क्षेत्रीय विकास एवं विनियोजन FOR UPSC IN HINDI

क्षेत्रीय विनयोजन के भौगोलिक मापदण्ड

क्षेत्रीय नियोजन एक प्रकार का नियोजन है जिसमें एक क्षेत्र के संश्लेषित भौतिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक और आर्थिक हित संलग्न होते हैं। यह चर्चा की जाती है कि क्षेत्रीय नियोजन की नीव काफी हद तक भूगोल में होती है, क्योंकि, विशेष रूप से, केवल भूगोलवेत्ता ही क्षेत्रीय संसाधनों और इसकी समस्याओं का अध्ययन करता है और एक क्षेत्र में प्राकृतिक, भौतिक और मानव कारकों के बीच अंतक्रिया का भी अध्ययन करता है।

प्रदेश की अवधारणा और उसका प्रादेशिक स्थान भूगोल के लिए विशेष चिंता का क्षेत्र है। शोधार्थियों के अनुसार, प्रादेशिक भूगोल ही भूगोल का मुख्य क्षेत्र है। यह इसलिए है क्योंकि भूगोलवेत्ता क्षेत्र और इसके पर्यावरण का बेहतर ज्ञान रखते हैं ताकि पर्यावरणीय संदर्भ को समझने में वे प्रादेशिक नीति-निर्माताओं की मदद कर सकें और एक प्रदेश में नई पहल और प्रविधि के संलयन की प्रक्रिया में मदद मिल सके। क्षेत्रीय नियोजन सम्मिलन क्षेत्र की क्षेतिज एकता के दर्शन पर बल डालता है (प्रत्येक प्रदेश अद्वितीय है लेकिन अपने बगल के प्रदेश से पृथक् नहीं है) और भूगोलवेत्ताओं का अध्ययन इस पहलू पर जोर डालता है। विशेष रूप में प्रादेशिक भूगोल और प्रादेशिक नियोजन के बीच घनिष्ठ संबंध है, केवल भूगोलवेत्ता ही, जो इस संबंध की जरूरी गुणवत्ता को समझते हैं, क्षेत्रीय नियोजन के लिए जरूरी समर्थन प्रदान कर सकते हैं।

भारत में क्षेत्रीय नियोजन का अनुभव

भारत में क्षेत्रीय नियोजन का कार्यक्षेत्र सीमित है क्योंकि राज्य स्वतंत्र राजनीतिक सत्ता के रूप में कार्य करते हैं तथा उनका अपना-अपना पृथक् नियोजन तंत्र होता है। अंतरराज्यीय एवं अंत:राज्यीय स्तरों पर क्षेत्रीय नियोजन के कुछ अनुभव इस प्रकार रहे हैं-

अंत:राज्यीय नियोजन

आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश जैसे कुछ राज्यों के नियोजन के लिए उपक्षेत्रों के तौर पर पहचान की गई है। रायलसीमा क्षेत्र के लिए आंध्र प्रदेश द्वारा योजना का उद्देश्य सिंचाई के लिए सतही और भौमजल क्षमता का विकास करना, औद्योगिक विकास, डेयरी कृषि और वन एवं खनिज संसाधनों का अधिकतम उपयोग करना है।

अंतरराज्यीय योजनाएं

दामोदर घाटी परियोजना: यह एक बहुउद्देश्यीय परियोजना है, जिसके अंतर्गत उद्देश्यों के रूप में सिंचाई, पेयजल, विद्युत, बाढ़ नियंत्रण, वनीकरण तथा वन, खनिज एवं अन्य संसाधनों के विवेकसंगत उपयोग शामिल हैं। इसमें झारखंड, बिहार, प. बंगाल तथा संघीय सरकार सम्मिलित हैं।

दण्डकारण्य परियोजना: इस परियोजना के अंतर्गत ओडीशा एवं उसके पड़ोसी राज्यों के जनजातीय क्षेत्र शामिल हैं। इसका उद्देश्य जनजातीय हितों को ध्यान में रखते हुए बांग्लादेश (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) से आये शरणार्थियों का पुनर्वास करना था। यह परियोजना दण्डकारण्य विकास प्राधिकरण द्वारा क्रियान्वित की गई।

दक्षिणी-पूर्वी संसाधन क्षेत्र: टाउन एण्ड कंट्री प्लानिंग आर्गेनाइजेशन (जिसने दामोदर घाटी एवं दण्डकारण्य परियोजनाओं की रूपरेखा तैयार की थी) द्वारा इन दोनों क्षेत्रों के बीच स्थित संसाधनों से सम्पन्न मध्यवर्ती क्षेत्र की महत्ता का अनुभव किया गया, जो विकास की समस्याओं से ग्रस्त था। इस क्षेत्र के अंतर्गत उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, ओडीशा, छत्तीसगढ़ एवं पश्चिम बंगाल के विभिन्न भूभाग शामिल हैं। इस परियोजना की सफलता अंतरराज्यीय सहयोग की मात्रा पर निर्भर करती है।

बुंदेलखंड: इस क्षेत्र में मध्य प्रदेश के छह तथा उत्तर प्रदेश के पांच जिले शामिल हैं। इस क्षेत्र में जल की कमी, कृषि गतिविधियों का निम्नस्तर, उद्योगों का अभाव तथा कमजोर संचारतंत्र जैसी समस्याएं मौजूद है। दोनों ही राज्यों द्वारा इस क्षेत्र के विकास हेतु कई परियोजनाएं लागू की गई हैं।

पश्चिमी घाट: इस क्षेत्र में छह राज्य- गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, गोआ, केरल एवं तमिलनाडु शामिल हैं। एकीकृत योजना के तहत् वनीकरण, मृदा संरक्षण, जल-वियुत विकास, पौध कृषि, खनिज संसाधन विकास एवं वन्य-जीव संरक्षण के मुद्दों को ध्यान में रखा जाना है। एक उच्चस्तरीय निकाय द्वारा इस क्षेत्र के लिए दिशा-निर्देशों का प्रारूप तैयार किया गया है एवं उसी के अनुसार योजनाओं का निर्माण किया जा रहा है।

उत्तर-पूर्वी क्षेत्र: इस क्षेत्र में पूर्वोत्तर के सात राज्य- असम, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मणिपुर, त्रिपुरा व मिजोरम शामिल हैं। इस क्षेत्र की प्रमुख समस्याएं हैं- दुर्गम भूभाग एवं हीनतर आधार संरचना के कारण पहुंच कम होना, मृदा क्षरण, बाढ़, निम्न कृषि उत्पादकता एवं उद्योगीकरण का निम्नस्तर। 1971 में उत्तर-पूर्वी परिषद की स्थापना की गई ताकि योजना प्रयासों में समन्वय एवं सुधार लाया जा सके। यह परिषद अंतर-राज्यीय प्रकृति की गतिविधियों- संचार, बिजली, बाढ़ नियंत्रण तथा विपणन एवं प्रशिक्षण सुविधाएं इत्यादि के सम्बंध में योजना परामर्श देती है।

क्षेत्रीय नियोजन के अनुभव हमें बताते हैं कि कोई भी अंतरराज्यीय योजना निकाय अपनी प्रकृति में मात्र परामर्शदायी हो सकता है।

पंचवर्षीय योजनाओं में क्षेत्रीय नीतियां

पहली दो योजनाओं (1951-1961) के दौरान क्षेत्रीय नियोजन की तुलना में औद्योगिक एवं कृषि क्षेत्र के विकास पर मुख्य जोर दिया गया। मात्र ऐसे क्षेत्रों के विकास पर बल दिया गया, जहां संसाधनों की त्वरित उपलब्धता विद्यमान वी तथा सस्ती व निम्नतम तकनीक के प्रयोग के माध्यम से महत्वपूर्ण परिणाम प्राप्त किये जा सकते थे।

पहली दो योजनाओं के बाद औद्योगिक एवं कृषि विकास की कुछ मात्रा को प्राप्त कर लिया गया। इसी समय क्षेत्रीय असंतुलन की समस्या का आरंभ हुआ। इसीलिए तीसरी योजना में संतुलित क्षेत्रीय विकास को पहली बार एक उद्देश्य के रूप में स्वीकार किया गया। महानगरों, प्रादेशिक राजधानियों, बंदरगाहों, प्रगतीशील औद्योगिक केन्द्रों, तीर्थस्थलों एवं पर्यटन केंद्रों हेतु विकास योजनाएं तैयार करने के लिए विशेष कोष स्थापित किये गये। बहुउद्देश्यीय सिंचाई परियोजनाओं एवं सार्वजनिक क्षेत्र उद्यमों के लिए भी व्यापक योजनाएं तैयार की गयीं। दामोदर घाटी क्षेत्र, दण्डकारण्य क्षेत्र, रिहंद क्षेत्र, भाखड़ा-नांगल क्षेत्र तथा राजस्थान नहर क्षेत्र जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों को इस योजना के अंतर्गत विकसित किया गया। राज्यों ने अपने-अपने क्षेत्रों में मास्टर प्लान तैयार किये तथा कुछ राज्यों ने नियोजन बोर्ड जैसी क्रियान्वयन संस्थाएं स्थापित कीं।

चौथी योजना के दौरान राज्यों को मिलने वाली केंद्रीय सहायता का विस्तार किया गया तथा राज्यों की जरूरतों पर आधारित नीतियों का निर्माण किया गया। अंधाधुंध शहरी विकास को नियंत्रित करने के लिए भी क्षेत्रीय उपागम की व्यवहार में लाया गया। कई शहरी विकास परियोजनाओं को-हाथ में लिया गया।

पांचवीं योजना की शुरूआत से ही यह स्पष्ट हो गया था कि क्षेत्रीय नीतियों को अधिकाधिक महत्व प्रदान करके ही सभी समस्याओं से निबटा जा सकता है। क्षेत्रों के लिए विभिन्न संसाधन स्थितियों के सर्वेक्षण आयोजित किये गये ताकि इन क्षेत्रों की जरूरतों एवं सुविधाओं के अनुकूल विशिष्ट नीतियां बनायी जा सकें। विभिन्न क्षेत्रों में औद्योगिक पिछड़ेपन को समाप्त करने, कृषि सुधार लाने तथा जल संसाधनों का विकास करने के उद्देश्य से विशेष क्षेत्र योजनाएं तैयार की गयीं। मलिन बस्तियों के सुधार हेतु शहरी विकास परियोजनाएं लागू की गयों तया शहरी विकास उद्देश्यों के लिए सर्वेक्षण किये गये।

छठी योजना में क्षेत्रीय नियोजन के एक अधिक तीव्रतर रूपांतर को अपनाया गया। नियोजन के बहुस्तरीय उपागम पर बल दिया गया। स्थानीय संसाधनों के उपयोग पर विशेष ध्यान केन्द्रित किया गया। इसी योजना के दौरान लक्षित समूह उपागम की पहल की गयी। एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम (आईआरडीपी) का आरंभ किया गया।

सातवीं योजना में लोगों की न्यूनतम आवश्यकताओं को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से क्षेत्रीय मुद्दों पर ध्यान दिया गया। स्थानीय संसाधनों के उपयोग तथा क्षेत्रीय आवश्यकताओं पर आधारित केंद्रीय सहायता विस्तार के द्वारा लोगों की न्यूनतम जरूरतों की पूर्ति का प्रयास किया गया।

एक क्षेत्र की कीमत पर दूसरे क्षेत्र के संसाधन विस्तार से उत्पन्न अंसतुलन को भी ध्यान में रखा गया। सातवीं योजना के दौरान विशेष कार्यक्रमों को जारी रखा गया।

आठवीं योजना में यह उल्लिखित किया गया कि, रोजगार निर्माण, गरीबी उन्मूलन, शिक्षा एवं स्वास्थ्य में सुधार विकास से घनिष्ठतः जुड़े हैं तथा विकास को इस प्रकार प्राप्त किया जाना चाहिए, जिससे क्षेत्रीय असमानता घट सके और विकास के लाभों का विस्तार हो सके। समाज के पिछड़े वर्गों एवं विकास की दृष्टि से पिछड़े क्षेत्रों के लिए पर्याप्त सुरक्षोपाय अपनाये गये। इसके लिए पर्याप्त खाद्य आपूर्ति प्रणाली, रोजगार निर्माण योजनाओं, मुद्रास्फीति नियंत्रण तथा आधारभूत संरचना के निर्माण को वरीयता दी गयी। आठवीं योजना के दौरान एक संशोधित सार्वजानिक वितरण प्रणाली को आरम्भ किया गया ताकि सूखाग्रस्त, पहाड़ी, जनजातीय पिछड़े एवं सुदूर क्षेत्रों के निवासियों को खाद्य सुरक्षा प्रदान की जा सके।

नौवीं योजना में संतुलित क्षेत्रीय विकास के महत्व को रेखांकित किया गया। इसमें कहा गया कि देश के सभी भागों द्वारा विकास अवसरों का समान लाभ न उठा पाने तथा ऐतिहासिक असमानताओं के पूर्णतः समाप्त न हो पाने के कारण नियोजित हस्तक्षेप की जरूरत अभी तक बनी हुई है। ऐसी स्थिति में अल्पविकसित राज्यों की आधार संरचना में पक्षपातपूर्ण सार्वजनिक निवेश करना जरूरी हो जाता है। साथ ही यह भी सुनिश्चित करना आवश्यक है कि निवेश से लाभान्वित होने वाले राज्य अपने संसाधनों का दुरुपयोग न करें।

पूंजी निवेश और नवीनीकरण तंत्र के प्रावधान के साथ, जो संस्थात्मक सुधारों के साथ जुड़ा है, क्षेत्रीय असमानताओं को कम करने की दिशा में अल्पविकसित क्षेत्रों को लक्षित करना योजना आयोग की रणनीति का एक मुख्य तत्व था। आयोग ने क्रियाशील रूप से क्षेत्र उपागम की वकालत की और नियोजन के विकेन्द्रीकरण का लक्ष्य रखा।

क्षेत्रीय असमानताओं को पाटने के लिए दसवीं पंचवर्षीय योजना में, राष्ट्रीय सम विकास योजना (आरएसवीवाई) नामक एक नई योजना चलाई गई।

राष्ट्रीय सम विकास योजना का मुख्य उद्देश्य उन क्षेत्रों की विकास समस्याओं का सामना करना था, जिनमें बेहद प्रयास के बावजूद उच्च निर्धनता, निम्न संवृद्धि और कमजोर शासन की स्थिति बनी हुई थी।

आरएसवीवाई ने पिछड़े क्षेत्रों के लिए विकासपरक कार्यक्रमों पर ध्यान दिया जो असंतुलनों को कम करने में मदद करेगी, विकास की गति तेज करेगी और पिछड़े क्षेत्रों को गरीबी से बाहर निकलने में मदद करेगी।

आरएसवीवाई के अंतर्गत केवल तभी अतिरिक्त अनुदान द्वारा पिछड़े क्षेत्रों की विकास में सहायता देने की रणनीति थी, यदि सम्बद्ध राज्य सरकार सुधारों के एक सहमत समुच्चय को अपनाती है। मूलभूत सत्य था कि मात्र वित्त पिछड़ेपन को दूर नहीं करेगा; प्रशासनिक और राजस्व संरचना में सुधार, आम लोगों के दैनंदिन जीवन संबंधी नीतियों में और वित्तीय और प्रशासनिक शक्तियों के प्रदत्तन के तरीके में सुधार वित्त के पूरक के तौर पर जरूरी हैं।

पिछड़ा क्षेत्र अनुदान कोष (वीआरजीएफ) को विकास में प्रादेशिक असंतुलनों को कम करने के लिए तैयार किया गया। यह कोष वित्तीय संसाधनों की आपूर्ति और 250 चिन्हित जिलों में मौजूद विकास अंतर्प्राहों को रूपांतरित करने के लिए प्रदान किया गया, ताकि-

  1. मौजूद अंतप्रवाहों द्वारा पर्याप्त रूप से विकसित नहीं किए गए स्थानीय अवसंरचना और अन्य विकास आवश्यकताओं में उत्पन्न जटिल अंतरालों को पाटना।
  2. इस योजना के अंत तक, पंचायत और नगरपालिका स्तरीय शासन को, सहभागिता मूलक नियोजन को सुसाध्य बनाकर अधिक उपयुक्त क्षमता निर्माता, निर्णय-निर्माण कार्यान्वयन और महसूस की गई स्थानीय जरूरतों की निगरानी के साथ मजबूत करना।
  3. स्थानीय निकायों को उनकी योजनाओं के नियोजन, कार्यान्वयन और निगरानी के लिए पेशेवर समर्थन प्रदान करना।
  4. पंचायत संबंधी जटिल कार्यों के निष्पादन और सेवा प्रदायन में सुधार करना, और अपर्याप्त स्थानीय क्षमता के कारण संभव दक्षता और सहभागिता में नुकसान को कम करना।

पेशेवर नियोजन समर्थन को सूचीबद्ध करके प्रत्येक जिले में इसके पिछड़ेपन संबंधी पहचान का अध्ययन के साथ विकास का शुभारंभ होगा। इसका अनुसरण 2006-07 के दौरान और ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के काल के दौरान पिछड़ेपन का पता लगाने के लिए अच्छी प्रकार अपनाया गया सहभागिता मूलक विकास योजना को तैयार करके किया गया।

ग्राम, मध्यवर्ती और जिला स्तरों पर पंचायतें, इसका उल्लेख संविधान के भाग IX में किया गया है, संविधान के अनुच्छेद 243G का अक्षरशः पालन करते हुए कार्यक्रमों का नियोजन और कार्यान्वयन करेगी, जबकि तंविधान के भाग IXA में उल्लिखित नगरपालिकाएं अनुच्छेद 243w, जिसे संविधान के अनुच्छेद 243ZD के साथ पढ़ा जाएगा, का अक्षरशः पालन करते हुए समान रूप से शहरी क्षेत्रों में कार्यक्रम का नियोजन एवं कार्यान्वयन करेंगी।

मौजूदा राष्ट्रीय सम विकास योजना (आरएसवीवाई) को पिछड़ा क्षेत्र अनुदान कोष (बीआरजीएफ) योजना/कार्यक्रम में शामिल कर लिया गया।

दसवीं पंचवर्षीय योजना पहली योजना थी संवृद्धि के लिए राज्य-विशेष को लक्षित करने का उल्लेख किया गया। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना ने राज्यों के लिए सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) लक्ष्य पहल पर काम जारी रखा। परिणामस्वरूप, यह बारहवीं पंचवर्षीय योजना में अधिक तीव्र संवृद्धि के लिए मंच प्रदान करेगा।

सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) और संवृद्धि दर में अंतर असमानता/असंतुलन के आर्थिक सूचकों का सारांश प्रस्तुत करते हैं। स्वास्थ्य, शिक्षा और अवसंरचना सूचकों में व्यापक अंतर मौजूद हैं। पिछड़े क्षेत्रों में यहां तक मूलभूत सुविधाओं का अभाव है। कृषि के साथ आजीविका के विकल्प भी सीमित हैं और उद्योग व्यावहारिक रूप से इन क्षेत्रों में नदारद हैं। जैसाकि योजना दस्तावेज इंगित करता है कि, असमानताओं के एक बड़े हिस्से के कारण शायद ऐतिहासिक कारण, प्रारंभिक दशाओं में अंतरों एवं प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता है। हालांकि, ऐसा स्पष्ट प्रारूप नहीं है जो सभी मामलों में लागू होता है।

उदारीकरण के दौर में, बाजार शक्तियों का दबाव राज्यों और अंतरराज्यीय असंतुलन में वृद्धि कर सकती हैं। इन परिस्थितियों में, समानता को प्रोत्साहित करने की बेहद आवश्यकता है। प्रादेशिक असमनताओं को कम करना मात्र अपने आप में उद्देश्य नहीं हैं अपितु देश के सामाजिक और आर्थिक समन्वित स्थिति को बनाए रखने के लिए भी जरूरी है जिसके बिना देश को असंतोष, अराजकता और कानून-व्यवस्था भंग होने जैसी स्थितियों का सामना करना पड़ सकता है।

केन्द्र से राज्यों को संसाधनों के प्रवाह को समन्वय स्थापित करना होगा जिससे संतुलित विकास में मदद मिल सके। केंद्र सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि केंद्र से राज्यों को भेजे गए सभी संसाधनों का प्रवाह इस प्रकार होना चाहिए जिससे कि पारस्परिक रूप से पिछड़ा हुआ राज्य विकसित राज्यों की बराबरी पर आ सके।

भारत में विकास से जुड़ी क्षेत्रीय असमानताएं

स्वतंत्रता के उपरांत भारत के कई भागों में आश्चर्यजनक प्रगति हुई, वहीं दूसरी ओर कई क्षेत्र विकास के निम्न स्तर तक ही पहुंच पाये हैं। इस क्षेत्रीय असंतुलन के कारण ऐतिहासिक प्रक्रियाओं तथा देश के विभिन्न क्षेत्रों में प्राकृतिक संसाधनों के विभेदकारी वितरण में निहित हैं।

ब्रिटिश शासन के दौरान विभिन्न क्षेत्र उत्पादन एवं खपत के अलग-अलग स्तर व आकार रखते थे, क्योंकि विभाजन क्षेत्रों के अलग-अलग प्रयासों के कारण उत्पादन स्तरों तथा विभिन्न क्षेत्रों के उत्पादन सम्बंधों में अंतर मौजूद था। उस समय शहरीकरण की प्रक्रिया प्राथमिक उत्पादों के निर्यात तथा मशीन निर्मित आयातित माल का उपभोग की रणनीति पर आधारित थी। इसके फलस्वरूप, कोलकाता, मुंबई व चेन्नई जैसे बंदरगाह नगरों तथा कुछ देशी रियासतों के राजधानी शहरों का अन्य क्षेत्रों की तुलना में बहुत तेजी से विकास हुआ। ये रियासती राजधानी शहर उपभोक्ता वस्तु केंद्रों के रूप में उभर कर आये तथा अपने निकटवर्ती क्षेत्रों में अभिकेंद्रीय विकास को जन्म देने लगे, जबकि बंदरगाह नगरों ने अपने-अपने राज्यों (महाराष्ट्र, प. बंगाल तथा तमिलनाडु) के लिए विकास के नाभिक केंद्रों के रूप में कार्य किया।

आरंभिक विकास यात्रा के बाद, धीरे-धीरे उद्योग में निवेश कर पाने की क्षमता के साथ एक व्यापारी-पूंजीपति वर्ग उभरकर आया तथा औद्योगीकरण एवं शहरीकरण की जुड़वां प्रक्रियाएं साथ-साथ आगे बढ़ने लगीं। आगे चलकर शिक्षा के अवसरों ने लिपिकों एवं अधीनस्थ कर्मचारियों के एक वर्ग के उदय के माध्यम से व्यापार एवं प्रशासन को समर्थन प्रदान किया। पश्चिमी शिक्षा यूरोपीय महानगरों एवं पश्चभूमि के सम्पर्कों के कारण तेजी से फैलती गई। धीरे-धीरे वकीलों, चिकित्सकों, बुद्धिजीवियों एवं कुशल कार्मिकों का एक मध्यम वर्ग विकसित होता गया। जब ये क्षेत्र आधुनिक तरीकों से विकास की ओर अग्रसर हो रहे थे, उसी समय कई क्षेत्र मशीन निर्मित आयातों के फलस्वरूप गैर-कृषि व्यवसायों एवं हस्तशिल्प के पतन के कारण पीछे की ओर जा रहे थे। जब एक क्षेत्र जल्दी से विकास प्रक्रिया आरंभ कर देता है, तो आधार संरचना निर्मित हो जाती है और विकास का चक्र चलने लगता है। रोजगार के अवसर उत्पन्न होने लगते हैं। ये पारिस्थितियां अन्य क्षेत्रों से होने वाले प्रवासन को आकर्षित करती हैं। प्रवासियों में सामान्यतः स्वस्थ, गतिशील एवं उद्यमी वर्ग शामिल होते हैं जो अपने साथ अपनी बचतें भी ले जाते हैं। मूल स्थान पर मुख्यतः महिलाएं, बच्चे एवं वृद्धजन रह जाते हैं। परिणामतः उस अल्पविकसित क्षेत्र की जनसांख्यिकीय संरचना विकृत हो जाती है। विकसित क्षेत्र अधिकांश निवेश एवं साख को भी आकर्षित कर लेते हैं। विकसित क्षेत्रों के विपरीत, पिछड़े क्षेत्रों में अल्पविकास का एक उल्टा चक्र घूमने लगता है।

स्वतंत्रता के समय विभिन्न क्षेत्रों के मध्य व्यापक असमानताएं मौजूद थीं, जिन्हें प्रतिव्यक्ति आय, प्रति व्यक्ति उपभोग, शिक्षा व स्वास्थ्य सेवा, रोजगार एवं आधारभूत संरचना इत्यादि के क्षेत्र में स्पष्ट देखा जा सकता था। आरंभिक राजनीतिक अस्थिरता के कारण यह असमानता गंभीर संकेत रखती थी। इसलिए यह अनुभव किया गया कि असमानता समाप्ति में राज्यों को प्रमुख भूमिका निभानी पड़ेगी। यह प्रतिबद्धता संविधान और नियोजन उद्देश्यों में प्रतिबिम्बित हुई। किंतु, शासक वर्गों की रणनीतिक प्रस्थिति तथा नियोजनकर्ताओं द्वारा अपनाए गए विकास के समष्टिगत एवं विभागीय प्रतिरूप के कारण इन उद्देश्यों को प्राप्त किया जाना आसान कार्य नहीं था।

स्वतंत्रता के उपरांत क्षेत्रीय असंतुलन को घटाने का कार्य दो प्रमुख संस्थाओं- वित्त आयोग एवं योजना आयोग को सौंपा गया। यद्यपि, वित आयोग की सिफारिशों ने क्षेत्रीय असमानताओं के मुद्दे को उभारा है, तथापि, निम्नलिखित कारणों से यह अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभा पाने में विफल रहा है-

  1. आयोग के लिए रहन-सहन की दशाओं में व्याप्त असमानता की समाप्ति विषय-संदर्भ से परे की बात है।
  2. राज्यों को कोषों के आवंटन में योजना आयोग की भूमिका व्यापक रही है।
  3. इस सम्बंध में संसाधनों के उपयोग का तरीका भी महत्वपूर्ण है, जो वित्त आयोग के नियंत्रण से बाहर है।

योजना आयोग से अत्यधिक अपेक्षाएं की गयीं, किंतु यह समष्टिगत विभागीय, आर्थिक एवं राष्ट्रीय पहलुओं पर ही जोर देता रहा, जबकि क्षेत्रीय जरूरतों की उपेक्षा की गयी। योजना आयोग द्वारा निर्मित योजनाएं अर्थव्यवस्था के अभिमुखीकरण हेतु लक्ष्यों एवं दिशा-निर्देशों के विन्यास रूप में थी। इसी समय कुछ त्रुटिपूर्ण अभिग्रहों को भी बल मिलता गया। प्रथम त्रुटिपूर्ण अभिग्रह यह था कि, राष्ट्रीय संवृद्धि एवं असमानता की समाप्ति के मध्य एक अंतर्विरोध मौजूद है। दूसरा अभिग्रह था कि, औद्योगिक विकास को क्षेत्रीय स्तर पर आर्थिक विकास के साथ समीकृत किया जा सकता है। इसीलिए, औद्योगिक विकास एवं विस्तार की बातें होती रहीं किंतु योजनाओं में इन क्षेत्रों के समग्र विकास का बीड़ा नहीं उठाया गया। उल्लेखनीय है कि पश्चिमी यूरोप में औद्योगिक क्रांति के लिए कृषि क्रांति द्वारा आधार तैयार किया गया था।

भारत में क्षेत्रीय असमानताओं के प्रतिरूप का निम्नलिखित पदानुक्रम मौजूद है-

  1. विकास के उच्च स्तर वाला व्यापक क्षेत्र।
  2. निम्न विकास वाले क्षेत्रों में विकास के अलग-थलग क्षेत्र।
  3. विकास का रैखिक प्रतिरूप।
  4. बिखरे हुए बाजार केंद्रों समेत निम्न विकास का विस्तृत क्षेत्र।
  5. विकास के निम्न स्तर वाला व्यापक क्षेत्र।
  6. पर्वतीय क्षेत्रों में निम्न विकास।

क्षेत्रीय असमानता उन्मूलन के विभिन्न नियोजित प्रयास

पहली योजना के दौरान शुरू किये गये चार अनुसंधान कार्यक्रमों में से एक क्षेत्रीय विकास (विशेषतः अंधाधुंध शहरीकरण की समस्या से संबंधित) के मुद्दे से जुड़ा था। इसी के साथ सामुदायिक विकास परियोजनाएं भी लागू की गयीं। दूसरी योजना द्वारा विकास में क्षेत्रीय संतुलन पर जोर दिया गया। योजना में इस बात पर बल दिया गया कि निवेश प्रतिरूप को इस प्रकार तैयार किया जाए, जिससे वह असमानताएं घटाने एवं आर्थिक गतिविधियों को फैलाने में सहायक सिद्ध हो सके। कृषि एवं सलग्न गतिविधियों, सिंचाई, अधर संरचना, स्थानीय कार्य, सामाजिक सेवा तथा लघु उद्योगों से जुड़े विशेष कार्यक्रम आरंभ किए गए।

तीसरी योजना में क्षेत्रीय संतुलन नाम से एक पृथक् अध्याय मौजूद था, जिसमें अंतःराज्यीय एवं अंतरराज्यीय दोनों प्रकार के संतुलन पर जोर दिया गया था। योजना में कृषि, आधार संरचना सामाजिक सेवा, प्रसंस्करण एवं उपभोक्ता उद्योग के विकेन्द्रीकरण पर बल दिया गया। पिछड़े क्षेत्रों में भारी उद्योगों की स्थापना को प्रोत्साहन देने की बात भी कही गयी।

चौथी योजना के दौरान अनेक विशेष कार्यक्रम शुरू किये गये, जैसे- सूखाग्रस्त क्षेत्र कार्यक्रम, कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम, लघु कृषक विकास अभिकरण, ग्रामीण रोजगार हेतु क्रैश योजना तथा अग्रगामी गहन ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम इत्यादि। पिछड़े क्षेत्रों की पहचान के लिए प्रयास आरंभ किये गये। जिले को नियोजन की अनुकूलतम इकाई मान लिया गया। पिछड़े क्षेत्रों पर विशेष ध्यान देने की नीति के तहत 1969 में ग्रामीण विद्युतीकरण निगम की स्थापना की गयी। अंतरराज्यीय सहयोग की अपेक्षा रखने वाले क्षेत्रों- बुंदेलखंड, पश्चिमी घाट, दंडकारण्य इत्यादि, के नियोजित विकास हेतु चौथे योजना काल में कई विशेष कार्यदलों एवं समितियों का गठन किया गया।

पांचवीं योजना में विशेष क्षेत्र उपागम को अंगीकृत किया गया। इस उपागम के अंतर्गत आरंभ किये गये कार्यक्रम निम्नलिखित थे-

  1. संसाधन एवं समस्या केन्द्रित क्षेत्र कार्यक्रम: सूखग्रस्त क्षेत्र कार्यक्रम, कमान क्षेत्र विकास कार्यक्रम एवं विशेष पर्वतीय क्षेत्र कार्यक्रम।
  2. लक्षित समूह केन्द्रित कार्यक्रम: लघु कृषक विकास अभिकरण तथा एकीकृत जनजातीय विकास परियोजनाएं।
  3. आर्थिक प्रेरणा उन्मुख कार्यक्रम: निवेश सब्सिडी, परिवहन सब्सिडी तथा रियायती वित्त।

छठी योजना गरीबी उन्मूलन, प्रणाली उपागम तथा जन-भागीदारी इत्यादि पर केन्द्रित थी। ग्रामीण एवं असंगठित क्षेत्रों में रोजगार निर्माण हेतु विशेष कार्यक्रम आरंभ किये गये। इन कार्यक्रमों में राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कार्यक्रम, ग्रामीण भूमिहीन रोजगार गारंटी कार्यक्रम, एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम इत्यादि शामिल थे।

सातवीं योजना में स्थानीय तकनीकी क्षमताओं के चयनित प्रयोग एवं विकास पर बल दिया गया। उत्पादक सम्पति सृजन के उद्देश्यों पर आधारित ग्रामीण विकास कार्यक्रमों के माध्यम से रोजगार निर्माण में तेजी लायी गयी। एनआरईपी एवं आरएलईजीपी को जवाहर रोजगार योजना में विलय कर दिया गया तथा विशेष क्षेत्र कार्यक्रम जारी रहे।

आठवीं योजना में कहा गया कि, संवृद्धि इस प्रकार से हासिल की जाए, जिसते क्षेत्रीय असमानता घटने के साथ-साथ विकास के लाभों का समानतापूर्ण वितरण सुनिश्चित हो सके। बालिका शिशुओं के पंजीकरण व धारण की दर में सुधार, रोजगार योजनाओं, मुद्रा-स्फीति नियंत्रण, पर्याप्त खाद्य आपूर्ति इत्यादि के माध्यम से पिछड़े व कमजोर वर्गों तया क्षेत्रों को यथेष्ठ सुरक्षा उपलब्ध करायी गयी। हरित क्रांति को अन्य क्षेत्रों (विशेषतः पूर्वोत्तर भारत में) में विस्तारित करने पर जोर दिया गया। आठवीं योजना के दौरान 1754 पिछड़े खंडों में एक संशोधित सार्वजनिक वितरण प्रणाली लागु की गयी तथा प्रधानमंत्री रोजगार योजना को सम्पूर्ण देश में क्रियान्वित करने की दृष्टि से रूपांतरित किया गया।

आठवीं योजना में, आर्थिक नियोजन पहले से कहीं अधिक सांकेतिक बना, और प्रादेशिक परिदृश्य पर विशेष रूप से विचार-विमर्श नहीं किया गया। लेकिन इसमें पर्वतीय क्षेत्र विकास कार्यक्रम, सीमा क्षेत्र विकास कार्यक्रम और मरुस्थल क्षेत्र विकास कार्यक्रम जैसी विशेष क्षेत्रों के लिए कार्यक्रम प्रारंभ किए गए।

नौवीं योजना ने यह मान्यता प्रस्तुत की कि अवसंरचना में सार्वजनिक निवेश को कम संपन्न राज्यों के पक्ष में पक्षपाती होने की आवश्यकता है, लेकिन संसाधन आवंटन को इस दृष्टि से परिभाषित नहीं किया जाएगा।

दसवीं योजना में, उच्च निर्धनता, निम्न संवृद्धि और कमजोर शासन वाले लक्षित क्षेत्रों के प्रति एक नए उपागम को अपनाने का निर्णय लिया गया, जो देश के विकास एवं संवृद्धि को कम कर रहे थे और यह कार्य पिछड़ा क्षेत्र के लिए विशेष कार्यक्रम चलाकर, और 2003-04 में राष्ट्रीय सम विकास योजना (आरएसवीवाई) प्रारंभ करके किया गया। दसवीं योजनान्तर्गत 33 जिलों ने 45 करोड़ का संपूर्ण आवंटन प्राप्त किया जबकि अन्य इस कार्यक्रम की पूर्णता के विभिन्न चरणों में हैं। प्रथम दो वर्षों में कार्यक्रम संचालन के अनुभव को दृष्टिगत रखते हुए, यह निर्णय लिया गया कि कार्यान्वयन की प्रक्रिया को अधिक सहभागिता मूलक और समग्रता प्रदान करके बदला जाए और पंचायती राज संस्थानों को शामिल किया जाए।

ग्यारहवीं योजना ने पिछड़ा क्षेत्र अनुदान कोष को सशक्त किया। बीआरजीएफ को अच्छी प्रकार अपनाया गया। लोगों की सहभागिता से चयनित कार्यक्रमों के कार्यान्वयन द्वारा सहभागी जिला योजना बनायीं गयी जिसके लिए गाँव जिला स्तर तक पंचायती राज संसथान नियोजन और कार्यान्वयन के लिए प्राधिकारी होंगे।

योजना में दो तत्व हैं, नामतः

  1. जिला अंगभूत जिसमें 250 जिले शामिल हैं और
  2. बिहार और ओडीशा के कालाहांडी-बोलनगीर-कोरापुट (केबीके) जिलों के लिए विशेष योजनाएं।

कार्यक्रम के जिले अंगभूतों को वित्त प्रदान करने के अतिरिक्त, बिहार और ओडीशा के केबीके जिलों के लिए विशेष योजनाओं को भी, जिसे दसवीं योजनान्तर्गत भूतपूर्व आरएसवीवाई के तहत् वित प्रदान किया गया था, ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान बीआरजीएफ के अंतर्गत वित्त प्रदान किया गया।

बिहार के लिए विशेष योजना तैयार की गई, बिहार सरकार के साथ परामर्श करके, जो ऊर्जा, सड़क संपर्क, सिंचाई, वानिकी और जलसंभर विकास में सुधार लेकर आई।

केबीके प्रदेश में ओडीशा के दक्षिणी और पश्चिमी हिस्से में स्थित अविभाजित कालाहांडी-बोलनगीर-कोरापुट जिले शामिल हैं जिन्हें आठ जिलों, नामतः, कालाहांडी, नुआपदा, बोलनगीर, सोनपुर, कोरपुट, नबरंगपुर, मलकानागिरी और रायगदा जिलों में विभाजित किया गया। इन जिलों के लिए एक संशोधित दीर्घावधिक कार्य योजना बनाई गई। नियोजन और और एक नवीकरणीय प्रदायन और निगरानी तंत्र का प्रयोग करके 2002-03 से इन जिलों के लिए एक विशेष योजना को वित्त प्रदान कर रही है।

इस विशेष योजना का ध्यान स्थानीय प्राथमिकताओं के अनुसार, बाढ़ रोकथाम, आजीविका प्रदायन, संपर्क, स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी मुख्य समस्याओं के समाधान करने पर है।

दो अंगभूत-जिला अंगभूतों और बिहार तथा ओडीशा के केबीके जिलों के लिए विशेष योजना हेतु ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान प्रति वर्ष 5820 करोड़ रुपए प्रदान करने का निर्णय लिया गया। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान बीआरजीएफ के लिए 29,100 करोड़ रुपए का कुल प्रावधान किया गया है।

ग्यारहवीं योजना में पर्वतीय क्षेत्र विकास कार्यक्रम (एचएडीपी) और पश्चिमी घाट विकास कार्यक्रम (डब्ल्यूजीडीपी) को जारी रखा गया है। कार्यक्रम के मुख्य उद्देश्य, जैवविविधता संरक्षण पर बल और पर्वतीय पारिस्थितिकी के यौवन के साथ पारिस्थितिक संरक्षण और पारिस्थितिकी की पूर्वावस्था की प्राप्ति रहे हैं। डब्ल्यूजीडीपी के तहत् जलसंभर आधारित विकास निरंतर मूलभूत क्षेत्र रहा है।

इन कार्यक्रमों को निम्न कारणों से निरंतर चलाए जाने की आवश्यकता है-

  1. अधिकतर पर्वतीय क्षेत्रों में सड़क, उर्जा, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं जैसी अवसंरचनात्मक सुविधाओं का अभाव है;
  2. अधिकतर पर्वतीय क्षेत्रों में राजनीतिक शक्ति का अभाव है जिसके परिणामस्वरूप पर्याप्त वित्तपोषण की कमी होती है;
  3. कई अन्य कार्यक्रम पर्वतीय क्षेत्रों के लिए उपयुक्त नहीं होते, उदाहरणार्थ, पहाड़ी क्षेत्रों में मजदूरी अक्सर ऊंची होती हैं, और सामान्य रूप से कार्य करने के लिए मशीनों की आवश्यकता होती है क्योंकि चट्टानी क्षेत्र मानव श्रम के लिए उपयुक्त नहीं होते। इसलिए, स्थानीय समाधानों को खोजना होगा और इन्हें प्रोत्साहित करना होगा।

उद्देश्य दो प्रकार के होंगे- पारिस्थितिकीय संतुलन और संरक्षण तथा साथ ही धारणीय आजीविका अवसरों का सृजन करना।

सीमा क्षेत्र विकास कार्यक्रम (बीएडीपी), जिसे सातवीं योजना के दौरान शुरू किया गया था, का उद्देश्य सीमा क्षेत्रों के सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए विशेष प्रयास करना और इन दुर्गम और सुदूरवर्ती क्षेत्रों के लोगों के बीच सुरक्षा का भाव उत्पन्न करना है। कार्यक्रम को आठवीं योजना में सुधार हेतु परिवर्तित किया गया और बांग्लादेश के साथ अंतरराष्ट्रीय सीमा रखने वाले राज्यों तक इसका विस्तार किया गया और नौवीं योजना के दौरान म्यांमार, चीन, भूटान और नेपाल के साथ सीमा रखने वाले राज्यों तक इसका और आगे विस्तार किया गया।

इस कार्यक्रम को ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना में मजबूत किया जाएगा। सीमा क्षेत्रों के गांवों और ब्लॉकों को भारत निर्माण की सभी योजनाओं और अन्य ऐसे कार्यक्रमों में उच्च प्राथमिकता दी जाएगी। सीमा क्षेत्रों में पूरे नहीं हुए सभी बड़े प्रोजेक्ट को पूरा करने में प्राथमिकता दी जाएगी।

सीमा क्षेत्रों में कौशल विकास और व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करने पर विशेष बल दिया जाएगा। सरकारी क्षेत्र की पॉलिटेक्नीक, आईटीआई/कौशल निर्माण केंद्रों की स्थापना में सीमा जिलों को प्राथमिकता दी जाएगी।

बैंकिंग सुविधाएं भी विकसित की जाएंगी। चूंकि अधिकतर सीमा क्षेत्र सुदूरवर्ती और दुर्गम होते हैं, लोचदार वित की व्यवस्था की जाएगी।

यह योजना भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र (एनईआर) के विकास के लिए भी बड़ी संख्या में कदम उठाती हैं, जिन्होंने योजनाकाल से पूर्व चल रहे कार्यक्रमों को पहले ही प्राप्त कर लिया है।

केंद्र सरकार भी समय-समय पर उत्तर पूर्वी क्षेत्र के सामाजिक-आर्थिक विकास हेतु विशेष पैकेजों की घोषणा करती रही है। इन पैकेजों के अपरिहार्य कार्यान्वयन के लिए समय-समय पर प्राथमिकता वित्तपोषण (केंद्र और राज्य दोनों योजनाओं में) का प्रबंध किया गया।

भारत निर्माण, इंदिरा आवास योजना, सर्वशिक्षा अभियान, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन और प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना जैसे कार्यक्रमोंने विशेष क्षेत्रों के संदर्भ में पिछड़ेपन को संबोधित किया। ग्रामीण विकास और गरीबी निवारण की अधिकतर योजनाओं ने वित के वितरण के लिए गरीबी को मापदंड बनाया और इस प्रकार निम्न आय क्षेत्रों और लोगों को स्वाभाविक रूप से लाभ मिला। राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम ने ग्रामीण बेरोजगार को एक निश्चित मजदूरी के साथ रोजगार प्रदान किया। एनआरईजीपी ने राज्यों और जिलों को कार्यक्रमों की योजना बनाने और उन्हें लागू करने का अवसर प्रदान किया जिसने रोजगार मुहैया कराया और ग्रामीण संपति का भी सृजन किया जो आगे की आर्थिक गतिविधियों में सहायक होगी। मांग पर वित की उपलब्धता ने एनआरईजीपी को अन्य योजनाओं से अलग किया।

नियोजन प्रयासों का आलोचनात्मक मूल्यांकन

योजना प्रयास कुछ खास कमियों के कारण प्रभावित हुए-

  1. राजनीतिक बाध्यताओं के कारण, सरकार को सभी राज्यों में पिछड़े क्षेत्रों की पहचान करनी पड़ी, इस प्रकार, वास्तविक रूप से पिछड़े क्षेत्रों के खिलाफ भेदभाव हुआ।
  2. योजना आयोग द्वारा अवसंरचना के कुछ स्तरों पर लगाई गई शतों के परिणामस्वरूप सहायता विकसित राज्यों के पिछड़े जिलों तक पहुंची।
  3. निवेश अनुदान और अन्य ऐसी योजनाओं ने उन जिलों को लाभ पहुंचाया जिनकी पारस्परिक रूप से विकसित औद्योगिक केंद्रों से समीपता थी।
  4. औद्योगिक एस्टेट सामान्यतः उद्योगों के विकेन्द्रीकरण में असफल हो गई क्योंकि वे पूंजी गहन प्रकृति के थे। ये एस्टेट अवसंरचनात्मक अवरोध के कारण धराशायी हो गई।

लाइसेंसिंग नीति स्वयं में एक नकारात्मक यंत्र है जो पिछड़े क्षेत्रों के औद्योगिकीकरण को प्रोत्साहित नहीं कर सकी।

सरकार ने पिछड़े क्षेत्रों के विकास के लिए बड़ी संख्या में कदम उठाए ताकि क्षेत्रीय असमानाताओं को कम किया जाए। हालांकि उचित क्षेत्रीय नियोजन का प्रयास नहीं किया गया, तुलनात्मक रूप से अस्थायी तरीकों को अपनाया गया। पिछड़े क्षेत्रों में सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रम उभरे लेकिन वे आशानुरूप संवृद्धि प्रक्रिया उत्पन्न करने में असफल हो गए। संवृद्धि केंद्रों के विचार पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया। विभिन्न बस्तियों के साथ केंद्रीय गांवों, सेवा कस्बों, संवृद्धि विन्दुओं, संवृद्धि केंद्रों इत्यादि का संपर्क पैटर्न स्थापित करने का कोई प्रयास नहीं किया गया। इसने शहरी विकास के असंतुलित पैटर्न को प्रवृत्त किया।

अभी भी जिला स्तर पर कार्य का नियोजन तंत्र नहीं है यद्यपि दिशा-निर्देश तैयार किए गए। जब तक इन्हें सुधारा नहीं जाता, प्रादेशिक असमानताएं बढ़ सकती हैं।


विकेन्द्रीकृत नियोजन Decentralized Planning

स्थानीय स्तर पर

राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में निष्पादन क्षमता एवं उपयोग के अंतर को पाटने के लिए यह आवश्यक है कि समस्याओं, संसाधनों, एवं उत्पादक क्षमताओं का स्थानीय स्तर पर मूल्यांकन किया जाये। इस प्रकार का मूल्यांकन अधिक यथार्थवादी चित्र सामने रखता है। दूसरी ओर, उन योजनाओं (जो स्थानीय परिस्थितियों के प्रतिकूल राज्य स्तर पर निर्मित की जाती हैं) का एक पक्षीय अनुप्रयोग भौतिक तथा वित्तीय संसाधनों के अक्षम उपयोग को जन्म देता है।

क्रियान्वयन अधिकारियों एवं लाभार्थियों की भागीदारी के साथ स्थानीय स्तर पर चालू परियोजनाओं की निगरानी रखना अधिक प्रभावी सिद्ध होता है।

दूसरी परियोजनाओं के साथ समन्वय हेतु समुचित चरणबद्धता सुनिश्चित करने के लिए योजनाओं का स्थानीय स्तर पर विस्तृत क्रियान्वयन जरूरी हो जाता है।

स्थानीय स्तर पर आधार संरचना का नियोजन एवं व्यवस्थित अध्ययन ही राज्य की समग्र अधःसंरचना को संभव बना सकता है।

पश्च प्रदेश में आर्थिक विकास की गति देने हेतु गतिशील संगुच्छों एवं स्थानीय विकास केंद्रों के निर्माण के लिए स्थानीय स्तर पर नियोजन एवं मूल्यांकन अपेक्षित होता है।

एक जीवक्षम नियोजन इकाई के रूप में जिला एक पर्याप्त एवं वृहत इकाई होता है जिसकी पहचान लोगों से उसकी सन्निकटता से होती है। अपने जिले में लोगों को प्रशासनिक प्रक्रिया की उच्च जानकारी होती है, क्योंकि जिला प्रशासन से उनका दीर्घकालिक सम्पर्क होता है।

जिला एक अंतिम अपघटनीय इकाई है, जिसके लिए आंकड़ा संग्रहण तंत्र स्थापित किए गये हैं।

जिले में एक सुगठित एवं एकरूप प्रशासनिक पदानुक्रम होता है, जिसके शीर्ष स्तर पर जिलाधिकारी होता है। जिला स्तर पर कृषि, सहकारिता, स्थानीय प्रशासन, स्वास्थ्य, शिक्षा, सामाजिक कल्याण एवं सार्वजनिक कार्य में जुड़े भाग मौजूद रहते हैं।

पंचायती संस्याओं का संगठन तथा संसदीय व विधानसभा क्षेत्रों का सीमांकन भी व्यापकतः जिले की सीमाओं के आसपास केन्द्रित रहता है।

जिला स्तर पर स्थानीय राजनीतिक नेतृत्व मौजूद होता है, जो जनसंख्या के विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व करता है। साथ ही, स्थानीय दबाव समूहों का प्रबंधन भी जिलास्तर पर आसान हो जाता है।

जिलास्तरीय नियोजन एक क्षेत्र विशेष में तथा लोगों व संस्थाओं द्वारा किये जाने वाले विकासात्मक प्रयासों एवं पहल कदमों के प्रभाव के स्पष्ट विकास क्रम को प्रोत्साहित करता है।

स्थानीय नियोजन के उद्देश्य:

  1. संसाधनों एवं क्षमताओं का अधिकतम उपयोग।
  2. विकास के लाभों में गरीबों की उचित भागीदारी सुनिश्चित करना तथा एक अधिक आत्मनिर्भर स्वामित्व संरचना के विकास में तेजी लाना।
  3. लोगों की मूलभूत जरूरतों की पूर्ति करना। 4. मौजूदा संगठनों एवं संस्थाओं का पुनर्अभिमुखीकरण करना।
  4. लोगों का उपयुक्त संगठन तैयार करना।
  5. सामाजिक व आर्थिक अधःसंरचना का विस्तार एवं सुदृढ़ीकरण।
  6. रोजगार की अवधि एवं उत्पादकता में वृद्धि लाना।
  7. विकास के लिए क्षमता एवं कौशल का उन्नयन करना।
  8. विकास के लिए क्षमता एवम कौशल का उन्नयन करना।
  9. सामाजिक कल्याण

पंचायती राज और विकेन्द्रित योजना

भारत में ब्रिटिश शासन के प्रारंभिक दिनों से ही पंचायतों को स्थानीय प्रशासन की इकाई के रूप में स्वीकार किया गया। भारत में राष्ट्रीय स्तर पर स्वायत्तता की मांग से ध्यान हटाने के लिए इस व्यवस्था को आरंभ किया गया था। ग्रामीण क्षेत्रों में स्व-प्रशासन की शक्ति पंचायतों को और नगरीय क्षेत्रों में नगरपालिकाओं को विभिन्न कानूनों के अंतर्गत दी गयी। इनमें सर्वप्रथम 1985 का बंगाल लोकल सेल्फ गवर्नमेंट एक्ट था। भारत सरकार अधिनियम, 1935 ने प्रांतीय विधायिकाओं को स्थानीय सरकारी संस्थाओं से संबंधित विधेयकों की क्रियान्वित करने की शक्ति प्रदान की। इसी संदर्भ में बहुत-सी प्रांतीय सरकारों ने विधेयक पारित किये। यद्यपि स्वतंत्रता के बाद राष्ट्रीय नेतृत्व इस संबंध में संतुष्ट नहीं था अतः संविधान के अनुच्छेद 40 के अंतर्गत यह स्पष्ट किया गया कि- ग्राम पंचायतों को संगठित करने और स्व-प्रशासन की इकाई के रूप में कार्य करने के लिए आवश्यक सत्ता और शक्ति प्रदान करने के लिए राज्यों को कदम उठाने होंगे।

भारत में सामुदायिक विकास कार्यक्रम का आरम्भ 1952 में हुआ था। फलस्वरूप, आम जनता इस कार्यक्रम से प्रत्यक्ष रूप में जुड़ नहीं पाई। इसी समस्या के निदान के लिए बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में 1957 में एक समिति गठित की गई और इस समिति ने अपनी रिपोर्ट 1958 में प्रस्तुत की। इस समिति ने लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण के सिद्धांत पर आधारित त्रिस्तरीय स्वरूप वाली पंचायती राज व्यवस्था की वकालत की। उन्होंने सुझाव दिया कि त्रिस्तरीय व्यवस्था इस प्रकार होगी- ग्राम पंचायत गांव स्तर पर, पंचायत समिति प्रखंड स्तर पर और जिला परिषद जिला स्तर पर। दूसरे शब्दों में, परिवारों के समूह पंचायत, पंचायतों के समूह प्रखंड तथा प्रखंडों के समूह जिला परिषद की स्थापना करते हैं। अंततः राष्ट्रीय विकास परिषद ने बलवंत राय मेहता समिति की सिफारिशों को 12 जनवरी, 1958 को अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी।

इस समिति ने, सत्ता के विकेंद्रीकरण पर जोर दिया जिससे स्थानीय शासन में निचले स्तर के लागों में उत्तरदायित्व की भावना का विकास हो सके और जिसका परिणाम सामुदायिक विकास की सफलता होगी। समिति ने राज्य की महत्वपूर्ण भूमिका पर भी जोर दिया और वित्तीय संकट, जो स्थानीय संस्थाओं को स्थायी संकट में डाले रहता है, का निवारण राज्य द्वारा ही संभव है। बलवंत राय मेहता समिति की प्रजातांत्रिक विकेंद्रीकरण की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए सर्वप्रथम आंध्र प्रदेश में प्रयोग के विचार से अगस्त, 1958 में कुछ भागों में लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण को लागू किया गया। इसकी सफलता के फलस्वरूप 2 अक्टूबर, 1959 को स्वयं प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने राजस्थान के नागौर जिले में प्रजातात्रिक विकेंद्रीकरण की योजना का सर्वप्रथम औपचारिक शुभारंभ किया।

उसके बाद अन्य राज्यों ने भी पंचायती राज व्यवस्था को लागू किया। परंतु इस प्रयास को भी उतनी सफलता नहीं मिली जितनी आशा की गई थी। इसके कारण हैं- पंचायती राज संस्थाओं में धन की कमी होना, जिसके लिए वह पूरी तरह राज्य सरकारों पर निर्भर थी। इस संकट ने पूरे प्रयास को असफल बना दिया। दूसरा कारण यह था कि पंचायती राज संस्थाओं के सदस्यों के बीच कार्यों को लेकर बड़ी भिन्नता थी और एक-दूसरे को दोषारोपण करना आम बात बन गई। अतः इससे भी पूरी धारणा को आघात पहुंचा। संस्थाओं के वरिष्ठ तथा कनिष्ठ व्यक्तियों के बीच भी आंतरिक मतभेद बने रहते थे। तीसरा महत्वपूर्ण कारण था कि समाज के उच्च वर्ग, यथा- जमींदारों, उच्च जाति के लोगों तथा समाज के सम्पन्न व्यक्तियों के कब्जे में आकर पंचायती राज व्यवस्था मृतप्राय हो गई। परिणाम यह हुआ कि आम जनता ने ऐसी संस्थाओं से अपना मुंह मोड़ लिया और पूरी व्यवस्था की सफलता संदिग्ध स्थिति में आ गई। चौथा कारण था कि गांवों में निरक्षरों की भरमार तथा राजनीतिक चेतना के अभाव ने भी इन संस्थाओं के स्वस्थ कार्यकलाप पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया।

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उपरोक्त प्रयासों की असफलता के बाद पंचायती राज संस्थाओं पर विचार करने एवं पंचायती राज को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए 1977 में अशोक मेहता समिति गठित की गई। इस समिति ने 1978 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी। इस समिति ने पंचायती राज को द्विस्तरीय बनाने का सुझाव दिया- पहला, निचले स्तर पर-मंडल पंचायत, तथा; दूसरा, जिला-स्तर पर-जिला परिषद। परंतु, अशोक मेहता समिति की सिफारिशों को देश की राजनीतिक अस्थिरता के कारण लागू नहीं किया जा सका।

ग्रामीण विकास मंत्रालय ने एम.एल. सिंघवी की अध्यक्षता में 1986 में एक समिति का गठन किया। इसका उद्देश्य पंचायती राज व्यवस्था की जांच करना था। इस समिति ने ग्राम सभा को पुनर्जीवित करने तथा पंचायती राज के नियमित चुनाव कराने पर बल दिया। इस समिति ने पंचायती राज को संवैधानिक दर्जा देने की भी सिफारिश की।

संविधान के अनुच्छेद 40 के रूप में एक निदेश समाविष्ट किया गया- राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम उठाएगा और उनकी ऐसी शक्तियां और प्राधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक हों।

लेकिन अनुच्छेद 40 में इस निर्देश के होते हुए भी पूरे देश में इस बात पर ध्यान नहीं दिया गया कि प्रतिनिधिक लोकतंत्र की इकाई के रूप में इन स्थानीय इकाइयों के लिए निर्वाचन कराए जाएं। इस दृष्टि से पंचायत को अधिक सुचारू रूप से चलाने के लिए संविधान के 73वें संशोधन द्वारा पंचायती राज संस्थाओं को साविधानिक मान्यता प्रदान की गई है। संविधान में नया अध्याय 9 जोड़ा गया है। अध्याय 9 द्वारा संविधान में 16 अनुच्छेद और एक अनुसूची-ग्यारहवीं अनुसूची, जोड़ी गयी है। 25 अप्रैल, 1993 से 73वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1993 लागू किया गया है। इसकी प्रमुख विशेषताएं हैं-

तीन सोपान प्रणाली: संविधान के भाग 9 के अंतर्गत अनुच्छेद-243(ख) के द्वारा त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था का प्रावधान किया गया है। प्रत्येक राज्य में ग्राम स्तर, मध्यवर्ती स्तर एवं जिला स्तर पर (क्रमशः ग्राम पंचायत, पंचायत समिति एवं जिला परिषद) पंचायती राज संस्थाओं का गठन किया जाएगा, किंतु, 20 लाख से कम जनसंख्या वाले राज्यों में मध्यवर्ती स्तर पर पंचायतों का गठन करना आवश्यक नहीं होगा।

राज्य विधानमण्डलों की विधि द्वारा पंचायतों की संरचना के लिए उपबंध करने की शक्ति प्रदान की गई है, परन्तु किसी भी स्तर पर पंचायत के प्रादेशिक क्षेत्र की जनसंख्या और ऐसी पंचायत में निर्वाचन द्वारा भरे जाने वाले स्थानों की संख्या के बीच अनुपात समस्त राज्य में यथासंभव एक ही होगा। पंचायतों के सभी स्थान पंचायत राज्य क्षेत्र के प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा चुने गए व्यक्तियों से भरे जाएंगे। इस प्रयोजन के लिए प्रत्येक पंचायत क्षेत्र को ऐसी रीति से निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजित किया जायेगा कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र की जनसंख्या और उसको आवंटित स्थानों की संख्या के बीच अनुपात समस्त पंचायत क्षेत्र में यथासाध्य एक ही हो। प्रत्येक पंचायत का अध्यक्ष राज्य द्वारा पारित विधि के अनुसार निर्वाचित होगा। इस विधि में यह बताया जाएगा कि ग्राम पंचायत और अंतर्वर्ती पंचायत के अध्यक्षों का जिला पंचायत में प्रतिनिधित्व किस प्रकार का होगा। इस विधि में संघ और राज्य के विधानमण्डलों के सदस्यों के सम्मिलित होने के बारे में उपबंध होगा। किंतु, यह ग्राम स्तर से ऊपर के लिए ही होगा।

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अनुच्छेद 243(घ) के अंतर्गत अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है। आरक्षण उनकी जनसंख्या के अनुपात में होगा। उदाहरण के लिए यदि अनुसूचित जातियों की जनसंख्या 30 प्रतिशत और अनुसूचित जनजातियों की 21 प्रतिशत है तो उनके लिए क्रमशः 30 प्रतिशत और 21 प्रतिशत स्थान आरक्षित होंगे। इस प्रकार आरक्षित स्थानों में से 1/3 स्थान अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों की महिलाओं के लिए आरक्षित होगे। प्रत्येक पंचायत में प्रत्यक्ष निर्वाचन से भरे जाने वाले कुल स्थानों में से 1/3 स्थान महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे।

राज्य विधि द्वारा ग्राम और अन्य स्तरों पर पंचायत के अध्यक्ष के पदों के लिए आरक्षण कर सकेगा। अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए किए गए आरक्षण तब तक प्रवृत्त रहेंगे जब तक अनुच्छेद 334 में विनिर्दिष्ट अवधि समाप्त नहीं हो जाती। राज्य विधि द्वारा किसी भी स्तर की पंचायत में नागरिकों के पिछड़े वर्गों के पक्ष में स्थानों का आरक्षण कर सकेगा।

पंचायती राज संस्थाओं का कार्यकाल 5 वर्ष होगा। किसी पंचायत के गठन के लिए निर्वाचन 5 वर्ष की अवधि के पूर्व और विघटन की तिथि से 6 माह की अवधि के अवसान से पूर्व करा लिया जायेगा।

अनुच्छेद 243 (च) में यह उपबंध है कि वे सभी व्यक्ति जो राज्य विधानमण्डल के लिए निर्वाचित होने की अर्हता रखते हैं पंचायत का सदस्य होने के लिए अर्ह होंगे। केवल एक अंतर है 21 वर्ष की आयु का व्यक्ति भी सदस्य बनने के लिए अर्ह होगा। यदि यह प्रश्न उपस्थित होता है कि कोई सदस्य निरर्हता से ग्रस्त हो गया है या नहीं तो यह प्रश्न ऐसे प्राधिकारी को विनिर्दिष्ट किया जाएगा जो राज्य विधानमण्डल विधि द्वारा उपबंधित करे।

राज्य का राज्यपाल 73वें संशोधन प्रारम्भ से एक वर्ष के भीतर और उसके बाद प्रत्येक 5 वर्ष के अवसान पर पंचायतों की वितीय स्थिति का पुनर्निरीक्षण करने के लिए एक वित्त आयोग का गठन करेगा। वित्त आयोग निम्नलिखित विषय में राज्यपाल को अपनी सिफारिश करेगा-

  1. ऐसे करों, शुल्कों, पथ करों और फीसों को दर्शाना जो पंचायतों को प्रदान की जा सकें,
  2. राज्य की संचित निधि में पंचायतों के लिए सहायता अनुदान,
  3. पंचायतों की वितीय स्थिति के सुधार के लिए उपाय बताना।

अनुच्छेद 243ट में पंचायतों के लिए राज्य निर्वाचन आयोग के गठन का उपबंध है जिसमें एक राज्य निर्वाचन आयुक्त होगा, जिसकी नियुक्ति राज्यपाल करेगा। निर्वाचक नामावली तैयार कराने का और पंचायतों के निर्वाचनों के संचालन का अधीक्षण निदेशन और नियंत्रण इस राज्य निर्वाचन आयोग में निहित होगा। आयोग स्वतंत्र बना रहे यह सुनिश्चित करने के लिए यह अधिकथित है कि राज्य निर्वाचन आयुक्त को उन्हीं आधारों पर और उसी प्रक्रिया से हटाया जा सकता है जिस प्रकार उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को हटाया जा सकता है।

अनुच्छेद 329 में यह कहा गया है कि निर्वाचन की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाने पर न्यायालय उसमे हस्तक्षेप नहीं कर सकते हैं। उसी प्रकार न्यायालयों को इस बात की अधिकारिता नहीं होगी कि वे अनुच्छेद 243ट के अधीन निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन या स्थानों के आवंटन से संबंधित किसी विधि की वैधानिकता की परीक्षा करें। पंचायत का निर्वाचन, निर्वाचन-अर्जी पर ही प्रश्नगत किया जा सकेगा जो ऐसे प्राधिकारी को और ऐसी रीति से प्रस्तुत की जाएगी जो राज्य विधानमंडल द्वारा बनाई गई विधि द्वारा या उसके अधीन विहित किया जाए।

11वीं अनुसूची में 29 विषय हैं जिन पर पंचायतें विधि बनाकर उन कार्यों को कर सकेंगी। ये हैं- कृषि तथा कृषि में विस्तारः भू-सुधार, चकबंदी एवं भू-संरक्षण (मृदा-संरक्षण); लघु सिंचाई, जल-प्रबंधन और जलाच्छान विकास, पशुपालन, कुक्कुटपालन एवं दुग्ध उद्योग; लघु वन उत्पाद; सामाजिक वन उद्योग तथा फार्म वनोद्योग, मत्स्यपालन उद्योग, खाद्य प्रसंस्करण उद्योग, लघु-उद्योग, खादी-ग्रामोद्योग; ग्रामीण विकास, ईंधन और पेयजल, ग्रामीण सड़कें, पुल, जलमार्ग तथा यातायात के अन्य साधन, ग्राम विद्युतीकरण एवं वियुत वितरण, गैर-पारम्परिक ऊर्जा-स्रोत, गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम, प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा; तकनीकी शिक्षा एवं व्यावसायिक शिक्षा, वयस्क शिक्षा एवं अनौपचारिक शिक्षा; पुस्तकालय, सांस्कृतिक कार्यकलाप; बाजार, हाट एवं मेला; स्वास्थ्य और सफाई, परिवार कल्याण, बाल विकास और महिला विकास, समाज कल्याण, पिछड़े वर्गो- अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति सहित अन्य पिछड़ों का संरक्षण, जन-वितरण प्रणाली आदि।

पंचायती राज में विकेंद्रीकरण के माध्यम से विकास की गति में वृद्धि होगी, परियोजनाएं शीघ्र पूरी होगी और लोगों की विकास कार्यों में भाग लेने की चेतना में वृद्धि होगी, परन्तु इसके साथ ही कुछ संभावित त्रुटियां भी इस व्यवस्था के अंतर्गत निहित हैं, वे इस प्रकार हैं-

  1. पंचायती राज व्यवस्था के अंतर्गत जो लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया है, वह केंद्र को कमजोर बना सकती है। जाति, धर्म, वर्ण और लिंग की उपेक्षा करके यह समाज के सभी वर्गों को समानता के आधार पर सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक न्याय दिलाने की प्रक्रिया में बाधा बन सकती है।
  2. इस व्यवस्था में राष्ट्र की एकता व अखंडता के लक्ष्य की उपलब्धि के मार्ग में भी बाधाएं आ सकती हैं। एक तो पहले से ही अलगाववादी और उग्रवादी शक्तियां देश की एकता और अखंडता को तोड़ने का प्रयास कर रही हैं, ऊपर से इन व्यवस्थाओं द्वारा भी इसका हनन किया जा रहा है। इन आतंकवादी शक्तियों ने राष्ट्रवाद के सूत्रों को भी कमजोर किया है।
  3. पूर्व में हम यह अनुभव कर चुके हैं कि क्षेत्रीय राजनीतिज्ञ स्थानीय संगठनों के कार्यो में हस्तक्षेप करते हैं। वर्तमान परिस्थितियों में, इसे रोक पाना बहुत कठिन काम है। हमारे देश में मुद्रा व शक्ति का जो दुरुपयोग किया जा रहा है, उसे पंचायती राज की सफलता हेतु रोकना होगा।
  4. यह प्रक्रिया राज्य के अल्पसंख्यकों के संरक्षण में बाधा बन सकती है। यद्यपि, सभी राजनैतिक दल अल्पसंख्यकों का समर्थन प्राप्त करना चाह्त्र है, तथापि कई अन्य ऐसे कारण हैं, जो उन्हें ऐसा करने से वंचित कर सकते हैं। परिणामस्वरूप, हम देखते हैं कि प्रशासन तंत्र निम्न स्तर के लोगों को दबाए रखने की क्षमता रखता है।
  5. इन व्यवस्थाओं के तहत् अधिकारियों और निर्वाचित प्रतिनिधियों के बीच सौहार्दपूर्ण वातावरण बना पाना बहुत मुश्किल काम होगा। दोनों के बीच कटु संबंधों के कारण कई स्थानों पर विकेंद्रित संस्थाओं के निष्पादन पर व्यापक प्रभाव पड़ा है।
  6. इन आधारभूत समस्याओं के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि हमें प्रतिक्रियावादी तत्वों पर प्रतिबंध तथा समुचित वातावरण की संरचना हेतु कदम उठाना आवश्यक है। इन तथ्यों से सभी परिचित हैं कि चुनाव दो प्रकार के कार्य करते हैं- एक तो वे ग्रामीण जनता को लोकतांत्रिक संस्थाओं के कार्यों की जानकारी देते हैं तथा दूसरा वे जनता के चुनाव में भाग लेने से होने वाले विकास के महत्व की ओर उनका ध्यान आकर्षित करते हैं। प्रत्येक पांच वर्ष के बाद चुनाव आयोजित करने की संवैधानिक दायित्व से भी पंचायती राज व्यवस्था की सफलता को बल मिलेगा। नियमित चुनाव भी नेताओं को अधिक उत्तरदायी बनाने में सहायक होगा।

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राजनैतिक तथा अन्य कारणों से पंचायती राज संस्थाओं के प्रतिस्थापन पर प्रतिबंध हेतु कड़े नियम बनाने होंगे। यदि राजनीतिक दल पंचायती राज व्यवस्था को अपनी गंदी राजनीति से दूर ही रखें, तो यह राष्ट्र के हित में होगा। जाति, धर्म और मुद्रा शक्ति पर आधारित वर्तमान दांचे को उखाड़ने के लिए एक सामाजिक क्रांति का होना अति आवश्यक है। महात्मा गांधी के अनुसार, स्वतंत्रता और स्वायत्तता का मूल्य केवल राजनैतिक विकेंद्रीकरण से ही प्राप्त नहीं किया जा सकता, बल्कि आर्थिक मोर्चे पर भी विकेंद्रीकरण अनिवार्य है। तद्नुसार, राजनैतिक तथा आर्थिक विकेंद्रीकरण एक-दूसरे से सम्बद्ध हैं। इसके अतिरिक्त राजनैतिक कार्यकर्ताओं से उन्होंने सदैव सृजनात्मक कार्यो के माध्यम से लोकतंत्र की नींव तैयार करने की अपील की।

समाज कल्याण तथा आर्थिक विकास के उद्देश्य से गठित लोकतांत्रिक ढांचे से लोगों को कई प्रकार की आशाएं होती हैं। बढ़ती आशाएं प्रशासन में लोगों की भागीदारी के लिए यथार्थवादी एवं प्रभावशाली नीतियों की मांग करती हैं। राजनैतिक स्वतंत्रता तथा नीतिगत उद्घोषणाओं से उठी चुनौतियों और आकांक्षाओं के लिए अंतर्मन से किए जाने वाले प्रयासों की आवश्यकता है। लोक कार्यो का प्रबन्ध लोकतांत्रिक होना चाहिए। निम्न स्तर पर लोगों के प्रतिनिधियों से लेकर उच्च स्तर तक दायित्वों का विकेंद्रीकरण व स्थानीय स्वायत्तता आवश्यक है। यहां द्रष्टव्य है कि भारत की संस्कृति, भाषा आदि की अनेकता इस कार्य को कुछ अधिक जटिल बना देती है।

अंततः हम यह आशा करते हैं कि निचले स्तर पर जिस लोकतंत्र की व्यवस्था की गयी है वह कई राज्यों के ग्रामीण नागरिकों में जागृति लाने की प्रक्रिया में मुख्य भूमिका निभाएगी। निर्बाध गति से चल रहे इस लोकतंत्र में किसी प्रकार का कोई क्रांतिकारी परिवर्तन संभव नहीं है। किन्तु बेहतर भविष्य के लिए यह परिवर्तन का वाहक अवश्य सिद्ध हो सकता है।

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अनुच्छेद 243 (ड) के अनुसार इस भाग की कोई बात अनुच्छेद 244 (1) में निर्दिष्ट अनुसूचित क्षेत्रों और 244(2) में निर्दिष्ट जनजाति क्षेत्रों को लागू नहीं होगी।

  1. इस भाग की कोई बात, नागालैंड, मेघालय, मिजोरम एवं मणिपुर राज्य में ऐसे पर्वतीय क्षेत्र जिनके लिए तत्समय प्रवृत किसी विधि के अधीन जिला परिषदें विद्यमान हैं, को लागू नहीं होगी।
  2. इस भाग की कोई बात जिला स्तर पर पंचायतों के संबंध में पश्चिम बंगाल राज्य के दार्जिलिंग जिले के ऐसे पर्वतीय क्षेत्रों को लागू नहीं होगी जिनके लिए तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के अधीन दार्जिलिंग गोरखा पर्वतीय परिषद विद्यमान है। किसी बात कायह अर्थ नहीं लगाया जाएगा कि वह ऐसी विधि के अधीन गठित दार्जिलिंग गोरखा पर्वतीय परिषद के कृत्यों और शक्तियों पर प्रभाव डालती है।
  3. इस संविधान में किसी बात के होते हुए भी संसद, विधि द्वारा, इस भाग के उपबंधों का विस्तार खण्ड (1) में निर्दिष्ट अनुसूचित क्षेत्रों और जनजाति क्षेत्रों पर, ऐसे अपवादों और उपांतरणों के अधीन रहते हुए, कर सकेगी, जो ऐसी विधि में विनिर्दिष्ट किए जाएं और ऐसी किसी विधि को अनुच्छेद 368 के प्रयोजनों के लिए इस संविधान का संशोधन नहीं समझा जाएगा।

भारत के द्वीपीय राज्य क्षेत्रों का विकास

हम सभी जीवन के जटिल संजाल का एक अंग हैं। महासागर, वातावरण एवं भूमि के मध्य पेचीदा सम्पर्क अंतक्रिया का एक समुच्चय बनाते हैं, जो पूर्णतः उद्वाचन करते हैं। विश्व की लगभग दो-तिहाई जनसंख्या समुद्र तटीय क्षेत्रों में निवास करती है, जो कि हमारी संस्कृति एवं वैश्विक परिप्रेक्ष्य में एक एकीकृत घटक उपलब्ध कराती है। महासागर खाद्य (मछली), खनिजों रसायनों, तेल, गैस तथा ऊर्जा के प्रमुख स्रोत है। ये मौसम, जलवायु, मानसून एवं जैव-उत्पादन तथा जैव-विविधता को प्रभावित करते हैं तथा पर्यटन के लिए भी एक समुज्जवल मंच प्रदान करते हैं।

द्वीप समूह महासागरों की निजी एवं विशिष्ट संपत्ति हैं वास्तव में प्राकृतिक या वातावरणीय संकटों से लड़ने की क्षमता द्वीपों में बहुत कम होती है। उदाहरण के लिए, सुनामी आपदा के बाद अण्डमान तथा निकोबार द्वीप को देखा सकता है। द्वीपों पर सीमित मात्रा में संसाधन हैं तथा यहां अपशिष्ट तथा खतरनाक पदार्थों के निपटारे के लिए बहुत कम सुविधाएं मौजूद हैं, ये सभी द्वीपों के पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित करते हैं। ये द्वीप वृहद रूप से पेट्रोलियम-ईंधन ऊर्जा स्रोत पर निर्भर हैं।

द्वीप तथा समुदी तट पर्यटकों के मध्य आकर्षण के प्रमुख केंद्र हैं। भारतीय घरेलू पर्यटन सर्वेक्षण के अनुसार भारत में पर्यटकों के बीच प्रमुख आकर्षण समुद्री तट तया द्वीप हैं।

अण्डमान तथा निकोबार द्वीप समूह

अण्डमान तथा निकोबार द्वीप समूह कुल 572 पथरीली चट्टानों से युक्त विचित्र, बड़े एवं छोटे, बसे हुए तथा निर्जन द्वीपों का समूह है, जो बंगाल की खाड़ी के दक्षिणी-पूर्वी सागर में स्थित है। यह भारत का केंद्र शासित प्रदेश है तथा 92° से 94° पूर्वी अक्षांश से लेकर 6° उत्तर से 14° देशांतर के बीच स्थित है। यह केंद्र शासित प्रदेश प्रचुर मात्रा में समुद्री संसाधन व हरित वनस्पतियां प्रदान करता है।

अण्डमान तथा निकोबार द्वीप समूह का कुल क्षेत्रफल 8249 वर्ग किमी. (अण्डमानः 6408 वर्ग किमी. तथा निकोबार 1841 वर्ग किमी.) है। इसका मात्र 16.64 वर्ग किमी. क्षेत्र ही नगरीय क्षेत्र के रूप में चिन्हित है, जबकि 8232.36 वर्ग किमी. क्षेत्र ग्रामीण क्षेत्र है। केवल 38 द्वीपों पर मानव आवास है। आदिवासी जनसंख्या वाले क्षेत्र को जनजातीय आरक्षित क्षेत्र (34 प्रतिशत वन क्षेत्र सहित) के रूप में अधिसूचित किया गया है। इस संघीय राज्य क्षेत्र की कुल जनसंख्या लगभग 3.56 लाख है। वर्तमान में ये द्वीप समूह वन के साथ-साथ राजस्व भूमि दोनों पर अतिक्रमण की समस्या का सामना कर रहे हैं। एक स्थिर प्राथमिक क्षेत्र में न्यून औद्योगिक गतिविधियों के कारण यहां सरकारी सेवाओं के अतिरिक्त रोजगार के अवसर काफी सीमित हैं। संघशासित प्रदेश में कोई संसाधनों के सशक्तीकरण, पर्यटन विकास हेतु सम्भावनाएं तथा मत्स्य उत्पादों, चिकित्सीय पौधों, मसालों, नारियल एवं बागवानी उत्पादों के निर्यात हेतु उत्तरदायी होगी।

अण्डमान तथा निकोबार द्वीप समूह में विभिन्न स्थानों पर कृषि कार्य किए जाते हैं, जिसमें दक्षिणी अंडमान, हैवलॉक द्वीप, नियॉल (Niel) द्वीप आदि शामिल हैं। यहांप्रमुख रूप से नारियल; सुपारी, सब्जियां-टमाटर, बैंगन, करेला, कद्दू, इत्यादि फसलें उगाई जाती हैं। इन सारी फसलों के लिए कुछ आवश्यक कदम उठाकर उत्पादन इत्यादि बढ़ाने के लिए उचित रणनीति बनाने की आवश्यकता है। खायान्न उत्पादन जीवन निर्वाह स्तर तक, सब्जियां, तिलहन तथा नष्ट का उत्पादन व्यावसायिक स्तर तक किया जाना चाहिए। उपरोक्त मानदण्डों को प्राप्त करने के लिए कुछ विशेष सावधानी की आवश्यकता है, जिसमे उच्च गुणवत्ता युक्त बीज, आधुनिक उत्पादन तकनीक, सिंचाई यातायात तथा बाजार व्यवस्था सुविधा, एकीकृत कीटनाशक प्रबंधन तथा किसानों को प्रशिक्षण भी शामिल है।

अण्डमान तथा निकोबार द्वीप की पर्यावरणीय तथा पारिस्थितिकी दशा यहां बड़े पैमाने पर औद्योगिक इकाइयों की स्थापना की अनुमति नहीं देती। लघु औद्योगिक इकाइया क्रमशः पेण्ट तथा वॉर्निश (रोगन) उत्पादन, लघु आटा मिलें, मृदु एवं मादक पेय, स्टील फर्नीचर, सिले-सिलाए वस्त्र इत्यादि कार्यों से जुड़ी हुई हैं। अण्डमान तथा निकोबार द्वीप समूह में प्रस्तावित औद्योगिक विकास मत्स्यन, कृषि एवं बागवानी आधारित ताजे और संन्सधित उत्पाद, बेंत, बांस एवं सम्बंधित उद्योग तथा लघु एवं मध्यम पैमाने की हस्तशिल्प इकाइयों पर केन्द्रित रहेगा।

अण्डमान तथा निकोबार द्वीप समूह में विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र (ईईजेड) लगभग 0.6 मिलियन वर्ग किमी. है, जो भारत के कुल विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र का लगभग 30 प्रतिशत है। यह आर्थिक क्षेत्र मत्स्यपालन तथा अन्य समुद्री संसाधनों के दोहन हेतु अवसर प्रदान करता है। जलीय जीवपालन के अंतर्गत केंकड़ा तथा झींगा, ताजे पानी में झींगापालन (छोटी मछली) व मत्स्यपालन को विशेष प्रोत्साहन दिया जाता है।

राष्ट्रीय सामुद्रिक तकनीकी संस्थान (NIOT) ने अण्डमान एवं निकोबार द्वीप समूह में सामुद्रिक सजीव संसाधनों से सम्भावित औषधियों की पहचान हेतु सक्रिय अनुसंधान कार्यक्रम चलाए जाने की पहल की है। अण्डमान एवं निकोबार द्वीप समूहों के मध्य में स्थित 10° डिग्री चैनल में प्रदूषण निरीक्षण का कार्य पूर्ण हो चुका है। एनआईओटी की एक क्षेत्रीय इकाई के रूप में राजधानी पोर्ट ब्लेयर में 15 हेक्टेयर के क्षेत्र में अण्डमान-निकोबार केन्द्र हेतु सामुद्रिक विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी (ANCOST) की स्थापना की गई है।

हाल ही में, एनआईओटी द्वारा दिगलीपुर जिला परिषद के लक्ष्मीपुर गांव में एक स्व-सहायता समूह जलीय केंकड़ा उत्पादन स्व-सहायता समूह की स्थापना की गई है।

इन दीपों में पर्यटन एक प्रमुख उद्योग के रूप में विकसित है। अण्डमान में उष्णकटिबंधीय सदाबहार वर्षा वन, सिल्वर समुद्री तट, मैंग्रोव की सर्पिल संकीर्ण खाड़ियां, दुर्लभ प्रजाति की समुद्रीय वनस्पतियां, जानवर, प्रवाल इत्यादि पर्यटकों को अविस्मरणीय अनुभव प्रदान करते हैं। यहां आश्चर्यजनक रूप में मनोरंजन के लिए जल-क्रीड़ाएं, जिनमें ट्रैकिंग, आइसलैंड कैंपिंग, नेचर ट्रेल, स्कूबा डाइविंग इत्यादि शामिल हैं, पर्यटकों हेतु आयोजित की जाती हैं। अण्डमान तथा निकोबार द्वीप समुहूँ की पहचान एक पारिस्थितकी मित्र पर्यटन स्थल के रूप में की जाती है।

लक्षद्वीप समूह

संघीय राज्य क्षेत्र लक्षद्वीप को मरकतमणि या पन्ना के द्वीप के रूप में जाना जाता है। इस द्वीप-बहुल क्षेत्र में 27 (11 बसे हुए तथा 16 निर्जन प्रदेश) प्रवाल द्वीप समूह, 12 प्रवाल-दीप, 3 भितियां तथा 5 उप-निम्मज्जित किनारे शामिल हैं। 1973 में लक्काद्वीप, मिनीकॉय तथा अमीन दीवी को मिलाकर लक्षद्वीप नाम दिया गया। यह एक जिला संघीय राज्य क्षेत्र है, जिसका क्षेत्रफल 32 वर्ग किमी. है। यह द्वीप केरल तट से 220 से 440 किमी. की दूरी पर स्थित है। ये समस्त दीप अव्यस्थित रूप से समुद्र में फैले हुए हैं। लक्षद्वीप शब्द का अर्थ है-1 लाख द्वीपों का समूह। लक्ष्य का आशय एक चिन्ह अथवा उद्देश्य का चिन्ह  भी हो सकता है। यह द्वीप अफ्रीका तथा भारत के दक्षिणी-पश्चिमी मालाबार तट के बीच प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध व्यावसायिक मार्ग के रूप में चिन्हित है।

इन द्वीप समूहों का निर्माण वायु के कारण तटीय बालू के रूप में परिवर्तित प्रवाल बालू तथा तरंगों एवं धाराओं की गतिविधियों द्वारा हुआ है। लक्षद्वीप के प्रवाल-दीप अन्य प्रवाल-दीपों की भांति दो महत्वपूर्ण खनिज निक्षेपों- फॉस्फेट एवं कैल्शियम कार्बोनेट-से परिपूर्ण हैं। सम्पूर्ण द्वीप समूह पर फॉस्फेट निक्षेप पक्षियों अथवा जलमुर्गों के उत्सर्जन द्वारा निर्मित हुए हैं। लैगूनों (प्रवाल वलय से घिरी हुई समुद्र तटीय झील) में बड़ी मात्रा में लगभग शुद्ध रूप में कैल्शियम कार्बोनेट बालू पाई जाती है। लक्षद्वीप भारत के वृहद भू-भाग वाले संघ राज्य क्षेत्रों में से एक है। भारतीय अर्थव्यवस्था की दृष्टि से लक्षद्वीप का महत्व है, लेकिन सामरिक महत्व का होने के कारण इसकी सुरक्षा भी आवश्यक है। यहां कोई भी क्षेत्र वनस्पतियों या सब्जियों आदि के लिए चिन्हित क्षेत्र नहीं है। इसका कारण यहां अधिक मात्रा में पाई जाने वाली रन्ध्र युक्त मिट्टी है। यहां की महत्वपूर्ण वाणिज्यिक फसल नारियल है, जो पिटी द्वीप को छोड़कर प्रायः सभी द्वीपों पर पाये जाते हैं। लक्षद्वीप के नारियल में विश्व में सबसे अधिक मात्रा में तेल (लगभग 72 प्रतिशत) पाया जाता है। लैगूनों के नितल में समुद्री घास काफी अधिक होती है, जिसमें थैलासिया हैम्पप्रिचिया आइसोटिफोलिया सर्वाधिक सामान्य हैं, जिन्हें समुद्री कछुओं एवं सूस (डॉल्फिन की प्रकार का एक समुद्री जानवर) द्वारा खाया जाता है। मैंग्रोव वन मिनिकॉय द्वीप के दक्षिणी भाग में पाए जाते हैं। यहां की प्रवाल भितियों में प्रायः वनस्पतियों की अधिकता है, जहां मछलियों की लगभग 300 प्रजातियां पाई जाती हैं। टूना यहां की सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यावसायिक मछली है। मत्स्य उद्योग ही यहां के लोगों के आय का मुख्य स्रोत है। राष्ट्रीय सामुद्रिक तकनीकी संस्थान एनआईओटी द्वारा लक्षद्वीप के चारों ओर 12 द्वीप समूहों में 500 मी. से 1200 मी. की गहराई पर 28 मत्स्य एकत्रण उपकरण का सफलतापूर्वक डिजायन एवं विकास किया गया है। लक्षद्वीप में समुद्री मत्स्यपालन तथा समुद्री भोजन प्राप्त करने की अपार संभावनाएं विद्यमान हैं। मिनीकॉय, अगाती, सुहेली तथा बित्रा द्वीप टूना मछली के उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण दीप हैं।

2011 की जनगणना के अनुसार, लक्षद्वीप की कुल जनसंख्या 64,473 है। आर्थिक तथा सामाजिक रूप से पिछड़ेपन एवं भारत की मुख्य भूमि से दूर होने के कारण वहां की पूरी जनसंख्या को अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में रखा गया है। यहां के लोगों का मुख्य व्यवसाय मत्स्यपालन तथा नारियल की खेती है। कुक्कटपालन उद्योग भी इस समय लक्षद्वीप का उभरता हुआ उद्योग है।

द्वीप समूह में नारियल तंतु (फाइबर) को निकालना तथा निर्मित तंतु से उत्पादों का निर्माण करना यहां का प्रमुख उद्योग है। सरकारी क्षेत्र के अंतर्गत यहां सात नारियल जटा तंतु फैक्ट्रियां, पांच नारियल जटा उत्पादन एवंप्रदर्शनी केन्द्र हैं तथा नारियल जटा क्षेत्र के अंतर्गत सात तंतु इकाइयां भी कार्यरत हैं। इन उद्योगों को अधिक मात्रा में पानी या विजली की आवश्यकता नहीं होती है। तथा वे इन द्वीपों लैगूनों तथा मिट्टी को प्रदूषित भी नहीं करते। पूर्ण विकसित हस्तशिल्प उत्पादन एवं प्रशिक्षण केन्द्र तीन कर्मचारियों एवं तीन श्रमिकों की सहायता से क्षेत्र में अपने कायों का निष्पादन कर रहा है। वार्षिक तौर पर, केन्द्र में एक वर्ष के लिए दस से पंद्रह स्थानीय युवाओं को प्रशिक्षण प्रदान किया जाता है। प्रशिक्षण कार्य पूर्ण होने पर उन्हें स्व-रोजगार की स्थापना हेतु प्रोत्साहित किया जाता है।

लक्षद्वीप में पर्यटन एक महत्वपूर्ण उद्योग के रूप में विकसित हो रहा है। अगाती, बंगाराम, कालपेनी, कदमत कवारत्ती एवं मिनिकॉय यहां के महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल हैं।

सागर द्वीप

सागर द्वीप या गंगानगर विस्तार 300 वर्ग किमी. का बंगाल की खाड़ी पर महाद्वीपीय जलमग्न तट है जो पश्चिम बंगाल में कोलकाता से 150 किमी. दक्षिण में स्थित है। यह द्वीप रॉयल बंगाल टाइगर का आवास है जो एक संकटग्रस्त प्रजाति है। यहां मैंग्रोव, जलमार्ग और लघु सरिताएं हैं। यह एक हिंदू तीर्थ स्यान है।

द्वीप के विकास के लिए, सरकार ने इसे 3.3 किमी. के एक पुल के निर्माण द्वारा मुख्य भूमि से जोड़ने की योजना बनाई है। योजना द्वीप के पारितंत्र के संरक्षण की आवश्यकता के कारण बनाई गई और आर्थिक विकास के लिए इसका उपयोग विवेकपूर्ण तरीके से किया जाएगा। पर्यटन केंद्र के तौर पर इस द्वीप में बेहद संभावनाएं हैं। इसका महत्व धार्मिक-सांस्कृतिक और प्राकृतिक सुंदरता के कारण है। इस द्वीप में मात्स्यिकी विकास की भी क्षमता है। इस उद्देश्य के लिए इस क्षेत्र के लिए क्षेत्रीय नियोजन में विशेष रणनीतियां अपनानी होगी।

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