MORYA EMPIRE (मौर्य राजवंश)-:

                   चन्द्रगुप्त मौर्य (323-298 ई. पू.) मौर्य राजवंश की स्थापना चन्द्रगुप्त मौर्य ने की...

                   चन्द्रगुप्त मौर्य (323-298 ई. पू.)

मौर्य राजवंश की स्थापना चन्द्रगुप्त मौर्य ने की थी। चन्द्रगुप्त ने कौटिल्य नाम से विदित चाणक्य की सहायता से नंद राजवंश को नष्ट कर दिया और मौर्यवंश का शासन स्थापित किया। ब्राह्मण परंपरा के अनुसार चन्द्रगुप्त की माता शूद्र जाति की मुरा नामक स्त्री थी, जो नंदों के निवास में रहती थी। MORYA EMPIRE

बौद्ध परंपरा से ज्ञात होता है कि नेपाल की तराई से लगे गोरखपुर में मौर्य नामक क्षत्रिय कुल के लोग रहते थे। संभव है।कि चन्द्रगुप्त इसी वंश का था। सर्वप्रथम सर विलियम जोंस ने सेन्ड्रोकोटस की पहचान चन्द्रगुप्त मौर्य से की थी।स्ट्रेबो के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य का एक उपनाम पालिब्रोथम (पाटलिपुत्रक) था। मुद्राराक्षस नाटक की रचना विशाखदत्त नेनौवीं सदी में की। चन्द्रगुप्त मौर्य ने व्यापक विजय प्राप्त कर प्रथम अखिल भारतीय साम्राज्य की स्थापना की थी।

जस्टिन नामक यूनानी लेखक के अनुसार, चंद्रगुप्त ने अपनी6,00,000 की फौज से लगभग सम्पूर्ण भारत को विजित किया। चन्द्रगुप्त ने पश्चिमोत्तर भारत को सेल्यूकस की गुलामी से मुक्त किया और बाद में दोनों शासकों के मध्य समझौता हो गया और चन्द्रगुप्त से 500 हाथी लेकर उसे पूर्वी अफगानिस्तान, बलूचिस्तान और सिंधु के पश्चिम का क्षेत्र दे दिया।इस संधि के फलस्वरूप सेल्यूकस ने अपनी पुत्री हेलेना का विवाह चन्द्रगुप्त मौर्य के साथ कर दिया। इस वैवाहिक सम्बंध काविस्तृत उल्लेख केवल एप्पियानस ने किया है। चन्द्रगुप्त ने विशाल साम्राज्य स्थापित कर लिया, जिसमें सम्पूर्णबिहार, उड़ीसा (ओडिशा) एवं बंगाल के बड़े भागों के अतिरिक्त, पश्चिमी व उत्तर-पश्चिमी भारत और दक्कन भी शामिल थे।

प्रशासनिक संगठन

मगध साम्राज्य के उत्कर्ष की जो परम्परा हर्यक वंशीय बिम्बिसार के समय में आरम्भ हुई थी, चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में वह चरमोत्कर्ष पर पहुँच गई। मौर्यों ने बहुत ही विस्तृत प्रशासन-तंत्र स्थापित किया। इसकी झलक हमें मेगास्थनीज की पुस्तक इंडिका और कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मिलती है। चन्द्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य का विस्तार उत्तर-पश्चिम में हिंदुकुश से लेकर दक्षिण में उत्तरी कर्नाटक तक तथा पूर्व में मगध से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तक था। मेगास्थनीज यूनान का राजदूत था, जिसे सेल्यूकस ने चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में भेजा था।

इसने इण्डिका नामक पुस्तक की रचना की। इस पुस्तक में केवल पाटलिपुत्र का ही नहीं अपितु सम्पूर्ण मौर्य साम्राज्य के शासन का विवरण लिखा है। इण्डिका में मौर्य काल के प्रशासन, समाज और अर्थव्यवस्था पर महत्वपूर्ण प्रकाश डाला गया है। मौर्य साम्राज्य अनेक प्रांतों में विभक्त था तथा प्रांत छोटी-छोटी इकाइयों में विभक्त थे। प्रान्तों को जिला या निकायों में विभक्त किया गया था। जिला प्रशासन का प्रधान स्थानिक होता था। वह समाहर्ता के नियंत्रण में कार्य करता था।

एक स्थानीय में 800 ग्राम रहते थे। स्थानीय से छोटी प्रशासनिक इकाई द्रोणमुख थी। इसमें 400 गाँवों को सम्मिलित किया गया था। 200 ग्रामों का समूह खावटिक कहलाता था तथा 100 गाँवों को मिलाकर संग्रहण बनता था। शासन की सबसे छोटी इकाई गाँत भी। इसका प्रशासन ग्रामिक के द्वारा होता था।

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पाटलिपुत्र, कौशाम्बी, उज्जयिनी और तक्षशिला प्रमुख नगर थे। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में विस्तृत नौकरशाही का उल्लेख किया गया है। राज्य के विभिन्न विभागों की देखभाल के लिए अनेक पदाधिकारियों को नियुक्त किया गया था। सबसे ऊँचे अधिकारियों को तीर्थ या महामात्र अथवा आमात्य कहा गया, जिनकी संख्या 18 थी।मौर्य-नौकरशाही एक पिरामिड (Pyramid) के समान थी। सबसे शीर्ष पर मंत्री और उनके नीचे अन्य कर्मचारी थे।

  • मौर्यों की राजधानी पाटलिपुत्र का प्रशासन छः समितियाँ करती थीं। प्रत्येक समिति में पाँच-पाँच सदस्य होते थेचन्द्रगुप्त के प्रशासन की सबसे बड़ी विशेषता थी -विशाल एवं स्थायी सेना रखना। प्रशासन की ओर से सेना की देखभाल का उचित प्रबंध किया गया। कौटिल्य व मेगास्थनीज, दोनों ही सैन्य-व्यवस्था का उल्लेख करते हैं।
  • कौटिल्य के अनुसार सेना चतुरंगिणी (पैदल, हाथी, घोड़े और रथ) थी। सीमांतों की रक्षा के लिए मजबूत दुर्ग बनाए गए थे, जिसकी सुरक्षा दुर्गपाल और अंतपाल करते थे।
  • प्लिनी नामक यूनानी लेखक के अनुसार चन्द्रगुप्त की सेना में 6,00,000 पैदल सिपाही, 30,000 घुड़सवार और 9,000 हाथी थे। मेगास्थनीज के अनुसार, सैनिक प्रशासन के लिए तीस अधिकारियों | की एक परिषद् थी, जो पाँच-पाँच सदस्यों की छः समितियों में विभक्त थी।

    बिन्दुसार (298-273 ई. पू. )MORYA EMPIRE

बिन्दुसार (298-273 ई. पू. )  विश्वसार, चन्द्रगुप्त मौर्य का पुत्र था। यूनानियों ने इसे अमित्रकेस या अमित्रघात कहा है, जिसका अर्थ शत्रुओं का नाश करने वाला है।

बिन्दुसार आजीवक सम्प्रदाय को मानता था। बिन्दुसार के दरबार में पिंगलवास नामक एक भविष्यवक्ता था, जो आजीवक सम्प्रदाय से सम्बद्ध था। बिन्दुसार की सभा में 500 सदस्यों वाली एक मंत्रिपरिषद् थी। जिसका प्रधान खल्लाटक था।बिन्दुसार ने मैत्रीपूर्ण पत्र-व्यवहार में सीरिया के शासक एंटियोकस से तीन वस्तुओं ( 1, मीठी मदिरा 2. सूखी अंजीर, 3. एक सोफिस्ट ( दार्शनिक)) की माँग की थी। दार्शनिक को छोड़कर अन्य वस्तुओं को एंटियोकस ने बिन्दुसार के पास भेजा। बिन्दुसार ने सुदूरवर्ती दक्षिण भारतीय क्षेत्रों को जीत कर मगध साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया था। सीरिया के शासक एंटीयोकस प्रथम ने डाइमेकस नामक व्यक्ति को बिन्दुसार के राजदरबार में राजदूत के रूप में भेजा था । मिस्र के शासक फिलाडेल्फस टॉलेमी द्वितीय ने डायोनिसस नामक राजदूत को बिन्दुसार के राजदरबार में भेजा था। बिन्दुसार की मृत्यु 273 ई. पू. के लगभग हुई थी।

           अशोक (273-232 ई. पू.)MORYA EMPIRE

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अशोक मौर्य शासकों में सबसे महान शासक हुआ। बौद्ध परम्परा के अनुसार, वह अपने आरम्भिक जीवन में अत्यंत क्रूर ।था तथा अपने निन्यानवे भाइयों की हत्या कर राजगद्दी पर बैठा।। पत्नी देवी (विदिशा के श्रेष्ठी की पुत्री) सिंहली अनुश्रुति केअनुसार अशोक की प्रथम पत्नी थी। इसी से महेन्द्र व संघमित्रा का जन्म हुआ था। बौद्ध ग्रन्थ दिव्यावदान में अशोक की एक अन्य पत्नी तिष्यरक्षिता का उल्लेख है।

1अशोक के प्रयाग स्थित शिलालेख (इलाहाबाद अभिलेख या रानी का अभिलेख, जिसमें समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशस्ति तथामुगल सम्राट जहाँगीर का लेख भी उत्कीर्ण है) में अशोक की एकमात्र रानी कारूवाकी का उल्लेख है।राज्याभिषेक के पूर्व अशोक उज्जैन (अवन्ति) व तक्षशिला का प्रान्तीय शासक था। अशोक शासित देशों में शिलाओं पर संदेश खुदवाने वाला प्रथम भारतीय शासक था।

अशोक ने 273 ई. पू. में ही सिंहासन प्राप्त कर लिया था, परन्तु चार वर्ष तक गृहयुद्ध में रहने के कारण अशोक का वास्तविक राज्याभिषेक 269 ई.पू. में हुआ।  अशोक के अभिलेख  अशोक प्रथम भारतीय सम्राट हुआ, जिसने अपने अभिलेखों के । सहायता से सीधे अपनी प्रजा को सम्बोधित किया। शिलालेख पहाड़ों को काटकर शिलाखण्डी को समतल कर उस पर उत्कीर्ण किया जाता था।

गुर्जरा, मास्की, नेट्टूर, उदगोलम अभिलेख पर अशोक का वास्तविक नाम मिलता है। अन्य सभी अभिलेखों में केवल देवानांप्रिय (देवों का प्यारा) उसकी उपाधि के रूप में मिलता है।

                                         

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