फसली प्रारूप का अर्थ एक समय विशेष पर विभिन्न फसलों के अधीन आनुपातिक क्षेत्र से है। किसी भी क्षेत्र का फसल प्रारूप ऐतिहासिक विकास की एक लंबी प्रक्रिया का परिणाम है।
भारत में फसली प्रारूप विविधता का प्रदर्शन करता है जैसाकि यहां पर स्थलाकृतिक, जलवायविक एवं मृदा वैविध्य है।
खाद्य फसलों के तहत् 1990 के बाद चावल की फसल ने इसके अंतर्गत आने वाले कुल कृषि क्षेत्र में कमी को दर्शाया, जबकि चावल की फसल ने वृद्धि दर्ज की; मोटे अनाज ने भी वृद्धि दर्शायी। कपास, गन्ना और तिलहन ने इसके अंतर्गत आने वाले कृषि क्षेत्र में स्वतंत्रता के बाद के वर्षों में तेजी दर्ज की।
पूर्वी भारत और तटीय निम्न भूमि में, विशेष रूप से दक्षिणी गोवा के पश्चिमी तट में, चावल एक प्रमुख फसल है। पूर्वी भारत में चाय में ज्वार, बाजरा, दालें, कपास, मूंगफली प्रधान फसलें हैं; जबकि गेहूं की फसल उत्तर प्रदेश, पंजाब और हरियाणा के कछारी मैदानों में मुख्यतः उगायी जाती है।
हालांकि भारत में तम्बाकू, आलू, फलों एवं सब्जियों के तहत् एक तात्विक क्षेत्र आता है, लेकिन कुल फसल क्षेत्र में इनका हिस्सा पारस्परिक रूप से कम है।
फसल प्रतिरूप को प्रभावित करने वाले कारक
किसी विशेष क्षेत्र में विशेष फसल का चुनाव भौतिक और अभौतिक जैसे दो बड़े कारकों का परिणाम होता है।
भौतिक कारक
इनके अंतर्गत जलवायु, वर्षा, मिट्टी, तापमान इत्यादि कारक आते हैं। भौतिक पर्यावरण कृषि गतिविधियों के वितरण पर सीमाएं आरोपित करता है। जलवायु, मिट्टी, वर्षा तथा तापमान मूलभूत भौतिक कारक हैं जो फसल प्रारूप को प्रभावित करते हैं। इनकी (भौतिक कारक) कृषि संरचना में व्यक्तिगत या सामूहिक भूमिका होती है तथा इनके स्थानिक बदलावों को कभी भी कम नहीं आका जा सकता।
1. जलवायु: यह फसल प्रारूप का सबसे महत्वपूर्ण कारक है। जलवायु ही यह निर्धारित करती है कि कौन-सी फसल किस क्षेत्र में अच्छा उत्पादन प्रदान करेगी। एक क्षेत्र की फसल उत्पादन क्षमता मुख्य रूप से वहां की जलवायविक तथा मृदा दशा पर निर्भर करती है। क्योंकि जलवायविक कारक मुख्य रूप से वनस्पति के जीवन पर प्रादेशिक प्रभाव निश्चित रूप से छोड़ते हैं। उदाहरणार्थ पंजाब की जलवायु तमिलनाडु की जलवायु से भिन्न है जिसके फलस्वरूप दोनों राज्यों का फसल प्रारूप भी भिन्न है।
2. मिट्टी: मिट्टी भी फसल प्रारूप का एक महत्वपूर्ण कारक है। प्रत्येक मिट्टी में कुछ विशेष गुण होते हैं तथा जो किसी फसल विशेष के उत्पादन हेतु अधिक अनुकूल होते हैं। इसी तरह किसी क्षेत्र की मिट्टी अधिक उपजाऊ होती है तो किसी क्षेत्र की मिट्टी कम उपजाऊ होती है। मृदा वितरण का प्रारूप भूमि उपयोग गहनता और कृषि भूमि उपयोग को प्रभावित करता है जहां यांत्रिक और जैव-रासायनिक खेती उत्पादन तकनीकों का सीमित विकास हुआ हो।
3. वर्षा: वर्षा फसल प्रारूप का महत्वपूर्ण कारक है। वस्तुतः वर्षा की विभिन्नता भारत की कृषि का एक महत्वपूर्ण कारक है। यह एकमात्र प्रमुख मौसमी तत्व है जो खेती की अवस्थिति को प्रभावित करता है तथा कृषकों के उद्यम का चुनाव करता है। उदाहरणार्थ, भारत में, जहां कहीं भी प्रचुर मात्रा में वर्षा होती है, वहां चावल एक आम फसल होती है। लेकिन जहां सूखा योजनाबद्ध कृषि में रुकावट उत्पन्न करता है, वहां के किसानों द्वारा शुष्क दशा में होने वाले मक्का की खेती होती है। शुष्क दशाएं किसानों को बाजरा की खेती करने से रोकती हैं।
4. तापमान: तापमान पौधों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह पौधों के चयापचय की भौतिक प्रक्रिया को नियंत्रित करता है। यदि तापमान कम व अधिक होगा तो फसल की वृद्धि रुक जायेगी।
गैर-भौतिक कारक
भौतिक कारकों के अतिरिक्त गैर-भौतिक कारकों में सिंचाई, बीज, उर्वरक, खेत का आकार, मिली निर्धारण, सरकार की नीतियां तथा अंतर्राष्ट्रीय कारक उल्लेखनीय हैं।
1. सिचाई: सिंचाई गैर-भौतिक कारकों में महत्वपूर्ण कारक है। हम सिंचाई द्वारा वर्षा की कमी की भरपाई कर सकते हैं। नहरों का निर्माण कर हम सिंचाई का प्रबंध कर सकते हैं। सिंचाई सुविधा से प्रति हेक्टेयर उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है। शुष्क भूमि में, बिना सिंचाई के फसल उगाना असंभव हो जाता है। सिंचाई में हाल के विकास से जलवायु के प्राकृतिक और लाभ तथा मृदा के अवशोषण द्वारा उत्पादन का अंतर्मौसमीस्थायित्व तथा खरीफ, रबी और जायद की कुल पैदावार बढ़ाई जा सकी है। उदाहरणार्थ, हरियाणा-पंजाब मैदान में, सिंचाई भूमि के लिए नहर इत्यादि का निर्माण करने के कारण भूमि उपयोग दक्षता, फसल प्रारूप का आयामीकरण तथा प्रति हेक्टेयर उत्पादकता में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। बेकार पड़ी भूमि के एक बड़े हिस्से को खेती योग्य भूमि में तब्दील किया गया और विशुद्ध बुआई क्षेत्र में महत्वपूर्ण रूप से वृद्धि हुई।
2. बीज: बीजों की गुणवत्ता भी फसल प्रारूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। उच्च पैदावार वाले बीजों को बोने से भारत जैसी कृषि-अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण सुधार किया जा सकता है। उन्नत बीजों से क्षेत्र-विशेष की उपज को 10 से 20 प्रतिशत तक बढ़ाया जा सकता है। खाद्यान में परिणाम बेहद उत्साहवर्धक रहे, विशेष रूप से चावल, गेहूं और मोटे अनाज में। अब गन्ने, कपास तथा मूंगफली के लिए भी उच्च उत्पादक बीज किस्में प्रस्तुत की गई हैं। पंजाब में बड़े पैमाने पर उच्च उत्पादक बीज किस्मों के इस्तेमाल के कारण गेंहूं, गन्ना एवं कपास के उत्पादन में भारी उछाल आया है।
3. उर्वरक: उर्वरक मृदा की उर्वरा शक्ति में वृद्धि कर खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि करने में सहायक होते हैं। जिन क्षेत्रों में उर्वरकों का प्रयोग किया जाता है वहां की कृषि उपज में वृद्धि होती है।
4. खेत का आकार: खेत का आकार भी एक महत्वपूर्ण कारक है। यह कृषक की आय का निर्धारण करने वाला मापक भी है। इसी के आकार के आधार पर किसान की जोखिम लेने की क्षमता का पता लगता है। जोत का आकार कृषक के जोखिम उठाने की सीमा का निर्धारण करता है। बड़े जोत आकार का मालिक जोखिम सहन करने की उच्च क्षमता रखता है। इसके परिणामस्वरूप यह विशेषीकरण की मात्रा को प्रभावित करेगा तथा उपकरणों तथा बिजली की मात्रा के प्रयोग को भी प्रभावित करेगा। इसके अतिरिक्त, जोत के आकार जनसंख्या दबाव, आर्थिक आवश्यकताओं और भूमि उर्वरता से सम्बद्ध होता है।
5. कीमत प्रोत्साहन: कृषि उत्पादों की कीमतों में बदलाव कृषि में अनिश्चितता और जोखिम का एक मुख्य कारण है। कई मौकों पर, कीमत ने ही कृषकों की फसल सम्मिलन के बारे में निर्णय को बाध्य किया है। कुछ कृषि उत्पादों की कीमतों में वृद्धि, आगामी वर्षों में इन फसलों के उत्पादन क्षेत्र में वृद्धि करेगी। यदि फसल कीमतों की वृद्धि में एकरूपता की कमी होती है और यह अस्थायी प्रकृति की है, तो कृषक न्यायसंगत पुर्नआबंटन के बारे में आशावान नहीं होगा। प्रतिकूल कीमत ढांचा सुस्थापित फसल सम्मिलन को ध्वस्त कर सकता है।
6. सरकार की नीति: सरकार फसल प्रारूप को परिवर्तित कर सकती है। सरकार चाहे तो किसी फसल-विशेष को किसी क्षेत्र-विशेष में उपजाने पर सब्सिडी प्रदान कर अथवा विशेष सहायता प्रदान कर कृषकों को प्रोत्साहित कर सकती है।
7. अंतरराष्ट्रीय कारक: कभी-कभी अंतरराष्ट्रीय कीमत संचलन और विभिन्न देशों की आयात-निर्यात नीति तथा इनके परिणामस्वरूप उनके घरेलू राजस्व नीति में परिवर्तन भी फसल प्रारूप को प्रभावित करते हैं। कॉफी, चाय, रबड़ इत्यादि की आपूर्ति में बेतहाशा वृद्धि, इनकी अंतरराष्ट्रीय कीमतों को कम कर सकती है, जिसके परिणाम के तौर पर इनके उत्पादन क्षेत्र में तीव्र कमी आ सकती है। अंतरराष्ट्रीय बाजार के विस्तार एवं संकुचन से भी विभिन्न फसलों हेतु भूमि आवंटन प्रभावित होता है।