इन उद्योगों द्वारा कच्चे माल के रूप में धात्विक तया आधात्विक खनिजों का प्रयोग किया जाता है तथा ये उद्योग लौह एवं अलीह धातु निर्माण प्रक्रिया पर आधारित होते हैं। खनिज आधारित उद्योगों में लौह व इस्पात, भारी इंजीनियरिंग व मशीन उपकरण, सीमेंट, मूलभूत एवं हल्के रसायन तथा उर्वरक शामिल हैं। इन उद्योगों का एक सर्वेक्षण नीचे दिया गया है।
लौह एवं इस्पात
लौह एवं इस्पात एक मूलभूत उद्योग है तथा यह किसी भी राष्ट्र के औद्योगिक विकास की आधारशिला है। कच्चे लोहे का उत्पादन करने वाली देश की प्रथम इकाई 1874 में कुल्टी नामक स्थान पर अस्तित्व में आयी, जिसे बंगाल आयरन वर्क्स नाम दिया गया। दूसरा संयंत्र 1907 में साकची (वर्तमान जमशेदपुर) में स्थापित किया गया। जमशेद टाटा द्वारा स्थापित इस संयंत्र को टाटा आयरन एंड स्टील कपनी (टिस्को) नाम दिया गया। 1919 में बर्नपुर में इंडियन आयरन एंड स्टील कंपनी (इस्को) स्थापित की गयी। 1923 में मैसूर स्टील वर्क्स की स्थापना हुई, जिसे बाद में विश्वेश्वरैया आयरन एंड स्टील लिमिटेड (वीआईएसएल) के नाम से जाना गया।
टिस्को संयंत्र को देश का सर्वाधिक पुराना इस्पात कारखाना माना जाता है। यह गुरुमहसानी (मयूरभंज) एवं नीमुंडी (सिंहभूम) खानों से निकाले गये हैमेटाइट लौह-अयस्कों पर आधारित है। कोयला झरिया खानों से प्राप्त किया जाता है। टिस्को के लिए मैगनीज जोडा (केंडूझार, उड़ीसा) से; चूना-पत्थर व डोलोमाइट सुंदरगढ़ (ओडीशा) से; जल स्वर्णरेखा व खारकाई नदियों से तथा श्रमिक शक्ति विहार एवं उड़ीसा से प्राप्त की जाती है।
इस्को संयंत्र की हीरापुर, कुल्टी तथा बर्नपुर स्थित तीन इकाइयां हैं, जिन्हें 1972 में संयुक्त एवं राष्ट्रीयकृत कर दिया गया। हीरापुर में कच्चे लोहे का उत्पादन होता है, जिसे इस्पात निर्माण हेतु कुल्टी भेजा जाता है। बर्नपुर में स्टील रोलिंग मिल है। संयंत्र के लिए लौह-अयस्क गुआ खानों से, कोयला झरिया से, शक्ति दामोदर घाटी निगम से, मैगनीज मध्य प्रदेश से, क्वार्टज़ खड़गपुर पहाड़ियों से तथा चूना-पत्थर पाराघाट एवं बारादुआर से प्राप्त किया जाता है।
वीआईएसएल संयंत्र कर्नाटक के शिमोगा जिले में भद्रावती नामक स्यान पर स्थित है, जो पश्चिमी कर्नाटक की खनिज वहुल वन पेटी के अंतर्गत आता है। यह संयंत्र भद्रा नदी के तट पर स्थित है। इस संयंत्र में उच्च गुणवत्तायुक्त क्रोम इस्पात का उत्पादन किया जाता है। संयंत्र के लिए लौह-अयस्क चिकमंगलूर जिले की बाबाबुदान पहाड़ियों में स्थित केमानगुंडी से प्राप्त होता है। भद्रावती जल-वियुत परियोजना से इसे बिजली प्राप्त होती है। भांडीगुइका निक्षेपों से चूना-पत्थर तथा शिमोगा व चित्रदुर्ग से मैंगनीज प्राप्त किया जाता है।
मध्य प्रदेश के कोरबा में कोकिग कोयले की खोज ने सरकार की भिलाई जैसे आर्थिक रूप से पिछड़े क्षेत्र में इस्पात कारखाना खोलने के लिए प्रेरित किया। यह कारखाना सोवियत संघ की सहायता से स्थापित किया गया तथा 1959 में इसने कार्य करना शुरू किया। इस संयंत्र के लिए लौह-अयस्क की आपूर्ति दुर्ग जिले की ही डल्ली राझड़ा श्रृंखलाओं से होती है। कोयला झारिया, कोरवा एवं करगाली से आता है। बिजली की आपूर्ति कोरवा ताप-विद्युत केंद्र द्वारा की जाती है। मैगनीज भांद्रा एवं बालाघाट खानों से तथा चूना-पत्थर नंदिनी खानों से प्राप्त किया जाता है। भिलाई संयंत्र मुंबई-नागपुर-कोलकाता रेलमार्ग पर स्थित है, जो इसे प्रमुख बाजारों से जोड़ता है।
राउरकेला संयंत्र की स्थापना भी 1959 में ही हुई। यह पश्चिम जर्मनी की सहायता से उड़ीसा के सुंदरगढ़ जिले में स्थापित किया गया। इस संयंत्र के लिए लौह-अयस्क सुंदरगढ़ व केंडुझार (ओडीशा) से आता है। कोयला झरिया (झारखंड) और तलचर (ओडीशा) तथा बिजली हीराकुंड से प्राप्त की जाती है। मैंगनीज बारामाजदा से, डोलोमाइट बाराद्वार से तथा चूना-पत्यर पूरनापानी से आता है। भारत में एकमात्र राउरकेला ऐसा संयंत्र है जहां एल.डी. कॉन्वर्जन प्रक्रिया द्वारा इस्पात का निर्माण होता है। यह कोलकाता-नागपुर-मुंबई रेलमार्ग पर स्थित है।
प. बंगाल क वर्द्धमान जिले में स्थित दुर्गापुर संयंत्र ने 1962 में कार्य करना शुरू किया। इसे इंग्लैंड की सहायता से स्थापित किया गया था। इस संयंत्र के लिए कोयला झरिया से, लौह-अयस्क केंडुझार से, बिजली दामोदर घाटी निगम से, चूना-पत्थर सुंदरगढ़ से तथा मैगनीज केंडुझार से प्राप्त किया जाता है। यह कोलकाता-आसनसोल रेलमार्ग पर स्थित है।
बोकारो इस्पात कारखाने की स्थापना तीसरी योजना के दौरान की गयी किंतु इसने 1972 से कार्य करना शुरू किया। यह झारखंड के हजारीबाग जिले में स्थित है। सोवियत संघ की सहायता से स्थापित इस संयंत्र के लिए लौह-अयस्क केंडुझार के अलावा सेलम, रत्नागिरि एवं मंगलौर से (समुद्री मार्ग द्वारा) भी आता है। कोयला झरिया से एवं बिजली दामोदर घाटी निगम से प्राप्त की जाती है। चूना-पत्थर डाल्टन गंज एवं भावंतपुर से मंगाया जाता है। डोलोमाइट की आपूर्ति बिलासपुर (छत्तीसगढ़) से की जाती है। इस संयंत्र की अवस्थिति काफी अनुकूल है क्योंकि यह दक्षिणी उत्तर प्रदेश के औद्योगिक क्षेत्र के निकट है तथा इसकी पहुंच में दिल्ली व अमृतसर भी शामिल हैं।
तमिलनाडु के सेलम में स्थित इस्पात कारखाने की रूपरेखा चौथी योजना के दौरान बनायी गयी, किंतु यहां 1982 में कामकाज आरंभ हो सका। आरंभिक वर्षों में कच्चे माल की आपूर्ति में कमी के कारण इस्पात उत्पादन में कमी रही है। सेलम क्षेत्र में लौह-अयस्क की प्रचुरता है। इस संयंत्र में वियुत दहन भट्टियों का प्रयोग किया जाता है। सेलम संयंत्र स्टेनलेस स्टील का उत्पादन करता है।
1992 में कार्य शुरू करने वाला विशाखापट्टनम इस्पात कारखाना तटीय क्षेत्र में स्थापित किया जाने वाला पहला संयंत्र है। यह देश का सर्वाधिक परिष्कत एवं आधुनिक इस्पात संयंत्र है। बंदरगाह पर स्थित होने के कारण इस संयंत्र को आयातित कोकिंग कोयला भी प्राप्त हो जाता है। संयंत्र के लिए लौह-अयस्क बैलाडिला (छत्तीसगढ़) खानों से तथा कोयला दामोदर घाटी (विशाखापट्टनम) से प्राप्त किया जाता है। चूना-पत्थर व कच्चा लोहा इत्यादि निकटवर्ती क्षेत्रों से मंगाये जाते हैं।
नीलांचल इस्पात निगम लिमिटेड तथा सरकारी अभिकरणों ने जयपुर जिले के कलिंगनगर में ओडीशा के दूसरे समन्वित लौह एवं इस्पात संयंत्र की स्थापना की।
लघु इस्पात संयंत्र: देश में एकीकृत इस्पात संयंत्रों के अलावा कई विद्युत दहन भट्टी वाली इकाइयां भी है, जिनमें इस्पात मलबे या अपरिष्कृत लोहे से इस्पात का उत्पादन किया जाता है। समन्वित इस्पात संयंत्र मुख्य रूप से हल्का और मिश्रित इस्पात का उत्पादन करता है जिसमें जंगरोधी इस्पात भी शामिल है। ये लघु संयंत्र विशाल इस्पात कारखानों से दूरवर्ती क्षेत्रों में स्थापित किये गये हैं। इन लघु कारखानों की निर्माण अवधि अल्प तथा कार्य निष्पादन प्रणाली सुगम होती हैं।
तांबा प्रगलन उद्योग
सरायकेला की तांबा खानों के खनन कार्य हेतु 1857 में सिंहभूम कॉपर कम्पनी का निर्माण किया गया। 1924 में भारतीय कॉपर निगम के साथ-साथ घाटशिला (बिहार) में एक प्रगलन एवं संकेन्द्रण संयंत्र की स्थापना की गयी। भारतीय कॉपर निगम को 1972 में हिंदुस्तान कॉपर लिमिटेड द्वारा अधिग्रहीत कर लिया गया। वर्तमान में एचसीएल भारत में प्राथमिक तांबे का एकमात्र उत्पादक है।
खेतड़ी-सिंहभूम के अयस्कों के दोहन हेतु एचसीएल द्वारा राजस्थान में अरावली के गिरिपादों में कॉपर कॉम्पलैक्स का निर्माण किया गया। खेतड़ी कॉपर कॉम्पलैक्स समेकित ताम्र उत्खनन एवं धात्विक इकाई, जिसमें सल्फ्यूरिक एसिड तथा त्रिगुण सुपर फॉस्फेट जैसे गौण उत्पादों का निर्माण भी किया जाता है।
मध्य प्रदेश में स्थित मलांजीखंड तांबा परियोजना पहली बड़ी खुली खान है, जिसे मुख्यतः खेतड़ी संयंत्र हेतु पर्याप्त मात्रा में तांबे की आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए विकसित किया गया है।
अन्य तांबा ढलाई परियोजनाओं में राखा तांबा परियोजना (सिंहभूम-माउभंडार), दरीबा तांबा परियोजना (राजस्थान में अलवर), चांदमारी तांबा परियोजना (राजस्थान में झुंझुनू) आदि शामिल हैं।
एल्युमिनियम उद्योग
भारतीय एल्युमिनियम कंपनी के अलुपुरम रिडक्शन वर्क्स द्वारा पहली बार 1938 में एल्युमिनियम का उत्पादन किया गया। 1944 में यह कपनी सार्वजनिक क्षेत्र के अंतर्गत शामिल की गयी। 1967 तक देश में पांच प्रगलन केंद्र थे, जो- हीराकुंड, जेकेनगर, रेणुकूट, अलुपुरम तथा मेत्तुर में स्थित थे। एल्युमिनियम उद्योग में एल्युमिनियम उत्पादन के अलावा एल्युमिनियम चादरों, बर्तनों, उपकरणों (वियुत परिवहन व निर्माण कार्यों में प्रयुक्त) तथा साज-सज्जा की वस्तुओं का निर्माण भी किया जाता है।
अवस्थिति: एल्युमिनियम उद्योग की अवस्थिति मुख्यतः बाँक्साइट की उपलब्यता द्वारा निधारित होती है। यह पाया गया है कि एक टन एल्यूमिनियम का उत्पादन करने के लिए 9 टन बॉक्साइट, 0.44 टन पेट्रोलियम कोक, 0.26 टन कास्टिक सोडा, 0.09 टन चूना-पत्थर, क्रायोलाइट, एल्युमिनियम फ्लोराइड और सोडा ऐश की बेहद थोड़ी मात्रा तथा लगभग 18,750 किलोवाट बिजली की आवश्यकता होती है। इसलिए, अधिकतर एल्युमिनियम उद्योग बॉक्साइट उत्पादन क्षेत्रों में अवस्थित होते हैं और पारस्परिक रूप से हाइड्रोजन-ऊर्जा की सस्ती उपलब्धता वाले राज्यों (पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु) में होते हैं।
हिन्दुस्तान एल्युमिनियम कॉरपोरेशन लिमिटेड (हिंडाल्को) उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर के निकट रेणुकूट में अवस्थित है। आर्थिक पैमाने के लाभ प्राप्त करने के क्रम में, ओडीशा के हीराकुंड में द्वितीय प्रगालक संयंत्र की स्थापना की गई।
हिंडाल्को और भारत एल्युमिनियम कपनी (बाल्को) ने दो इकाइयों की स्थापना की है-एक इकाई कोरवा में है, जो मध्य प्रदेश की अमरकंटक पहाड़ी के बॉक्साइट अयस्क का उपयोग करती है और दूसरी इकाई महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले में स्थित है, जो उदयगिरि घांगरवाड़ी क्षेत्र के बॉक्साइट अयस्क का उपयोग करती है।
सार्वजनिक क्षेत्र की बड़ी एल्युमिनियम कम्पनी के रूप में, नेशनल एल्युमिनियम कंपनी(नाल्को) की स्थापना एक फ्रांसीसी कंपनी की सहायता से ओडीशा के कोरापुट जिले में दामनजोड़ी के निकट जैपोर नामक स्थान पर की गई। ओडीशा के अंगुल में भी प्रगालक संयंत्र स्थित है।
सीसा एंव जिंक प्रगलन उद्योग
भारत में सीसा और जिंक अयस्कों का मुख्य स्रोत राजस्थान की जावर खानें (निक्षेप) हैं। अयस्कों की आपूर्ति की कमी के लिए देश में सीसा-जिंक विगलन उद्योग का विलंबपूर्ण एवं धीमा विकास व्यापक रूप से जिम्मेदार रहा है। जावर की खानों के अतिरिक्त, आंध्र प्रदेश की अग्निगुंडला सीसा खदानें, उदयपुर (राजस्थान) में राजपुरा-दरीबा खदानें और ओडीशा की सरगीपल्ली सीसा खदानों से भी उत्पादन प्राप्त होता है। दो विगलकों: उदयपुर का देबारी जिंक विगलक और विशाखापट्टनम (आंध्र प्रदेश) में विजाग सीसा विगलक संयंत्रों, से उत्पादन प्राप्त होता है। देबारी संयंत्र को हिंदुस्तान जिंक लिमिटेड (एचजेडएल) द्वारा फ्रांस की क्रेब्सपेनारोया और जर्मनी की लुर्गी के तकनीकी सहयोग से तैयार किया गया था।
सीमेंट उद्योग
यह भारत के सर्वाधिक उन्नत व अग्रणी उद्योगों में से एक है। एक दशक पहले तक भारत में सीमेंट का आयात किया जाता था। 1 मार्च, 1989 को मूल्य एवं वितरण से पूर्णतः नियंत्रण हटाने तथा अन्य सुधारों को लागू किये जाने के बाद से सीमेंट उद्योग का अत्यंत तेजी से विकास हुआ है।
सीमेंट मुख्यतः चूना-पत्थर एवं क्ले (चीका मिट्टी) से निर्मित किया जाता है। अन्य कच्चे माल में जिप्सम, कोयला, व शैल शामिल हैं क्योंकि, कोयला व जिप्सम सुदूर भागों से मंगाये जाते हैं तथा सीमेंट की आपूर्ति दूर-दूर तक फैले उपभोक्ता केंद्रों तक की जानी होती है, इसलिए सीमेंट संयंत्र रेलमार्गों के निकट स्थापित किये जाते हैं। कुछ सीमेंट संयंत्रों में चूना-पत्थर के स्थान पर समुद्री शैल, उवर्रक संयंत्रों के आपंक या भट्टियों के धातुमल का प्रयोग किया जाता है। उदाहरणस्वरूप, भद्रावती एवं चाईबासा (बिहार) के संयंत्रों में धातुमल तथा सिंदरी संयंत्र में आपंक का प्रयोग किया जाता है। भारत के अनेक राज्यों में चूना-पत्थर उपलब्ध है, किंतु महाराष्ट्र, दक्षिणी मध्य प्रदेश तथा उत्तरी जलोढ़ मैदान के बेसाल्ट आवरित भागों में स्थित सीमेंट संयंत्र चूना-पत्थर पर निर्भरता नहीं रखते। दादरी (हरियाणा) के डालमिया संयंत्र में ककड़ का प्रयोग किया जाता है।
वर्तमान में 107 बड़े सीमेंट संयंत्र है, जिनकी उत्पादन क्षमता लगभग 79 मिलि. टन है। इसके अतिरिक्त लगभग 250-300 छोटे सीमेंट कारखाने भी हैं, जिनकी क्षमता लगभग 7 मिलि. टन है। वर्ष 1995-96 में 69.31 मिलि. टन सीमेंट का उत्पादन किया गया। विभिन्न राज्यों में स्थित सीमेंट उत्पादक केंद्रों का विवरण इस प्रकार है:
भारतीय सीमेंट उद्योग न केवल उत्पादन के स्तर पर विश्व में दूसरा स्थान रखता है बल्कि विश्वस्तरीय गुणवत्ता का सीमेंट उत्पादित करता है। विकसित प्रौद्योगिकी के प्रयोग से इस उद्योग को उर्जा ईंधन की बचत करके अपनी कार्य क्षमता में सुधार लाने में और पर्यावरण सम्बन्धी चुनौतियों के समाधान में मदद मिली है। समस्त घरेलू मांग को पूरा करने के अतिरिक्त, उद्योग सीमेंट एवं किंलकर का निर्यात भी करता है।
दसवीं पंचवर्षीय योजना के निर्माण के लिए सीमेंट उद्योग पर कार्यदल ने तथा भारतीय सीमेंट उद्योग की वैश्विक प्रतिस्पद्धात्मकता पर अन्य अध्ययनों ने ऊर्जा की उच्च लागत, उच्च मालभाड़ा लागत, अपर्याप्त असंरचना तथा कोयले की दयनीय गुणवत्ता जैसी बाधाओं को चिन्हित किया है। अतिरिक्त क्षमता अर्जन में दीर्घावाधिक कोयला लिंक का अभाव बाधा डालता है। सीमेंट उद्योग में मौजूद अत्यधिक उत्पादन क्षमता के उपयोग के क्रम में, सरकार ने मांग में वृद्धि के लिए निम्नलिखित मुख्य क्षेत्रों की पहचान की है-
- आवास विकास कार्यक्रमों को गति देना;
- कंक्रीट के राजमार्गों एवं सड़कों को प्रोत्साहन,
- बड़े इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट में तैयार कक्रीट मिश्रण का इस्तेमाल करना,
- प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के अधीन ग्रामीण क्षेत्रों में कंक्रीट सड़कों का निर्माण करना।