इन प्रवृत्तियों के परिणामस्वरूप कुछ सूफियों ने, जैसे शेख नसिरूद्दीन महमूद चिरागे दिल्ली (मृ. 1356 ई.) ने कट्टरपंथी इस्लाम और सूफी परम्परा के बीच सामंजस्य स्थापित करने का प्रयत्न किया, जैसा कि पहले अल गजाली ने किया था और बाद में लक्शबन्दी सम्प्रदाय अन्य महासन्त दिल्ली के वहीदुल्ला (1707-62 ई.) ने किया था। बौद्धिक स्तर पर शेख अलाउद्दीन सिम्नानी (मृ. 1336 ई.) ने इब्न अल अराबी के सर्वात्यवादी सिद्धांत वहादत-उल-वुजूद का खंडन किया और उसके स्थान पर वहादत-उश-शुहूद (Unity of Witnessing) का प्रतिपादन किया, जिसके अनुसार सूफी रहस्यवाद की उच्च स्तरीय अनुभूति से यह प्रकट होता है कि ईश्वर और सृष्टि के बीच अंतर होता है न कि इनमें समायोजन होता है। यह विचार शरिया के विचार की पुष्टि करता है।
मुगलकाल में पूर्व की शताब्दियों की भाँति, जो शरिया की पूर्ण उपेक्षा करने के लिए विख्यात थे उन्हें अकसर मजजूब (The ecstatic ones) कहा जाता था।
कहा जाता है कि बाबर नक्शबंदी नेता ख्वाजा उबैदुल्ला अहरार और उनके आध्यात्मिक उत्तराधिकारियों का भक्त था। भारत में यह सिलसिला ख्वाजा बाकी बिल्लाह (मृ. 1603 ई.) द्वारा शुरू किया गया। उनके प्रमुख शिष्य शेख अहमद सरहिंदी (मृ. 1624 ई.) थे। शेख अहमद सरहिंदी एक ऐसे सूफी थे जो कट्टर मुसलमान होने के साथ वहादत-उल-वुजूद के सिद्धांत, गैर-सूफी मुसलमानों और हिंदुओं के विरुद्ध थे। वह नक्शबंदी सिलसिला के अनुयायी होने के साथ-साथ चिश्ती और कादिरी सिलसिलों में भी आस्था रखते थे।
शरिया को महत्त्व देने के कारण सरहिंदी वहादत-उल-वुजूद के उस सर्वात्यवादी सिद्धांत के विरुद्ध थे जिसका प्रतिपादन इब्न अल अराबी ने किया था। उन्होंने अपने मब्द व माद (Mabd wa Maad) नामक प्रपत्र में अलाउद्दौला सिम्नानी द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत वहादत उश शुदूद का समर्थन किया।
शेख आदम बनूरी को शाहजहाँ ने देश से निष्कासित कर दिया। यद्यपि औरंगजेब 1665 ई. में नक्शबंदी सिलसिले का अनुयायी बना लेकिन वह शेख अहमद के विरोध को समाप्त नहीं कर सका। अत: 1679 में शेख अहमद के पत्रों का औरंगाबाद में प्रचार रोकना पड़ा।
अठारहवीं शताब्दी में नक्शबंदी सिलसिले में एक नई परंपरा तरीकाए मुहम्मदिया विकसित हुई जिसमें पैगबर मुहम्मद के उपदेशों को नई शक्ति देने का दावा किया गया। इस आंदोलन के नेताओं में दिल्ली के ख्वाजा मुहम्मद नासिर अदलीब (मृ. 1759) और उनके पुत्र ख्वाजा मीर दर्द (मृ. 1785) थे। ख्वाजा मुहम्मद नासिर ने एक ग्रंथ की रचना की जिसका नाम नालाए अंदलीब था। इसमें तत्कालीन धार्मिक विवादों के बारे में लिखा गया। ख्वाजा मीर दर्द उर्दू के कवि थे। इसके साथ उन्होंने सूफी मत के बारे में अनेक ग्रंथ लिखे जिनमें इल्म-उल-किताब प्रसिद्ध है।
चिश्ती परंपरा के लोग शरिया को सर्वाधिक महत्त्व देते थे कितु साथ कभी-कभी वुजूदी सिद्धांत और हिन्दू विचारों को भी स्वीकार करते थे। विचारों का यह विरोधाभास शेख अब्दुल कुद्दूस गंगोही (1538) के चरित्र में देखने को मिलता है जो कि चिश्ती सिलसिला की एक शाखा चिश्ती-सबीरी परंपरा के थे।
शेख मोहम्मद गौस की सबसे अधिक विख्यात रचना जवाहिर-ए-खम्सा है जिसमें उन्होंने अपनी आध्यात्मिक खोज को अभिव्यक्त किया। इस रचना में रहस्यवादी और जादुई क्रियाओं का भी उल्लेख है।
उन्होंने हठ येाग की एक पुस्तक अमृत कुंड का नया अनुवाद किया। इसका पहले अरबी भाषा में तेरहवीं शताब्दी में भी बंगाल में अनुवाद किया गया था। उन्होंने इस अनुवाद को बहर-उल-हयात के नाम से लिखा। शिक्षा मुगलकालीन भारत में राज्य के द्वारा स्थापित तथा पोषित आधुनिक शिक्षा-प्रणाली-जैसी कोई चीज नहीं थी। परन्तु एक प्रकार की प्रारम्भिक तथा माध्यमिक शिक्षा विद्यमान् थी। स्वयं शासक तथा बहुत-से अमीर उमरा मस्जिदों, मठों तथा अलग-अलग सन्तों और विद्वानों को भूमि अथवा धन देकर इस प्रकार की शिक्षा को प्रोत्साहन देते थे। इस प्रकार प्रत्येक मस्जिद में एक मकतब लगी होती थी, जहाँ पड़ोस के लड़के तथा लड़कियाँ प्रारम्भिक शिक्षा पाते थे। हिन्दुओं के संस्कृत तथा देशी भाषाओं के स्कूल भी विद्यार्थियों के लाभ के लिए नागरिक और ग्रामीण क्षेत्रों में चालू रहे।
भारत के मुगल बादशाह शिक्षा के पोषक थे। बाबर के एक मंत्री सैय्यद मकबर अली की तवारीख के आधार पर यह कहा जाता है कि उस शासक के समय के जन-निर्माण विभाग (शुहरते-आम) का एक कर्त्तव्य स्कूल तथा कालेज बनाना भी था। हुमायूँ यद्यपि आलसी था तथा उसे अफीम खाने का व्यसन था, फिर भी उसे अध्ययन की प्रबल इच्छा थी। भूगोल तथा ज्योतिष-विद्या उसके प्रिय विषय थे। पुस्तकों की उसकी चाह इतनी बड़ी थी कि वह सदैव अपने साथ एक चुना हुआ पुस्तकालय लेकर चलता था। उसने दिल्ली में एक मदरसा स्थापित करवाया तथा पुराना किला में शेरशाह के द्वारा बनाये गये विलास-गृह को एक पुस्तकालय में परिवर्तित कर दिया। स्कूलों तथा कालेजों में शिक्षा देने की प्रथा चालू करने की दृष्टि से अकबर का राज्यकाल नवयुग-प्रवर्त्तक है। उसने फतेहपुर सीकरी, आगरा तथा अन्य स्थानों में कालेज बनवाये। मुस्लिम शिक्षा की दशा को सुधारने के उद्देश्य से उसने इसके पाठ्यक्रम में कुछ परिवर्तन किये तथा यह कहना युक्तिहीन होगा कि इनका कोई फल नहीं निकला। सच पूछिए तो इसके अच्छे परिणामों की चर्चा करते हुए अबुल फजल ने लिखा है कि सभी राष्ट्रों में युवकों की शिक्षा के लिए स्कूल हैं, परन्तु हिन्दुस्तान अपने विद्यालयों के लिए विशेष रूप से प्रसिद्ध है।
धार्मिक सहिष्णुता की अपनी नीति से अनुप्राणित अकबर ने आगे चलकर मदरसों में हिन्दुओं की शिक्षा का प्रबन्ध कर दिया। जहाँगीर को कुछ साहित्यिक अभिरुचि थी। फारसी तुर्की उसकी अच्छी पढ़ी हुई थी। उसने एक नियम निकाला जिसके यदि कोई धनी पुरुष अथवा व्यापारी बिना किसी उत्तराधिकारी के मर जाता था, तो उसकी सम्पत्ति को राज्य ले लेता था तथा उसे मदरसे, मठ इत्यादि के बनवाने और मरम्मत करवाने में खर्च किया जाता था। तारीखे-जान-जहान में लिखा है कि राज्यारोहण के शीघ्र बाद जहाँगीर ने ऐसे-ऐसे मदरसों की भी मरम्मत करवायी जो तीस वर्षों से चिड़ियों एवं पशुओं के निवास-स्थान बने हुए थे तथा उन्हें विद्यार्थियों और प्राध्यापकों से भर दिया। शाहजहाँ की सबसे अधिक दिलचस्पी भव्य भवनों में थी। किन्तु प्रारम्भिक युवावस्था में उसने तुर्की में शिक्षा पायी थी। रात्रि में कुछ समय वह अपने अध्ययन में व्यतीत किया करता था और विद्वानों को पुरस्कार एवं वृत्तियाँ देकर विद्या को प्रोत्साहन देता था। उसने दिल्ली में एक कालेज स्थापित किया तथा दार्रुल-बका नामक कालेज की, जो नष्टप्राय हो चुका था, मरम्मत करवायी।
मुगल राजपरिवार में उत्पन्न दाराशिकोह भारत के सबसे बडे विद्वानों में एक था। वह अरबी, फारसी, एवं संस्कृत का बहुत बड़ा विद्वान् था। वह कुछ प्रसिद्ध पुस्तकों का लेखक था, जिनमें कुछ ये थीं- उपनिषदों, भगवद्-गीता एवं योगवशिष्ठ रामायण के फारसी अनुवाद; मुस्लिम सन्तों की सूची तथा सूफी दर्शन पर बहुत-सी पुस्तके। इस भाग्यहीन व्यक्ति की कब्र को देखकर सर विलियम स्लीमैन ने उचित ही सोचा था कि यदि वह राजसिंहासन पर बैठने के लिए जीवित रहता तो शिक्षा का स्वरूप तथा उसके साथ-साथा भारत का भाग्य भिन्न होता। यद्यपि औरंगजेब को ऊँची शिक्षा प्राप्त थी परन्तु उसने आमतौर पर शिक्षा की उन्नति के लिए कोई ठोस कार्य नहीं किया। उसने केवल मुस्लिम शिक्षा को प्रत्येक सम्भव प्रोत्साहन दिया तथा कीन के लेखानुसार बहुत से स्कूलों तथा कालेजों की स्थापना की।
मुगल काल में किसी रूप में स्त्री शिक्षा विद्यमान् थी। शाही घराने की तथा धनी सरदारों की पुत्रियों को अपने घरों में शिक्षा दी जाती थी। हम लोग यह मान सकते हैं कि हिन्दुओं में मध्यम वर्ग के लोगों की लड़कियाँ स्कूलों में लड़कों के साथ प्रारम्भिक शिक्षा पाती थीं तथा कुछ धार्मिक साहित्य से सुपरिचित थीं। इंडियन स्टेट्यूटरी कमीशन की औग्जलियरी कमिटी ने सितम्बर, ई. में ठीक ही कहा था कि हिन्दू अथवा मुसलमान धर्म में कोई ऐसी चीज नहीं है, जो स्त्री-शिक्षा के विरुद्ध हो। वास्तव में प्राचीन काल में भी भारत में ऐसी स्त्रियों के दृष्टान्त मिलते हैं जिन्हें विशेष रूप से धर्मशास्त्रों तथा अकबर के समय में शाही घराने की महिलाओं की नियमित रूप से प्रशिक्षण दिया जाता था। यों शिक्षा प्राप्त कर कुछ महिलाओं ने साहित्य के क्षेत्र में प्रतिष्ठा प्राप्त की। इस प्रकार बाबर की पुत्री गुलबदन बेगम (जो हुमायूँनामा की लेखिका थी), हुमायूँ की भतीजी सलीमा सुलताना (जिसने बहुत से फारसी पद्य लिखे थे), नूरजहाँ, मुमताज महल, जहाँनारा बेगम और जेबुन्निसा उच्च शिक्षा प्राप्त महिलाएँ थीं तथा उन्हें फारसी एवं अरबी साहित्य का बहुत अध्ययन था। अरबी और फारसी की प्रकाण्ड विदुषी होने के अतिरिक्त जेबुन्निसा सुन्दर लिखावट लिखने में अत्यन्त निपुण थी तथा उसके पास एक समृद्ध पुस्तकालय था।