तकनीकी विकास
भारत में तुकों के साथ ही तकली का आगमन हुआ। वस्तुतः 17वीं शताब्दी के दौरान कोई आमूल परितर्वन या विकास नहीं हुआ। फिर भी इस काल तक दो महत्वपूर्ण तकनीकी विकास हुए। (1) लाहौर, आगरा और फतेहपुर सीकरी में अकबर के संरक्षण में कालीनों की बुनाई और (2) बड़े पैमाने पर रेशम और रेशम के धागों का उत्पादन।। 1770 के दशक में भारत में इतालवी रेशम सूत्रण की शुरूआत हुई।
सैन्य तकनीकी- 15वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में गुजरात, मालवा तथा दक्खन जैसे कुछ प्रदेशों में आग्नेय अस्त्रों का इस्तेमाल किया गया। परन्तु इसका नियमित उपयोग पुर्तगालियों ने दक्षिण भारत में 1498 ई. से शुरू किया और उत्तर भारत में बाबर ने इसका पहली बार उपयोग किया। ये बन्दूके वस्तुत: तोड़ेदार बंदूके थीं। यूरोप में बन्दूक चलाने के लिए दो विधियों का उपयोग किया जाता था-
- चक्रतकनीकी (व्हीललॉक) और
- चकमकी पत्थर की विधि (फ्लिंटलॉक)। व्हीललॉक का उपयेाग पिस्तौल के लिए होता था।
अबुल फजल लिखता है कि अकबर ने ऐसी यांत्रिकी विकसित की थी जिसकी सहायता से एक घोडा दबाने से एक ही साथ 17 बन्दूकों से गोली दागी जा सकती थी।
जहाज निर्माण तकनीकी- यूरोपवासी जहाजों के निर्माण में लोहे के कील का उपयेाग करते थे। भारतीयों ने इस तकनीकी को शीघ्रता से अपना लिया। 1510 ई. के आस-पास बार्थेमा ने कालिकट में खडे भारतीय जहाजों
में लोहे की कीलों का जम कर उपयोग देखा था। इसी प्रकार 17वीं शताब्दी के दौरान लोहे के लंगरों का उपयेाग किया जाने लगा। जहाज से पानी लिए भारतीय बाल्टी का उपयोग करते थे। हालांकि 17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में यूरोपवासियों द्वारा उपयोग में लाये जाने वाले चेन पम्प का भी प्रयोग भारतीय करने लगे।
धातु शोधन तकनीकी- अबुल फजल के अनुसार, अकबर के आयुधशाला लोहे की तोपों और बन्दूकों के नाल बनाये जाते थे। सम्भवत: इस तकनीकी का आविष्कार किया गया था। भारत में जस्ता सम्बन्धी धातुशोधन की तकनीकी की शुरूआत 12वीं शताब्दी के आस-पास हुई थी। अबुल फजल जस्ता उत्पादन के लिए राजस्थान के जाबर क्षेत्र का वर्णन करता है। राजस्थान के खेत्री में ताँबे की खान थी। टिन का उत्पादन नहीं के बराबर होता था। अत: टिन पश्चिमी एशिया से आयात किया जाता था। भारत में और खासकर आध्र प्रदेश में लगभग 400 ई. से ही असली वूट्ज (लोहा) का उत्पादन होता था।
काँच निर्माण तकनीकी- 16वीं एवं 17वीं शताब्दी के दौरान यूरोपवासी अपने साथ काँच के बने कई तरह के
सामान लाए जैसे काँच का दर्पण। हम भारतीय केवल भारतीय दर्पण अर्थात् धातुओं के दर्पण से परिचित थे। इसके अतिरिक्त वे कांच के चश्में और लेंस भी ले\ ऐसा प्रतीत होता है की 15वीं शताब्दी के दौरान भारतीयों को रेतघड़ी बनाने का भी ज्ञान था। परन्तु मुग़लकालीन चित्रों में यूरोप निर्मित रेतघड़ी को ही दर्शाया =गया है, जिसे यूरोपवासी अपने साथ भारत लेकर आए थे। इसके अतिरिक्त हमें यूरोप में निर्मित पानी पीने के गिलास, आवर्धक या ज्वलन्त ग्लास और अग्रवर्ती ग्लास की भी जानकारी मिलती है।
मुद्रणालय- 1670 ई. के दशक में, सूरत स्थित कम्पनी के मुख्य दलाल भीम जी पारक ने मुद्रण की तकनीकी में गहरी दिलचस्पी दिखाई।
समयमापन पद्धति- 16वीं एवं 17वीं शताब्दी के दौरान भारत के शहरों में समय पता करने के लिए जलघड़ी का प्रयोग किया जाता था। इसे फारसी में तास और पूरी यांत्रिकी को तास घड़ियाल कहा जाता था। अफीफ के तारिखे शाही में दिल्ली सल्तनत काल में जलघड़ी का उल्लेख मिलता है। यूरोपवासी भारत में यांत्रिक घड़ी लेकर आए थे। सर टॉमस रो ने जहाँगीर को एक यांत्रिक घड़ी भेंट में दी थी।
अन्य तकनीकी- मुगलकाल में भवन का नक्शा बनाने की प्रथा चल पड़ी थी। इसे फारसी में खाका कहते थे। व्यापार में माल को ढोने के लिए बैलगाड़ी का उपयोग आमतौर पर होता था। सर टॉमस रॉ ने जहाँगीर को चार घोड़ों से खींची जाने वाली अंग्रेजी बग्गी उपहार में दी थी। जहाँगीर के समय, नूरजहाँ की माँ ने गुलाब जल से बने इत्र का आविष्कार किया था। अबुल फजल के अनुसार, पानी को ठण्डा करने के लिए शोरे का उपयोग होता था। बताया जाता है कि सम्राट् अकबर ने एक बैलगाड़ी विकसित की थी जो यात्रा करने एवं सामान ढोने के साथ-साथ अनाज भी पीसती थी। अनाज पीसने के लिए एक पवन चक्की अहमदाबाद में लगायी गयी थी।