UPSC NOTES:परिचय
भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन (Nationalist Movement) (19वीं-20वीं सदी) न केवल औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध एक राजनीतिक संघर्ष था, बल्कि भारत की पहचान और विरासत को पुनः प्राप्त करने के उद्देश्य से एक सांस्कृतिक पुनर्जागरण भी था।
सांस्कृतिक पुनरुत्थान ने दोहरी भूमिका निभाई- इसने राजनीतिक प्रतिरोध के नैतिक और भावनात्मक आधार को मज़बूत किया और बदले में राजनीतिक प्रतिरोध ने सांस्कृतिक पुनरुत्थान को गति दी।
भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन में सांस्कृतिक पुनरुत्थान और राजनीतिक प्रतिरोध के बीच जटिल अंतःक्रियाएं भारतीय समाज, संस्कृति और राजनीति की परतों को गहराई से प्रभावित करती हैं। इन दोनों धाराओं का आपस में घनिष्ठ संबंध रहा, जिसमें सांस्कृतिक चेतना ने राजनीतिक प्रतिरोध को आधार प्रदान किया और राजनीतिक आंदोलन ने सांस्कृतिक पुनरुत्थान को गति दी।
1. सांस्कृतिक पुनरुत्थान का स्वरूप (Nature of cultural revival)
सांस्कृतिक पुनरुत्थान का उद्देश्य भारत की प्राचीन सभ्यता, धर्म, दर्शन और संस्कृति को पुनर्जीवित करना था, जो औपनिवेशिक शासन के कारण हाशिये पर चला गया था। यह पुनरुत्थान भारत की गौरवशाली विरासत को उजागर करने और आत्मसम्मान को पुनः स्थापित करने का प्रयास था।
- राजा राममोहन रॉय: उन्होंने ब्रह्म समाज के माध्यम से सामाजिक और धार्मिक सुधारों की शुरुआत की।
- स्वामी विवेकानंद: उन्होंने भारतीय धर्म और संस्कृति को वैश्विक मंच पर प्रस्तुत किया और युवाओं को आत्मनिर्भरता और राष्ट्रीय गर्व का संदेश दिया।
- आर्य समाज और दयानंद सरस्वती: इन्होंने वैदिक परंपराओं को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया।
- संस्कृति के माध्यम से एकता: रामायण, महाभारत, गीता, और भारतीय लोक साहित्य के अध्ययन ने भारतीय समाज में सांस्कृतिक एकता को बढ़ावा दिया।
2. राजनीतिक प्रतिरोध और इसकी सांस्कृतिक जड़ें (Political resistance and its cultural roots)
औपनिवेशिक शासन (Colonial rule) के खिलाफ संघर्ष में भारतीय संस्कृति ने राजनीतिक चेतना को प्रेरित किया। स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं ने भारतीय पहचान को जागृत करने के लिए सांस्कृतिक प्रतीकों का उपयोग किया।
- स्वदेशी आंदोलन: इस आंदोलन ने भारतीय वस्त्र, हस्तशिल्प, और अन्य उत्पादों के उपयोग को प्रोत्साहित किया, जो स्वाभिमान और आत्मनिर्भरता का प्रतीक बने।
- गांधीजी का योगदान: महात्मा गांधी ने भारतीय संस्कृति के प्रतीकों (खादी, रामराज्य, और सत्याग्रह) का उपयोग स्वतंत्रता संग्राम के लिए किया।
- राष्ट्रीय गीत और साहित्य: बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय का वंदे मातरम् और रवींद्रनाथ ठाकुर की रचनाएं भारतीय जनता में सांस्कृतिक गर्व और राजनीतिक चेतना का संचार करती थीं।
3. सांस्कृतिक पुनरुत्थान और राजनीतिक प्रतिरोध के बीच जटिलता (The complexity between cultural revival and political resistance)
- सामाजिक सुधार और राजनीतिक चेतना: जातिवाद, बाल विवाह, और सती प्रथा जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ सुधार आंदोलनों ने एक ओर सामाजिक सुधारों को बढ़ावा दिया, तो दूसरी ओर यह अंग्रेजों के “सभ्यकारी मिशन” को चुनौती देता था।
- धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान का राजनीतिक उपयोग: भारत की सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता ने राष्ट्रवाद के लिए एक आधार प्रदान किया, लेकिन इसके भीतर समुदायों के बीच टकराव की संभावनाएं भी थीं।
- सांस्कृतिक एकता बनाम क्षेत्रीय विविधता: स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय संस्कृति को एकीकृत मंच पर प्रस्तुत करने की कोशिश हुई, लेकिन विभिन्न क्षेत्रों की सांस्कृतिक विशिष्टताओं को संतुलित करना चुनौतीपूर्ण था।
4.राजनीतिक प्रतिरोध की नींव के रूप में सांस्कृतिक पुनरुद्धार
- भारत की सांस्कृतिक विरासत की पुनः खोज:
- राजा राममोहन राय और तत्पश्चात् स्वामी विवेकानंद जैसे विद्वानों ने भारतीय दर्शन, संस्कृत ग्रंथों एवं प्राचीन उपलब्धियों के गौरव को पुनर्जीवित किया तथा राष्ट्रीय गौरव को बढ़ावा दिया।
- उदाहरण: दयानंद सरस्वती (आर्य समाज) जैसे नेताओं ने वैदिक परंपराओं की ओर लौटने का आह्वान किया तथा इसे औपनिवेशिक सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की अस्वीकृति के रूप में प्रस्तुत किया।
5. अंतिम निष्कर्ष(final conclusion)
सांस्कृतिक पुनरुत्थान और राजनीतिक प्रतिरोध ने भारतीय राष्ट्रवाद को गहराई और दिशा प्रदान की। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन सिर्फ राजनीतिक मुक्ति का प्रयास नहीं था, बल्कि यह सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक पुनरुत्थान का संगठित प्रयास भी था। इन दोनों धाराओं की अंतःक्रिया ने भारत को औपनिवेशिक शासन से मुक्त कराने और एक सशक्त राष्ट्रीय पहचान स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
संदर्भ
- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के सांस्कृतिक आयाम
- स्वतंत्रता संग्राम में साहित्य और कला की भूमिका
- समाज सुधार आंदोलनों और राजनीतिक आंदोलन का पारस्परिक प्रभाव