खनिज संसाधन उद्योगों की आधारभूमि हैं तथा आर्थिक विकास के संचालक हैं। खनिजों का दोहन उनके आर्थिक महत्व को देखते हुए लाभ के लिए किया जाता है। उत्खनन कार्य का लाभ, खनिज के मूल्य एवं उसकी उपयोगिता तथा उत्खनन पर होने वाले व्यय के ऊपर निर्भर करता है। उत्खनन व्यय खनिज भण्डार के आकार; अयस्क की श्रेणी; उत्खनन की पद्धति; परिवहन एवं श्रम; खनिज की उपलब्धता आदि पर निर्भर करता है। खनिज विविध रूपों में और विविध क्रम में संरक्षित होते हैं, इसलिए उनके उत्खनन के लिए अनेक प्रकार की विधियाँ अपनायी जाती हैं, जिनमें प्रमुख हैं:
खुला उत्खनन: यह सतहों से खनिजों को प्राप्त करने की सरलतम एवं निम्न लागत वाली प्रणाली है। इस विधि में तब तक खुदाई की जाती है, जब तक कि खनिजों के टुकड़े नहीं मिलते। चट्टानों को ढहाना, यथा-चूना-पत्थर, आग्नेय चट्टान आदि का कार्य इसी पद्धति के अंतर्गत होता है।
भूमिगत उत्खनन: यदि अयस्क सतह से काफी गहरे हो, तो भूमिगत उत्खनन विधि का उपयोग किया जाता है। यदि नमक, पोटाश या सल्फर आदि जल में घुल जाते हैं, तो खनिजों को पम्प की सहायता से सतह तक लाया जाता है और वहां जल को वाष्पीकृत कर खनिज को प्राप्त कर लिया जाता है।
स्थानीय उत्खनन: जलोढ़ भण्डारों से खनिजों को निकालने के लिए स्थानीय उत्खनन (Placer Mining) विधि का उपयोग किया जाता है। जलोढ़ की पहले जल में मिश्रित किया जाता है और उसमें से धीरे-धीरे बालू, कीचड़, धूल और पत्थरों को अलग किया जाता है और उन्हें साफ किया जाता है। अच्छे गुरुत्वीय मान वाले भारी अयस्क सबसे अंत तक पानी में बने रहते हैं और इनको निकालने के बाद विभिन्न अयस्कों को अलग किया जाता है।
उत्खनन का विनाशकारी प्रभाव भी होता है। इसके कारण भूमि से खनिज निकाल लेने से उसकी मूल गुणवत्ता समाप्त हो जाती है, वह भूमि कृषि योग्य नहीं रह जाती। भूमि के औद्योगिक भूमि के रूप में परिवर्तित हो जाने से वह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो जाती है। सुरंगों का विस्तार निवास स्थान के विनाश के लिए जिम्मेदार होता है। इससे भूमि का स्वरूप विकृत हो जाता है और मृदा अपरदन भी शुरू हो जाता है।
वर्गीकरण
उद्योगों में उपयोग की दृष्टि से खनिजों का वर्गीकरण निम्न आधार पर किया जा सकता है-
- धात्विक खनिज: लौह वर्ग: इसके अंतर्गत लौह, क्रोमाइट, मैगनीज, निकिल इत्यादि आते हैं।
गैर लौह वर्ग: इसके अंतर्गत तांबा, सीसा, जिंक, टंगस्टन, अल्युमिनियम, वैनेडियम सहित कुछ अन्य धातुएं आती हैं।
- गैर-धात्विक खनिज: संगमरमर या माइका, स्टीटाइट, एस्बेस्टस इत्यादि इस वर्ग के अंतर्गत आते हैं।
- कठोर खनिज: इनका उपयोग भट्टियों एवं सांचों में ऊष्मा प्रतिरोधक के रूप में किया जाता है। इसके अंतर्गत क्रोमाइट, मैग्नेसाइट, क्यानाइट, सिलिमेनाइट, अग्निसह मिट्टी (फायरक्ले) एवं ग्रेफाइट आते हैं।
- उर्वरक खनिज: इसके अंतर्गत कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस एवं नाभिकीय खनिज आते हैं।
भारत में खनिज वितरण
भारत में खनिज संसाधनों का काफी असमान वितरण पाया जाता है। देश के कुल कोयला भंडार का 97 प्रतिशत सोन, दामोदर, गोदावरी एवं महानदी की घाटियों में पाया जाता है। प्रायः सभी पेट्रोलियम भण्डार गुजरात, की कुछ अवसादी बेसिनों, असम तथा महाराष्ट तट की महाद्वीपीय द्रोणियों में पाये जाते हैं। अधिकांश लौह-अयस्क भंडार बिहार, ओडीशा, मध्य प्रदेश, कर्नाटक तथा तमिलनाडु की आर्कियन चट्टानों में स्थित हैं। लगभग सभी अभ्रक संचय बिहार, आंध्र प्रदेश व गुजरात में केन्द्रित हैं। कर्नाटक में समस्त स्वर्ण भंडार स्थित हैं। इसी प्रकार, क्रोमाइट ओडीशा व कर्नाटक, बॉक्साइट बिहार, मध्य प्रदेश एवं गुजरात, मैगनीज मध्य प्रदेश, ओडीशा व महाराष्ट्र तथा तांबा, सीसा एवं जिंक अयस्क बिहार और राजस्थान में पाये जाते हैं।
गौण खनिजों (जिप्सम, स्टिएटाइट, रॉक-फॉस्फेट आदि) तथा बहुमूल्य पत्थरों के भंडार भी राजस्थान तक सीमित है। केरल तट पर पायी जाने वाली इल्मेनाइट रेत या बालू में नाभिकीय ऊर्जा खनिजों का अधिकांश संचय मौजूद है। मेघालय में सिलिमेनाइट, बिहार में काइनाट तथा ओडीशा में डोलोमाइट की प्रचुरता है।
समग्र रूप से यह कहा जा सकता है कि कुछ अपवादों के साथ, मंगलौर के पूर्व से लेकर कानपूर तक फैली चट्टानों की एक रेखा के अंतर्गत कोयला, धात्विक खनिजों, अभ्रक तथा अन्य दूसरे अधात्विक खनिजों के भंडार का अधिकांश पाया जाता है। प्रायद्वीपीय संरचना के पूर्वी तथा पश्चिमी पाश्र्वो (असम एवं गुजरात) पर स्थित अवसादी चट्टानों में देश का अधिकांश पेट्रोलियम भंडार मौजूद है। राजस्थान में प्रायद्वीपीय शैल संरचनाओं के साथ अधिकांश अलौह खनिजों का संचय है।
उक्त क्षेत्रों से बाहर के प्रदेशों (जम्मू-कश्मीर, पंजाब, उत्तर प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा तथा पश्चिम बंगाल का गंगा मैदान) को खनिज संसाधनों की दृष्टि से विपन्न माना जाता है।
खनिज अन्वेषण और विकास
भारत में खनिज संसाधनों के लिए भू-भौतिक अन्वेषण कठिन है, मुख्य रूप से उत्तर में, जहां जलोढ़ मिट्टी की परतें रवेदार चट्टानों से घिरी हैं। पुरातन लावा प्रवाह एवं रेगिस्तान खनिज संसाधनों के प्रभावी अन्वेषण में एक अन्य बाधा है। हालांकि, भारत की अर्थव्यवस्था में खनिजों के महत्व को स्वीकार किया गया है। भारत सरकार ने खनिज संसाधनों के अन्वेषण एवं विकास के लिए कई संगठनों एवं संस्थानों का गठन किया है। उत्खनन को संविधि दर्जा देने के लिए वर्ष 1957 में खदान एवं खनिज (विकास एवं विनियमन) अधिनियम लागू किया गया। भारतीय भूगर्भिक सर्वेक्षण (जीएसआई) सहित कई अन्य महत्वपूर्ण संगठन भारत में खनिज संसाधनों के अन्वेषण एवं विकास में संलग्न हैं। इसके अतिरिक्त मिनरल एक्सप्लोरेशन लिमिटेड (एमईसीएल) इंडियन ब्यूरो ऑफ माइन्स (आईबीएम), तथा सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रम भी इस कार्य में शामिल हैं।
भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण (जीएसआई): यह एक सर्वप्रमुख राष्ट्रीय एवं शोध संगठन तथा यह सरकार के उद्योग एवं सामन्यतया जनता को भू-विज्ञान सुचना प्रदान करने वाला है। साथ ही साथ अंतरराष्ट्रीय भू-वैज्ञानिक मंच पर सक्रिय सहभागी है। 1851 में स्थापित जीएसआई ने वर्षों से देश के आर्थिक एवं सामाजिक विकास में अपनी भूमिका का विस्तार किया है। इसके कार्यक्षेत्र में हिमालय की ऊंची चोटियों से लेकर दूरदराज का अंटार्कटिका महाद्वीप और रेगिस्तानी, समुद्री और आकाशीय क्षेत्र शामिल हैं। यह भूवैज्ञानिक सूचनाओं एवं जानकारियों का संग्रह करता है, उन्हें अद्यतन रखता है और इसके लिए जमीनी, समुद्री तथा आकाशीय सर्वेक्षण करता है।
इंडियन ब्यूरो ऑफ माइंस (आईबीएम): यह देश में खनिज संसाधनों के वैज्ञानिक विकास के संवर्धन में लगा हुआ है। खनिजों का संरक्षण और खानों में पर्यावरण की रक्षा, कोयला, पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस, आण्विक खनिज और छोटे खनिजों को छोड़कर उनकी रक्षा करता है। यह विनियामक कार्य करता है अर्थात् खनिज संरक्षण और विकास नियमावली, 1988 को लागू करना, खान और खनिज (विकास और विनियमन) अधिनियम, 1957 के संगत प्रावधानों को लागू करना, खनिज रियायत नियमावली, 1960 और पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 और उनके अधीन बनाए गए नियमों का प्रवर्तन करना।
यह खनिज संसाधनों के भू-गर्भ विज्ञानी मूल्यांकन के लिए खनन उद्योग को परामर्शी सेवाएं मुहैया कराता है, खनन परियोजनाओं के लिए तकनीकी व्यवहार्य रिपोर्ट प्रदान करता है। इसमें लाभकारी संयंत्र भी शामिल हैं। यह खनिज उद्योग, व्यापार और विधायी मामलों पर राज्य और केंद्र सरकार की सलाह देता है।
मिनरल एक्सप्लोरेशन कारपोरेशन ऑफ इंडिया (एमईसीएल): मिनरल एक्सप्लोरेशन ऑफ इंडिया (एमईसीएल) को सरकार द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम के रूप में 1972 में स्थापित किया गया है। इसका मुख्य उद्देश्य खनिज पदार्थों के व्यवस्थित अनुसंधान एवं खनिज पदार्थों के भविष्य एवं इसके संभावित दोहन के बीच सेतु बनाना है। इसके मुख्य कार्य खनिज संसाधनों के अनुसन्धान के ली योजना प्रोत्साहन, संगठन एवं क्रियान्वयन कार्यक्रमों को तैयार करना है। एमईसीएल का मुख्यालय नागपुर में है।
राष्ट्रीय खनिज नीति
नवीन राष्ट्रीय खनिज नीति मार्च 1993 में घोषित की गयी थी । खनिजों के दोहन एवं निर्यात में निवेश हेतु घरेलू तथा विदेशी कंपनियों पर कोई प्रतिबंध नहीं है। अब कोई भी विदेशी नागरिक किसी खनन कपनी में अंश धारण कर सकता है। खनन सम्बंधी पट्टों की अवधि में व्यापक स्थिरता की उपलब्धि को सुनिश्चित किया गया हैं। नई खनिज नीति का निर्माण नवीन आर्थिक नीति के प्रकाश में किया गया है। सार्वजनिक क्षेत्र को खनिजों के दोहन में वृद्धि न ला सकने का जिम्मेदार माना गया है। फरवरी 1997 में केंद्र सरकार द्वारा कोयला एवं लिग्नाइट खानों पर से राज्य एकाधिकार को समाप्त करने का निर्णय लिया गया। कोयला खान (राष्ट्रीयकरण) अधिनियम, 1973 को संशोधित करके भारतीय कपनियों को कोयला एवं लिग्नाइट के खनन का अधिकार दिया गया है। विदेशी कपनियां मात्र अंशधारिता के माध्यम से खनन कायों में भागीदार बन सकती हैं। तेल क्षेत्र को खनिज नीति में शामिल नहीं किया गया है, क्योंकि तेल खोज प्रक्रिया में निजी कंपनियों को पृथक् रूप से शामिल होने की अनुमति प्रदान की गयी है। आणविक खनिजों (यूरेनियम आदि) को उनकी संवेदनशील प्रकृति के कारण खनिज नीति के दायरे से बाहर रखा गया है। एक महत्वपूर्ण निर्णय के तहत 13 खनिजों को निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया गया है। अब लौह अयस्क, मैगनीज, क्रोमियम, सल्फर, सोना, हीरा, जस्ता, तांबा, सीसा, टंगस्टन, मॉलिब्डेनम, प्लेटिनम एवं निकिल खनिजों की खोज एवं दोहन का कार्य निजी कंपनियों को सौंपा जा सकता है।
खनिज नीति के मूल उद्देश्य निम्नलिखित हैं-
- भूमि और तटीय इलाकों में खनिज सम्पदा के अभिचिन्हांकन के लिए खोज
- राष्ट्रीय और सामरिक बैटन को दृष्टिगत करते हुए खनिज संसाधनों का विकास करना और उनकी पर्याप्त आपूर्ति और वर्तमान की आवश्यकताओं और भावी अपेक्षाओं के मद्देनजर सर्वोत्तम उपयोग सुनिश्चित करना।
- देश की आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए खनिज उद्योग के सुचारू एवं निर्विघ्न विकास के लिए आवश्यक संबंध का संवर्धन करना।
- खनिजों में अनुसंधान और विकास का संवर्धन करना।
- खनिज उद्योग की जनशक्ति की आवश्यकता अकी पूर्ति करने के लिए मानव संसाधन विकास के लिए उपयुक्त शैक्षिक और प्रशिक्षण सुविधाओं की स्थापना सुनिशिचत करना।
- उपयुक्त रक्षात्मक उपायों के द्वारा वन, पर्यावरण और पारिस्थितिकी पर खनिज विकास के प्रतिकूल प्रभाव को कम करना।
- देश मं खनन के लिए निवेश माहौल सुधारना और
- सभी संबंधित व्यक्ति की सुरक्षा और स्वास्थ्य को अहम मानते हुए खनन कार्य करना सुनिश्चित करना।
राष्ट्रीय खनिज नीति की समीक्षा के लिए योजना आयोग द्वारा गठित होदा समिति की सिफारिशों के आधार पर सरकार ने एक नई राष्ट्रीय खनिज नीति, 2008 को मंजूरी दी। यह नीति निम्नलिखित बातों की वकालत करती है।
- उत्खनन के लिए अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल
- खनन में शून्य बर्बादी
- सर्वेक्षण एवं आकलन में जोखिम भरा निवेश आकर्षित करने के लिए पूंजी बाजार ढांचे का विकास
- रियायतें देने में पारदर्शिता
- स्वतंत्र खनन प्रशासन पंचाट
- जैव विविधता जैसे मुद्दों का ध्यान रखने के लिए टिकाऊ विकास की रूपरेखा तैयार करना।
- मौजूद एमएमडीआर कानून की जगह नया कानून लाने के लिए एक मसौदा विधेयक सरकार के विचाराधीन है और राज्य सरकारों एवं उद्योग सहित अन्य भागीदारों के साथ परामर्श की प्रक्रिया जारी है।
संरक्षण और सावधानी की आवश्यकता
व्यापार एवं विनिमय दर नीति के उदारीकरण के संदर्भ में, सरकार पर निर्यात दर में वृद्धि करने का बेहद दबाव है। यह खनिज संसाधनों के अंधाधुंध दोहन को बढ़ावा देगा तथा विदेशी मुद्रा अर्जन में वृद्धि करेगा। खनिज संसाधनों की निर्यात नीति समस्त औद्योगिक, व्यापार एवं निवेश नीति का हिस्सा होनी चाहिए तथा ऐसे निर्यात से अर्जित की गई विदेशी मुद्रा को उत्पादक कार्यों के उपयोग तथा कच्चे माल के आयत के लिए रखना चाहिए ह्जिस्से भारत की दीर्घावधिक निर्यात से अर्जित की गई विदेशी मुद्रा को उत्पादक कार्यों के उपयोग तथा कच्चे माल के आयात के लिए रखना चाहिए जिससे भारत की दीर्घावधिक निर्यात क्षमता विकसित हो सके। सरकार को खनिज क्षेत्र में सतर्क रहना चाहिए। सरकार को खनिज दोहन की अधिक उदार नीति का पर्यावरण प्रभाव पर खास निगरानी रखनी चाहिए। निजी क्षेत्र का इस मामले में, घरेलू एवं विदेशी दोनों ही मामले में रिकार्ड बेहद निराशाजनक रहा है ।
खनिजों के उत्खनन को न्यायसंगत तथा विवेकपूर्ण तरीके से किए जाने की आवश्यकता है तथा इसके संरक्षण पर बल दिया जाना चाहिए क्योंकि खनिज अनवीकरणीय होते हैं। इसके उत्खनन की प्राविधियों को भी अधिक दक्ष बनाना पड़ेगा। खनिज का इस्तेमाल करने वाले उद्योगों को जहां तक संभव या यथासाध्य हो इसके स्रोत के नजदीक होना चाहिए। अपशिष्ट को न्यूनतम किया जाना चाहिए, तथा स्क्रैप का पुनर्चक्रीकरण किया जाना चाहिए। उत्खनन सतत् होना चाहिए, और उत्खनन के पर्यावरणीय प्रभावों को उत्खनन प्रोजेक्ट में उल्लिखित किया जाना चाहिए।