एक विशेष न्यायालय ने 22 फरवरी, 2011 को गोधरा अग्निकांड में जो फैसला दिया है,उसके मुताबिक गोधरा में साबरमती एक्सप्रेस को जलाना एक साजिश थी, और इसके लिए न्यायालय ने 31 लोगों को दोषी पाया है और 68 अन्य को बरी कर दिया है। अभी इस अपराध के लिए सजा सुनाई जानी है। इसके बाद संभवतः मामला हाई कोर्ट में जाएगा और उसके आगे भी लंबी कानूनी प्रक्रिया चलेगी। समस्या यह है कि गोधरा अग्निकांड और उसके बाद हुए गुजरात के दंगों पर इतनी राजनीति हो चुकी है कि न्यायिक प्रक्रिया से विवादों की आग बुझ नहीं पाएगी। पिछले नौ वर्ष में इस प्रकरण पर से धुंध छंटी नहीं है। यहां तक कि लालू प्रसाद यादव के रेल मंत्री रहते जो न्यायमूर्ति बनर्जी की अध्यक्षता में न्यायिक कमीशन बैठा, उसने राज्य सरकार की दलीलों को गलत बताया और राज्य सरकार ने न्यायमूर्ति नानावटी की अध्यक्षता में एक कमीशन बनाया, जिसने राज्य सरकार के पक्ष में ताईद की। सुप्रीम कोर्ट ने भी इस मामले में कई बार हस्तक्षेप किया और फैसला सुनाने पर स्टे दे दिया। 18 जनवरी को सुप्रीम कोर्ट ने स्टे हटा लिया और उसके बाद विशेष अदालत ने अपना फैसला सुना दिया।
यह अच्छी बात है कि गोधरा अग्निकांड का फैसला अदालती प्रक्रिया के तहत हुआ है और आमतौर पर भारतीय न्यायपालिका की इतनी विश्वसनीयता है कि उसके महत्वपूर्ण फैसलों पर अक्सर उंगली नहीं उठती, लेकिन यह सवाल अल्पसंख्यक समुदाय की ओर से आ सकता है कि गोधरा कांड की तफ्तीश गुजरात की सरकार ने जितनी चुस्ती से की, उतनी चुस्ती से उसके बाद हुए दंगों की तफ्तीश क्यों नहीं हुई। न्यायपालिका से नहीं, लेकिन राज्य सरकार से पक्षपात की शिकायत अल्पसंख्यकों की हो सकती है और यह दाग नरेन्द्र मोदी की सरकार पर लगा रहेगा। हमारे लोकतंत्र की असली परिपक्वता अभी जाहिर होगी, जब ऐसे मामलों में लोकतंत्र की सारी संस्थाएं निष्पक्ष होकर काम करेंगी और नागरिकों को भी यह यकीन होगा कि उन्हें इन संस्थाओं से सचमुच इंसाफ मिलेगा।
गोधरा जैसा कांड एक जघन्य अपराध है और इनके अपराधियों को सजा मिलनी ही चाहिए, साथ ही समाज से सांप्रदायिकता का जहर खत्म करने की कोशिशें भी जरूरी हैं ताकि ऐसे अपराध हों ही नहीं। अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक सांप्रदायिकता एक दूसरे से प्रेरणा और शक्ति अर्जित करती हैं, लोकतंत्र में भरोसा करने वालों को इन्हें जड़ से मिटाने की कोशिश करनी चाहिए।
जरूरी यह है कि इस फैसले के बाद जो भी विधिसम्मत प्रक्रिया है, उसे चलाया जाए और किसी किस्म की राजनीति इस मुद्दे पर न की जाए। पिछले नौ साल में गोधरा से जो सांप्रदायिक वैमनस्य का चक्र शुरू हुआ है, उसने समाज में काफी कड़वाहट और हिंसा-प्रतिक्रिया पैदा की है। इस फैसले को किसी एक समुदाय की जीत या दूसरे समुदाय की हार न मानकर एक कानूनी फैसले की तरह तटस्थता से ग्रहण किया जाए। यह सही है कि इस पूरे घटनाक्रम के दोषियों को सजा दिलवाना एक लंबी और जरूरी प्रक्रिया है, लेकिन उतनी ही जरूरी प्रक्रिया जख्मों पर मरहम लगाने की भी है।