शासन-स्वरूप
शिवाजी का प्रशासन मूलत: दक्षिणी व्यवस्था पर आधारित था परन्तु इसमें कुछ मुगल तत्त्व भी शामिल थे। मराठा राज्य के अंतर्गत दो प्रकार के क्षेत्र होते थे-
- स्वराज- जो क्षेत्र प्रत्यक्षतः मराठों के नियंत्रण में थे, उन्हें स्वराज क्षेत्र कहा जाता था।
- मुघतई- (मुल्क-ए-कदीम) यह वह क्षेत्र था जिसमें वे चौथ एवं सरदेशमुखी वसूल करते थे।
स्वराज क्षेत्र तीन भागों में विभाजित थे-
- पूना से लेकर सल्हेर तक का क्षेत्र- इसमें उत्तरी कोंकण भी सम्मिलित था। यह पेशवा मोरोपंत पिंगले के अधीन था।
- उत्तरी किनारा एक दक्षिणी कोंकण का क्षेत्र-यह अन्ना जी दत्तो के अधीन था।
- दक्षिण देश के जिले जिनमें सतारा से लेकर धारवाड़ एवं कोयल तक का क्षेत्र सम्मिलित थे। यह दत्तो जी पंत के नियंत्रण में था।
इनके अतिरिक्त हाल में जीत गये जिजी, वेल्लोर और अन्य क्षेत्र अधिग्रहण सेना के अंतर्गत थे। ये साम्राज्य, प्रांत या तरफों में विभाजित था और तरफ परगनों में विभाजित होता था। परगना गाँव या मौजा में विभाजित था।
शिवाजी न केवले एक साहसी सिपाही और एक सफल सैनिक विजेता था, बल्कि अपनी प्रजा का एक ज्ञानी शासक भी था। प्राय: सभी महान् योद्धाओं के समान-नेपोलियन एक उत्कृष्ट उदाहरण है। शिवाजी भी एक महान् शासक था क्योंकि जिन गुणों से एक योग्य सेनापति बनता है, उन्हीं गुणों की आवश्यकता सफल संगठनकर्ता एवं राजनीतिज्ञ के लिए भी होती है। बनारस के एक ब्राह्मण गंगा भट्ट ने उसे एक सूर्यवंशी क्षत्रिय घोषित किया था। शिवाजी ने स्वयं क्षत्रिय कुलवतमसां (क्षत्रिय परिवार के आभूषण) की उपाधि ली। इसकी दूसरी उपाधि हैंदवधमोंधारक थी। भारत के मुस्लिम शासकों के समान उसकी प्रणाली एकतंत्री थी तथा वह स्वयं इसका सर्वप्रधान था। परन्तु शासन-कार्य को वास्तविक रूप में चलाने में उसे अष्टप्रधान नामक आठ मंत्रियों की एक परिषद् से सहायता मिलती थी। उसका कार्य प्रधानत: परामर्श देने का था। वे आठ मंत्री थे-
- पेशवा अथवा प्रधान मंत्री, जिसे राज्य की सामान्य भलाई और हितों को देखना पड़ता था;
- अमात्य अथवा वित्तमंत्री, जिसका काम था सभी सार्वजनिक हिसाब-किताब को जाँचना तथा उन पर समर्थन के लिए अपने हस्ताक्षर बनाना;
- मंत्री या वाकयानवीस, जो राजा के कामों तथा उसके दरबार की कार्रवाइयों का प्रतिदिन का विवरण रखता था;
- सचिव अथवा सुरनवीस, जिसके जिम्मे राजा का पत्रव्यवहार था तथा जो महालों एवं परगनों के हिसाब को भी जाँचता था;
- सुमन्त या दबीर;
- सेनापति या सर-ए-नौबत, जो प्रधान सेनापति था;
- पंडित राव एवं दानाध्यक्ष अथवा राजपुरोहित एवं दानविभागाध्यक्ष तथा
- न्यायाधीश, जो प्रधान न्यायाधीश था। न्यायाधीश एवं पडित राव के अतिरिक्त सभी मत्रियों को अपने असैनिक कर्त्तव्यों के साथ सैनिक कमान भी थी।
उनमें से कम-से-कम तीन को प्रादेशिक शासन का कार्य भी था। मंत्रियों के अधीन राज्य के विभिन्न विभाग थे, जिनकी संख्या तीस से कम न थी। शिवाजी ने अपने राज्य की कई प्रदेशों में विभक्त कर दिया था। प्रत्येक प्रदेश एक राजप्रतिनिधि के अधीन था, जो तब तक अपने पद पर रह सकता था जब तक राजा उसे चाहे। राजा की तरह उनकी सहायता भी आठ प्रमुख अफसर करते थे। कर्णाटक के राजप्रतिनिधि का स्थान प्रादेशिक शासकों के स्थान से कुछ भिन्न था तथा उसे अधिक शक्ति एव स्वतंत्रता थी। इस अष्ठ प्रधान की सहायता के लिए प्रत्येक विभाग में आठ सहायक अधिकारी होते थे जो निम्नलिखित थे-
(1) दीवान, (2) मजुमदार, (3) फडनवीस, (4) सबनवीस, (5) कारखानी, (6) चिटनिस, (7) जमादार एवं (8) पतनीस। राजस्व-संग्रह तथा शासन के लिए शिवाजी का राज्य कई प्रान्तों में बँटा था। प्रत्येक प्रान्त परगनों तथा तफों में विभक्त था। गाँव सबसे छोटी इकाई था। शिवाजी ने भूमि-राजस्व को ठेके पर देने की, उस समय की फैली हुई प्रथा को छोड़ दिया। इसके बदले उसने सरकारी अफसरों द्वारा सीधे रैयतों से कर वसूलने की प्रथा चलायी। इसके अनुसार सरकारी अफसरों का राजनैतिक अधिपति की शक्तियों के काम में लाने अथवा रैयतों को क्लेश देने का अधिकार नहीं था। भूमि की सावधानी से जाँच कर कर का निर्धारण होता था। इसके लिए माप की एक इकाई निकाली गयी, जो राज्य भर में एक समान व्यवहार में लायी गयी। संभावित उपज का 30 प्रतिशत राज्य लेता था। कुछ समय के बाद, अन्य प्रकार के करों या चुगियों के उठा देने के पश्चात्, शिवाजी ने इसे बढ़ाकर 40 प्रतिशत कर दिया। कृषक निश्चित रूप से जानते थे कि उन्हें कितना देना है तथा इसे वे बिना किसी जुल्म के अदा कर सकते थे। उन्हें नकद अथवा अनाज किसी रूप में अदा करने की स्वतंत्रता थी। राज्य रैयतों को बीज तथा मवेशी खरीदने के लिए खजाने से अग्रिम ऋण देकर खेती को प्रोत्साहन देता था। रैयतें इन्हें आसान वार्षिक किश्तों में चुका देती थीं। यह कहना गलत है, जैसा फ्रायर ने लिखा है, कि राज्य के अधिकारी से अपने राज्य को पुष्ट बनाने के अभिप्राय से शिवाजी राजस्व-संग्रह के मामले में कठोर रहा। आधुनिके अनुसंधानों ने यह पूर्णत: सिद्ध कर दिया है कि शिवाजी का राजस्व शासन मानवतापूर्ण, कार्यक्षम तथा उसकी प्रजा के लिए हितकर था। मराठा इतिहास सुविज्ञ लेखक ग्रांट डफ तक ने कई वर्ष पहले इसे स्वीकार किया था।
शिवाजी ने 1679 ई. में अन्नाजी दत्तो द्वारा व्यापक भूमि सर्वेक्षण कराया। शिवाजी ने माप की पद्धति अपनायी। उसकी भूमि राजस्व व्यवस्था को मलिक अम्बर की व्यवस्था से भी प्रेरणा मिली थी। किन्तु मलिक अम्बर माप की ईकाई का मानकीकरण में असफल रहा था। मलिक अम्बर ने भूमि की माप की ईकाई के रूप में जरीब को अपनाया था। शिवाजी ने रस्सी के माप के बदले काठी या मानक छड़ी को अपना लिया। 20 काठी का बिसवा (बिघा) होता था और 120 बीघा का एक चावर होता था। शिवाजी ने भू-राजस्व की राशि प्रारंभ में उत्पादन का 33 प्रतिशत निर्धारित की। किन्तु आगे चलकर उसने अन्य सभी प्रकार के करों का अंत कर दिया तो फिर भू-राजस्व की राशि बढ़ाकर 40 प्रतिशत कर दी गयी। आम मान्यता यह है कि शिवाजी ने जागीरदारी प्रथा एवं जमींदारी प्रथा को पूरी तरह समाप्त क्र किसानों के साथ सीधा संपर्क स्थापित किया। इस तरह उसने उन्हें शोषण से मुक्त कर दिया। किन्तु डॉ. सतीश चन्द्र का मानना है कि वह इस प्रथा को पूरी तरह नहीं समाप्त कर सका। उसने बस इतना किया की बड़े देश्मुखों की ताकत कम कर डी, गलत प्रथाओं को सुधार और आवश्यक निरिक्षण की व्यवस्था की। शिवाजी का सबसे पहले पक्ष लेने वाले मावले के देशमुख छोटे भूमिपति ही थे। भू-राजस्व नकद और अनाज दोनों में लिया जाता था।
महाराष्ट्र के पहाडी प्रदेशों से अधिक भूमि-कर नहीं आता था। इस कारण शिवाजी बहुधा पड़ोस के प्रदेशों (जो पूर्णत: उसकी मर्जी पर थे), मुगल सूबों एवं बीजापुर राज्य के कुछ जिलों पर भी चौथ तथा सरदेशमुखी कर लगा दिया करता था। चौथ लगाने की प्रथा पश्चिमी भारत में पहले से ही प्रचलित थी, क्योंकि हम पाते हैं कि रामनगर के राजा ने दमन की पुर्तगीज प्रजा से यह वसूल किया था। चौथ एक प्रकार का मराठा कर था जिसमें 25 प्रतिशत भू-राजस्व देना पड़ता था। चौथ के स्वरूप के विषय में विद्वानों में मतभेद है। रानाडे, जो इसकी तुलना वेलेजली की सहायक-सन्धि से करते हैं, लिखते हैं कि यह बिना किसी नैतिक या कानूनी दायित्व का सैनिक चन्दा-मात्र नहीं था, बल्कि किसी तीसरी शक्ति के आक्रमण के विरुद्ध रक्षा के बदले में यह अदायगी थी। डाक्टर यदुनाथ सरकार भिन्न मत व्यक्त करते हैं। वे लिखते हैं, चौथ के देने से केवल कोई स्थान मराठा सिपाहियों एवं उनके दीवानी उपकर्मचारियों की दु:प्रद उपस्थिति से बच सकता था; परन्तु इसके बदले शिवाजी पर उस जिले को विदेशी आक्रमण अथवा आन्तरिक अव्यवस्था से बचाने का कोई उत्तरदायित्व न था। मराठे केवल अपना लाभ देखते थे और उनके चले जाने पर उनके शिकार की क्या हालत होगी-इसकी परवाह नहीं करते थे। चौथ एक लुटेरे को घूस देकर उससे बचने का उपाय मात्र था; यह सभी शत्रुओं के विरुद्ध शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए सहायक-प्रबन्ध नहीं था। इसलिए चौथ के अधीन जो भूमि थी, उसे औचित्य आधारित प्रभाव-क्षेत्र नहीं कहा जा सकता। श्री सरदेसाई के मतानुसार यह वैसा कर था, जो विरोधी अथवा विजित राज्यों से वसूल किया जाता था। डौमटर सेन लिखते हैं कि चौथ फौजी नेता का लगाया हुआ चन्दा था, जो परिस्थिति की आवश्यकताओं को देखते हुए न्यायोचित था। इस भारी कर का, जो सरकारी राजस्व का चौथाई अंश था, चाहे जो भी सैद्धान्तिक आधार रहा हो, व्यवहार में यह सैनिक चन्दा छोड़ कर और कुछ भी नहीं था।
सरदेशमुखी दस प्रतिशत का एक अतिरिक्त कर था, जिसकी माँग शिवाजी अपने इस दावे के आधार पर करता था कि वह महाराष्ट्र पुश्तैनी सरदेशमुख है। परन्तु यह एक कानूनी कल्पना थी। चौथ तथा सरदेशमुखी वसूल करने से मराठों का प्रभाव उनके अधिकार-क्षेत्र से बाहर के जिलों पर भी पड़ता था। ये कर वसूलने के बाद मराठे इन जिलों को आसानी से अपने राज्य में मिला लेते थे।
शिवाजी के द्वारा मराठी सेना का एक नये ढंग पर संगठन उसकी सैनिक प्रतिभा का एक ज्वलंत प्रमाण है। पहले मराठों की लड़ने वाली फौज में अधिकतर अश्वारोही होते थे, जिनकी आदत आधे साल तक अपने खेतों में काम करने की थी तथा सूखे मौसम में सक्रिय सेवा करते थे। किन्तु शिवाजी ने एक नियमित तथा स्थायी सेना रखी। उसके सैनिकों को कर्त्तव्य के लिए सदैव तैयार रहना पड़ता था तथा वर्षा ऋतु में उन्हें वेतन और रहने का स्थान मिलता था। इस सेना में घुड़सवारों की संख्या तीस हजार से बढ़कर चालीस हजार हो गयी तथा पैदल की संख्या बढ़कर दस हजार हो गयी। शिवाजी ने एक बड़ा जहाजी बेड़ा बनाया तथा बम्बई के किनारे की छोटी-छोटी जातियों के हिन्दुओं को नाविकों के रूप में भतीं किया। यद्यपि शिवाजी के समय में मराठी जल-सेना ने कोई अधिक विलक्षण कार्य नहीं किया, फिर भी बाद में अंग्रियों के अधीन मराठा बेडे ने अंग्रेजों, पुर्तगीजों तथा डचों को बहुत तंग किया। नौसेना में शिवाजी ने कुछ मुसलमानों को भी नियुक्त किया था। सभासद् बखर के लेखानुसार, वह हाथियों का एक दल रखता था जिनकी संख्या लगभग बारह सौ साठ थी तथा ऊँटों का एक दल रखता था जिनकी संख्या तीन हजार अथवा डेढ़ हजार थी। हम यह निश्चित रूप से नहीं जानते कि उसकी गोलंदाज फौज की क्या संख्या थी। पहले उसने सूरत के फ्रांसीसी निर्देशक से अस्सी तोपें एवं अपनी तोडेदार बन्दूकों के लिए काफी सीसा खरीदा था।
घुड़सवार तथा पैदल दोनों में अफसरों की नियमित श्रेणियाँ बनी हुई थीं। घुड़सवार की दो शाखाएँ थीं- बर्गी और सिलाहदार। बर्गी वे सिपाही थे, जिन्हें ओर से – वेतन एवं साजसमान मिलते थे। सिलाहदार अपना सजसमान आने खर्च से जुटते थे तथा उन सिपाहियों के वेतन एवं साजसमान भी वेही देते थे जिन्हें वे राज्य की सेवा के लिए लाते थे। परन्तु मैदान में काम करने का खर्च चलने के लिए राज्य की उर से एक निश्चित रकम मिलती थी।अश्वारोहियों के दल में 25 अश्वारोहियों की एक इकाई बनती थी। 25 आदमियों पर एक हवलदार होता था, 5 हवालदारों पर एक जुमलादार तथा दस जुमलादारों पर एक हजारी, जिसे एक हजार हून प्रतिवर्ष मिलता था। हजारियों से ऊँचे पद पंचहजारियों तथा सनोबर्त के थे। सनोबर्त अश्वारोहियों का सर्वोच्च सेनापति था। पड़ती में सबसे छोटी इकाई 9 पायकों की थी, जो एक नायक के अधीन थे। 5 नायकों पर एक हवलदार, दो या तीन हवलदारों पर एक जुमला दार तथा दास जुमलादारों पर एक हजारी था। अश्वारोहियों में सनोर्बत के अधीन पाँच हजारी थे, किन्तु पदाति में सात। हजारियों पर एक सनोबर्त होता था। यद्यपि अधिकतर शिवाजी स्वंय अपनी सेना का नेतृत्व करता था, तथापि नाम के लिए यह एक सेनापति के अधीन थी। सेनापति अष्टप्रधान (मत्रिमंडल) का सदस्य होता था। मराठों के इतिहास में किलों का महत्वपूर्ण भाग होने के कारण उनमें कार्यक्षम दशा में सेना रखने में अत्यन्त सावधानी बरती जाती थी। प्रत्येक किला समान दर्जे के तीन अधिकारियों के अधीन था- हवलदार, सबनीस और सनोबत। इन तीनों को एक साथ मिलकर कार्य करना था तथा इस प्रकार एक दूसरे पर प्रतिबन्ध के रूप में रहना था। और भी, दुर्ग के अफसरों में विश्वासघात को रोकने के लिए शिवाजी ने ऐसा प्रबन्ध कर रखा था- कि प्रत्येक सेना में भिन्न-भिन्न जातियों का सम्मिश्रण हो।
यद्यपि शिवाजी नियमित रूप से तथा उदारता-पूर्वक सैनिकों को वेतन और पुरस्कार दिया करता था, परन्तु उनमें कठोर अनुशासन रखना वह भूला नहीं था। उसने उनके आचरण के लिए कुछ नियम बनाये थे, जिससे उनका नैतिक स्तर नीचा न हो। इन नियमों में से अधिक महत्वपूर्ण नियम थे; किसी स्त्री, दासी या नर्तकी को सेना के साथ जाने की आज्ञा नहीं थी। इनमें से किसी को भी रखने का सिर काट लिया जाता था। गायें जब्ती से बरी थीं, परन्तु बैलों को केवल बोझा ढोने के लिए ले जाया जा सकता था। ब्राह्मणों को सताया नहीं जा सकता था और न उन्हें निस्तार के रूप में बंधक रखा जा सकता था। कोई सिपाही (आक्रमण के समय) बुरा आचरण नहीं कर सकता था। युद्ध में लूटे हुए माल के सम्बन्ध में शिवाजी ने आज्ञा दी थी कि- जब कभी किसी स्थान को लूटा जाए, तब निर्धन लोगों का माल पुलसिया (ताम्बे का सिक्का तथा ताम्बे एवं पीतल के बर्तन उस आदमी के हो जाएं, जो उन्हें पाएं; किन्तु अन्य वस्तुएं, सोना-चांदी (मुद्रा के रूप में अथवा ऐसे ही), रत्न, मूल्यवान चीजे अथवा जवाहरात पाने वाले के नहीं हो सकते थे। पाने वाला बिना कुछ निकाले उन्हें अफसरों को दे देता था तथा वे शिवाजी की सरकार को दे देते थे।
न्याय-प्रशासन-ग्राम स्तर पर पाटिल या पंचायत के द्वारा न्याय कार्य किया जाता था। आपराधिक मामलों को पाटिल देखता था। सर्वोच्च न्यायालय को हाजिर मजलिस कहा जाता था।
शासक एवं व्यक्ति दोनों रूपों में शिवाजी का भारत के इतिहास में एक प्रतिष्ठित स्थान है। जो उसके सम्पर्क में आते थे, उन पर वह जादू का असर डाल सकता था। अपनी असाधारण वीरता एवं कूटनीति के बल से वह एक जागीरदार के पद से उठकर छत्रपति बन बैठा तथा सामर्थ्य शक्तिशाली मुगल साम्राज्य को, जो उस समय अपनी शक्ति की पराकाष्ठा पर था, अप्रतिरोध्य शत्रु हो गया। उसका सबसे ज्वलंत कार्य था- दक्कन के बहुत-से राज्यों में अणुओं की तरह बिखरी हुई मराठा जाति को एकता के सूत्र में बाँधकर मुगल साम्राज्य, बीजापुर, पुर्तगीज, भारत तथा जंजीरा के अबिसीनियनों के समान चार महान् शक्तियों का विरोध होने पर भी एक प्रबल राष्ट्र बनाना। वह अपनी मृत्यु के समय एक विस्तृत राज्य छोड़ गया। ग्रांट डफ लिखता है- परन्तु शिवाजी के द्वारा अर्जित प्रदेश अथवा कोष मुगलों के लिए उतने भयानक नहीं थे, जितना उसके द्वारा दिया हुआ दृष्टान्त, उसके द्वारा चलायी हुई प्रथा और आदतें तथा मराठा जाति के अधिकांश में उसके द्वारा भारी गयी भावना। उसके द्वारा निर्मित मराठा राष्ट्र ने औरंगजेब के राज्यकाल में और उसके पश्चात् मुगल साम्राज्य की अवहेलना की तथा अठारहवीं सदी में भारत में प्रबल शक्ति बना रहा, जिसके परिणामस्वरूप औरंगजेब का एक वंशज महादजी सिंधिया नामक एक मराठा सरदार के हाथों में वस्तुत: कठपुतला बन गया। मराठा शक्ति ने भारत में प्रभुता स्थापित करने के लिए अंग्रेजों से भी प्रतिद्वन्द्विता की और यह लार्ड हेस्टिंग्ज के समय में अतिम रूप से पीस डाली गयी।
वह महान् रचनात्मक प्रतिभा था। वह उन सभी गुणों से सम्पन्न था, जिनकी किसी देश के राष्ट्रीय पुनर्जीवन के लिए आवश्यकता होती है। उसकी प्रणाली उसकी अपनी सृष्टि थी। उसने अपने शासन में कोई विदेशी सहायता नहीं ली, जैसा रंजीत सिंह भी न कर सका। उसकी सेना की कवायद तथा कमान उसके अपने आदमियों के ही अधीन थी, न कि फ्रांसीसियों के। उसने जो बनाया, वह लम्बे समय तक टिका; यहाँ तक कि एक शताब्दी बाद पेशवाओं के शासन के समृद्धिशाली दिनों में भी उसकी संस्थाएँ प्रशंसा एवं प्रतिस्पर्धा की दृष्टि से देखी जाती थीं। वह अनावश्यक निष्ठुरता एवं केवल लूट के लिए ही लूट करने वाला निर्दय विजेता नहीं था। उसकी चढ़ाईयों में स्त्रियों तथा बच्चों के प्रति, जिनमें मुसलमानों की स्त्रियाँ और बच्चे भी सम्मिलित थे, उसके शूरतापूर्ण आचरण की प्रशंसा खाफी खाँ जैसे कटु आलोचक तक ने की है- शिवाजी ने सदैव अपने राज्य के लोगों के सम्मान की रक्षा करने का प्रयत्न किया था। ….. वह अपने हाथों में आयी हुई मुसलमान स्त्रियों तथा बच्चों के सम्मान की रक्षा सावधानी से करता था। इस सम्बन्ध में उसके आदेश बडे कठोर थे तथा जो कोई भी इनका उल्लंघन करता था उसे दण्ड मिलता था। रौलिंसन ठीक ही कहता है- वह कभी भी जानबूझ कर अथवा उद्देश्यहीन होकर क्रूरता नहीं करता था। स्त्रियों, मस्जिदों एवं लड़ाई न लड़ने वालों का आदर करना, युद्ध के बाद कत्लेआम या सामूहिक हत्या बन्द कर देना, बंदी अफसरों एवं लोगों को सम्मान सहित मुक्त कर जाने देना-ये निश्चय ही साधारण गुण नहीं हैं। शिवाजी का आदर्श था अपने देश में एक स्वदेशी साम्राज्य को पुन: स्थापित करना तथा उसने एकाग्र चित्त हो कर इसका अनुसरण किया। परन्तु इसे पूर्ण रूप में कार्यान्वित करने का उसे समय नहीं था।
अपने व्यक्गित जीवन में शिवाजी उस समय के प्रचलित दोषों से बचा रह गया। उसके नैतिक गुण अत्यन्त उच्च कोटि के थे। अपने प्रारम्भिक जीवन से ही सच्ची धार्मिक प्रवृत्ति का होने के कारण वह राजनैतिक एवं सैनिक कर्त्तव्यों के बीच भी उन उच्च आदशाँ को नहीं भूला, जिनसे उसकी माँ तथा उसके गुरू रामदास ने उसे प्रेरित किया था। वह मराठा राष्ट्र को ऊपर उठाने में धर्म को एक प्रबल शक्ति बनाना चाहता था तथा सदा हिन्दू धर्म एवं विद्या को अपना प्रश्रय प्रदान करता था।