमला को बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया जिसने कूच बिहार की राजधानी को अहोमो से जीत लिया। 1662 ई. में मीर जुमला ने अहोमो की राजधानी गढ़गाँव पहुंचा जहां बाद मेँ अहोमो ने मुगलो से संधि कर ली और वार्षिक कर देना स्वीकार किया।
- 1633 मेँ मीर जुमला की मृत्यु के बाद औरंगजेब ने शाइस्ता खां को बंगाल का गवर्नर नियुक्त किया। शाइस्ता खां ने 1666 ई. मेँ पुर्तगालियोँ को दंड दिया तथा बंगाल की खाड़ी मेँ स्थित सोन द्वीप पर अधिकार कर लिया। कालांतर मेँ उसने अराकान के राजा से चटगांव जीत लिया।
- औरंगजेब शाहजहाँ के काल मेँ 1636 ई. से 1644 ई. तक दक्षिण के सूबेदार के रुप मेँ रहा और औरंगाबाद मुगलोँ की दक्षिण सूबे की राजधानी थी।
- शासक बनने के बाद औरंगजेब के दक्षिण मेँ लड़े गए युद्धों को दो भागोँ मेँ बाँटा जा सकता है – बीजापुर तथा गोलकुंडा के विरुद्ध युद्ध और मराठोँ के साथ युद्ध।
- ओरंगजेब ने 1665 ई. में राजा जयसिंह को बीजापुर एवं शिवाजी का दमन करने के लिए भेजा। जय सिंह शिवाजी को पराजित कर पुरंदर की संधि (जून, 1665) करने के लिए विवश किया। किंतु जयसिंह को बीजापुर के विरुद्ध सफलता नहीँ मिली।
- पुरंदर की संधि के अनुसार शिवाजी को अपने 23 किले मुगलों को सौंपने पड़े तथा बीजापुर के खिलाफ मुगलों की सहायता करने का वचन देना पड़ा।
- 1676 में मुगल सुबेदार दिलेर खां ने बीजापुर को संधि करने के लिए विवश किया। अंततः 1666 ई. मेँ बीजापुर के सुल्तान सिकंदर आदिल शाह ने औरंगजेब के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया फलस्वरुप बीजापुर को मुग़ल साम्राज्य मेँ मिला लिया गया।
- 1687 ई. मेँ औरंगजेब ने गोलकुंडा पर आक्रमण कर के 8 महीने तक घेरा डाले रखा, इसके बावजूद सफलता नहीँ मिली। अंततः अक्टूबर 1687 मेँ गोलकुंडा को मुग़ल साम्राज्य मेँ मिला लिया गया।
- जयसिंह के बुलाने पर शिवाजी औरंगजेब के दरबार मेँ आया जहाँ उसे कैद कर लिया गया, किंतु वह गुप्त रुप से फरार हो गये।
- शिवाजी की मृत्यु के बाद के बाद उनके पुत्र संभाजी ने मुगलों से संघर्ष जारी रखा किंतु 1689 ई. मेँ उसे पकड़ कर हत्या कर दी गई।
- संभाजी की मृत्यु के बाद सौतेले भाई राजाराम राजाराम ने भी मुगलोँ से संघर्ष जारी रखा, जिसे मराठा इतिहास मेँ ‘स्वतंत्रता संग्राम’ के नाम से जाना जाता है।
- औरंगजेब ने राजपूतोँ के प्रति अकबर, जहांगीर, और शाहजहाँ द्वारा अपनाई गई नीति मेँ परिवर्तन किया।
- औरंगजेब के समय आमेर (जयपुर) के राजा जयसिंह, मेंवाड़ के राजा राज सिंह, और जोधपुर के राजा जसवंत सिंह प्रमुख राजपूत राजा थे।
- मारवाड़ और मुगलोँ के बीच हुए इस तीस वर्षीय युद्ध (1679 – 1709 ई.) का नायक दुर्गादास था, जिसे कर्नल टॉड ने ‘यूलिसिस’ कहा है।
- औरंगजेब ने सिक्खोँ के नवें गुरु तेग बहादुर की हत्या करवा दी।
- औरंगजेब के समय हुए कुछ प्रमुख विद्रोह मेँ अफगान विद्रोह (1667-1672), जाट विद्रोह (1669-1681), सतनामी विद्रोह (1672), बुंदेला विद्रोह (1661-1707), अकबर द्वितीय का विद्रोह (1681), अंग्रेजो का विद्रोह (1686), राजपूत विद्रोह (1679-1709) और सिक्ख विद्रोह (1675-1607 ई.) शामिल थे।
- औरंगजेब एक कट्टर सुन्नी मुसलमान था। उसका प्रमुख लक्ष्य भारत मेँ दार-उल-हर्ष के स्थान पर दार-उल-इस्लाम की स्थापना करना था।
- औरंगजेब ने 1663 ई. मेँ सती प्रथा पर प्रतिबंध लगाया प्रथा हिंदुओं पर तीर्थ यात्रा कर लगाया।
- औरंगजेब ने 1668 ई. मेँ हिंदू त्यौहारोँ और उत्सवों को मनाने जाने पर रोक लगा दी।
- औरंगजेब के आदेश द्वारा 1669 ई. में काशी विश्वनाथ मंदिर, मथुरा का केशवराय मंदिर तथा गुजरात का सोमनाथ मंदिर को तोड़ा गया।
- औरंगजेब ने 1679 ई. मेँ हिंदुओं पर जजिया कर आरोपित किया। दूसरी ओर उसके शासनकाल मेँ हिंदू अधिकारियो की संख्या संपूर्ण इतिहास मेँ सर्वाधिक (एक तिहाई) रही।
- औरंगजेब की मृत्यु 3 मार्च 1707 को हो गई।