गुप्तकालीन (लगभग 320 ईस्वी से 550 ईस्वी तक) को भारतीय इतिहास का स्वर्ण युग माना जाता है। इस काल में कला, साहित्य, विज्ञान और धर्म के क्षेत्र में उल्लेखनीय विकास हुआ। सिक्के भी इस विकास के साक्षी रहे हैं। गुप्तकालीन सिक्के अपनी कलात्मकता और तकनीकी उत्कृष्टता के लिए प्रसिद्ध हैं।
गुप्तकालीन सिक्कों की विशेषताएं:
- उच्च स्तरीय कलात्मकता: गुप्तकालीन सिक्कों पर अंकित चित्रांकन अत्यंत सूक्ष्म और यथार्थवादी होते थे। देवी-देवताओं, पशु-पक्षियों और विभिन्न प्रतीकों को अत्यंत कुशलता से उकेरा जाता था।
- तकनीकी उत्कृष्टता: इन सिक्कों को बनाने में उच्च स्तरीय तकनीक का प्रयोग किया जाता था। सिक्कों पर चमकदार परत चढ़ाई जाती थी और इन्हें अत्यंत शुद्ध धातु से ढाला जाता था।
- विविधता: गुप्तकालीन सिक्कों में अत्यधिक विविधता देखने को मिलती है। विभिन्न देवी-देवताओं, शासकों और प्रतीकों को सिक्कों पर अंकित किया जाता था।
उत्तरवर्ती काल में गिरावट क्यों?
गुप्तकाल के बाद भारतीय उपमहाद्वीप में राजनीतिक अस्थिरता बढ़ गई। कई छोटे-छोटे राज्यों का उदय हुआ और बार-बार आक्रमण हुए। इन परिस्थितियों में सिक्का निर्माण पर ध्यान कम दिया गया।
- तकनीकी पतन: धातु शोधन और सिक्का निर्माण की तकनीक में गिरावट आई।
- कलात्मक पतन: सिक्कों पर उकेरे जाने वाले चित्रांकन की गुणवत्ता में गिरावट आई।
- राजनीतिक अस्थिरता: बार-बार राजवंशों के परिवर्तन के कारण सिक्कों पर एकरूपता नहीं रह गई।
गुप्तकालीन सिक्के भारतीय सिक्काशास्त्र का स्वर्णिम अध्याय हैं। इन सिक्कों की कलात्मकता और तकनीकी उत्कृष्टता ने बाद के काल के सिक्कों को प्रभावित किया। हालांकि, राजनीतिक अस्थिरता और अन्य कारणों से उत्तरवर्ती काल में सिक्का निर्माण की गुणवत्ता में गिरावट आई।