भारत में चित्रकला का विकास हुमायूँ के शासन-काल में प्रारंभ हुआ। शेरशाह से पराजित होने के बाद जब वह ईरान में निवास – तारीख-ए-खानदानी तैमुरिया की पाण्डुलिपि को चित्रित करने के लिए इरानी चित्रकारों की सेवा प्राप्त की। ये चित्रकार मीर सैयद अली सिराजी और ख्वाजा अब्दुल समद तबरीजी थे। सिराजी एवं तबरिजी का निर्णायक रूप से पडा। भारतीय चित्रकार अधिकतर धार्मिक विषयों का चित्रण करते थे। जबकि इरानी चित्रकारों ने राजदरबारों के जीवन, युद्ध के दृश्य आदि का चित्रण किया। सल्तनत काल से ही भारत में कागज का प्रयोग लोकप्रिय होने लगा था।
अकबर के समय चित्रकला- मीर सैयद अली और ख्वाजा अब्दुस समद अकबर के दरबार में थे। अबुल फजल के अनुसार अकबर ने उन्हें सीरीन-ए-कलम की उपाधि दी। अकबर के समय सबसे बड़ी योजना हम्जानामा का चित्रण 1562 ई. में प्रारंभ हुआ। इसे ही दास्तान-ए-अमीर-हम्जा कहा जाता है। इसमें अकबर के यौवन काल का सजीव चित्रण है। अबुल फजल, बदायूंनी और शाहनवाज खाँ का मानना है कि इसके चित्रण का कार्य अकबर की प्रेरणा से प्रारंभ हुआ और सबसे पहले मीर सैयद अली के मार्ग निर्देशन में यह प्रारंभ हुआ। फिर इसे ख्वाजा अब्दुससमद के निर्देशन में पूरा किया गया। मुल्ला दाउद कजवीनी का मानना है कि हम्जानामा हुमायूँ की मस्तिष्क की उपज था और यह मीर सैयद अली के मार्ग निर्देशन में संपन्न हुआ। अबुल फजल के अनुसार अकबर के तस्वीरखाना में 17 कलाकार थे परंतु वास्तविक संख्या अधिक भी हो सकती है। इनमें हिन्दुओं की संख्या अधिक थी। इनमें से कुछ हैं- दसबंत, बसाबन, केशव लाल, मुकुंद, मिशिकन, फारूख, कलमक, माधो, जगन, महेश, हेमकरन, तारा, साबल, हरिवंश, राम आदि।
इस काल में चित्रकारी सामूहिक प्रयास था। एक से अधिक कलाकार मिलकर किसी चित्र का निर्माण करते थे। कलाकार नकद वेतन प्राप्त कर्मचारी थे। अकबर के समय चित्रकला के मुख्य रूप से दो विषय थे- 1. दरबार की प्रतिदिन की घटनाओं का चित्रण 2. छवि चित्रण।
अकबर के समय में ही मुगलं चित्रकला पर भारतीय प्रभाव गहरा हो गया। 1562 ई. में जब मुगल दरबार में तानसेन के आगमन का प्रसिद्ध चित्र बनाया गया, हिन्दू एवं फारसी पद्धति का सहयोग दिखने लगा। फतेहपुर सिकरी के दीवारों पर हिन्दू एवं मुसलमान दोनों कलाकारों के संयुक्त परिश्रम से चित्रकारी की गयी। अकबर के दरबार में अब्दुसमद, फरुख बेग, खुसरो कुली एवं जमशेद विदेशी कलाकार थे। अकबर कहा करता था कि मुझे प्रतीत होता है कि मानो चित्रकार को ईश्वर को पहचानने का एकदम विचित्र साधन होता है। अकबर के समय दसबत अपने समय का पहला अग्रणी चित्रकार था। वह एक कहास् का बेटा था। उसने रज्मनामा का चित्रण किया। बाद में वह विक्षिप्त हो गया और 1584 ई. में उसने आत्महत्या कर ली। अब्दुस समद का दरबारी पुत्र मुहम्मद शरीफ ने रज्मनामा का पर्यवेक्षण किया। अकबर के समय कुछ महत्त्वपूर्ण कृतियों की पांडुलिपि तैयार की गयी जो निम्नलिखित है- रामायण, अकबरनामा, अनबर सुहाय, बाबरनामा, खम्सा, तारीख-ए-अल्फी, कालियादमन। इस काल में विशेष कर राजपूत चित्रकला ने मुगल चित्रशैली को प्रभावित किया। इसकी विशेषता चौड़े ब्रश की जगह गोल ब्रश का प्रयोग थी। इसके साथ गहरे नीले रंग एवं गहरे लाल रंग का अधिक प्रयोग होने लगा। अकबर के शासनकाल में यूरोपीय चित्रकला का प्रभाव भी मुगल चित्रकला शैली पर पड़ा था। यूरोपीय चित्रकला के कुछ नमूने पूर्तगालियों के माध्यम से अकबर के दरबार में पहुँचे। इससे मुगल चित्रकारों ने दो विशेषताएँ ग्रहण कीं- 1. व्यक्ति विशेष का चित्रण 2. दृश्य में आगे दिखने वाली वस्तुओं को छोटे आकार में बनाना (Technique of Foreshortening).
सलीम– शाहजादा सलीम ने आगा रेजा नामक एक हेराती प्रवासी चित्रकार के नेतृत्व में आगरा में एक चित्रणशाला प्रारंभ की।
जहाँगीर– जहाँगीर का शासनकाल मुगल चित्रकला के चर्मोत्कर्ष का युग था। जहाँगीर के काल में चित्रकला की दो महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ थीं-
जहाँगीर के समय छवि-चित्रण की तुलना में पांडुलिपि के चित्रण का महत्त्व कम हो गया। जहाँगीर की चित्रकला में दो नए तत्व जुड़ गए- 1. इसकी चित्रकला शैली में रूपवादी शैली की प्रधानता है। 2. इसने चित्रकला को यथार्थवादी बनाने और चित्रण करने का प्रयास किया।
इस काल के चित्रों में चौड़े हासिए का प्रयोग हुआ। जिन्हें फूल-पत्तियों, पेड़-पौधों और मनुष्यों की आकृतियों से अलंकृत किया जाता था। शिकार, युद्ध तथा राजदरबार के दृश्यों को चित्रित करने के अतिरिक्त जहाँगीर के काल में जानवरों के चित्र बनाने की कला अधिक विकसित हुई। इस क्षेत्र में उस्ताद मंसूर का बहुत नाम था। तुजुक-ए-जहाँगीरी ही एकमात्र पांडुलिपि चित्र का उदाहरण है। जहाँगीर के काल से ही राजा के दैवी अधिकार के सिद्धांतों को चित्रकला का विषय बनाया गया। शाहजहाँ के काल में यह और भी महत्त्वपूर्ण हो गया। जहाँगीर के दरबार में फारसी चित्रकार आगा रेजा, अबुल हसन, मुहम्मद नादिर, मुहम्मद मुराद और उस्ताद मंसूर थे। हिन्दू चित्रकारों में बिशनदास और गोवर्द्धन प्रमुख थे। जहाँगीर के दरबार में चित्रकार दोलत था जिसने बादशाह के आदेश पर अपने साथी चित्रकारों का चित्र तैयार किया। जहाँगीर ने बिशनदास को इरान के दरबार में भेजा था और उससे कहा गया था कि वह फारस के शाह और उसके महत्त्वपूर्ण अमीर और संबंधियों के चित्र उतार कर लाएं। उस्ताद मंसूर तथा अबुल हसन की विशेषता की तारीफ करते हुए उन दोनों को क्रमश: नादिर-उल-असर और नादिर-उज-जमाँ की उपाधि दी गयी।
आरंभ में मनोहर, नन्हा तथा फारूख बेग को छवि चित्र तैयार करने का काम सौंपा गया। तुजुक-ए-जहाँगीरी में मनोहर का नाम नहीं मिलता है। जहाँगीर के काल के एक चित्र में ईरान के शाह अब्बास का स्वागत करते हुए तथा गले लगाते हुए जहाँगीर को दिखाया गया है और पैरों के नीचे एक ग्लोब है परंतु वास्तविकता यह है कि जहाँगीर शाह अब्बास से कभी नहीं मिला था। उसी तरह जहाँगीर के कट्टर शत्रु मलिक अम्बर के कटे सिर पर जहाँगीर को पैर मारते हुए दिखाया गया है जबकि जहाँगीर उसे युद्ध में हरा नहीं पाया था। मनोहर, बिशनदास और मंसूर ये सभी अकबर के शासनकाल के अंतिम वर्षों में आ चुके थे। मनोहर, बसाबन का पुत्र था। जहाँगीर के समय यूरोपीय चित्रकला का प्रभाव और भी गहरा हो गया। यूरोपीय चित्रकला के प्रभाव में जहाँगीर के चित्रकारों ने निम्नलिखित विषय चुने-
1. यीशु का जन्म 2. कुमारी मरीयम और शिशु 3. विभिन्न संतों के शहीद होने का चित्र 4. प्रभामंडल 5. पंख वाले देवदूत 6. गरजते बादल।
किंतु मुगल चित्रकारों ने तैल चित्रकला को नहीं अपनाया। जहाँगीर स्वयं चित्रकला का अच्छा पारखी था। उसने तुजुक-ए-जहाँगीरी में लिखा है कि मैं चित्र देखकर ही बता सकता हूँ कि इसे किसने बनाया है। इसके अलग-अलग हिस्से को किस-किस चित्रकार ने बनाया है। एक बार जहाँगीर के आग्रह पर सर टॉमस रो द्वारा लाए गए चित्र का हुबहू उसके दरबारी चित्रकारों ने बना दिया। इतना तक कि सर टॉमस रो भी मूल चित्र को नहीं पहचान सका।
शाहजहाँ और औरंगजेब- शाहजहाँ के समय चित्रकला में वह सजीवता नहीं है जो जहाँगीर के समय थी। इसमें
अलंकरण पर बहुत बल दिया गया है और रंगों के बदले सोने की सजावट पर अधिक बल दिया गया है और औरंगजेब के समय तो चित्रकला का अवसान ही हो गया।
राजस्थानी चित्रकला- मेवाड़, आमेर, बूंदी, गुजरात, जोधपुर, मालवा आदि राजस्थानी चित्रकला के महत्त्वपूर्ण केन्द्र थे। राजस्थानी चित्रकला में प्रकृति चित्रण को महत्त्वपूर्ण माना गया है। गीत गाते पंछी और उछलते कूदते पशु चित्रकला के लोकप्रिय विषय थे। मेवाड़ का निथारदीन घराना राजस्थानी समूह का प्राचीनतम स्कूल है। जोधपुर और नागोर स्कूल की विशेषता यह थी कि इनमें मनुष्य की आँखें, मछली की आँख की तरह बनायी जाती थी। दूसरी तरफ किशनगढ़ स्कूल अधिक गीतात्मक और संवेदनशील है। इसे प्रारंभ करने का श्रेय महाराजा सावंत सिंह को है। 10वीं सदी के उत्तरार्द्ध में कांगड़ा स्कूल के द्वारा, जिसकी एक शाखा टिहरी गहड़वाल स्कूल थी, अत्यंत सुंदर चित्र बनाये गये और 19वीं सदी के प्रारंभ में यह पंजाबी और सिक्ख चित्रकला के रूप में विकसित हुआ।
कांगड़ा शैली का सबसे कुशल चित्रकार भोलाराम था। वह गढ़वाल का था। भोला राव का रंगों का प्रयोग बहुत ही सुन्दर है और पशुओं, पेड़-पौधों आदि के उसके चित्र अपनी सुस्पष्ट प्राचीन परम्पराओं के बावजूद कूंची के बारीक कान और सौन्दर्य के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। उसके रात्रि के चित्र विशेष रूप से सुन्दर हैं।
संगीत कला
अबुल फजल के अनुसार अकबर के दरबार में 36 गायक थे जिनमें सबसे प्रमुख तानसेन एवं बाजबहादुर थे। तानसेन ध्रुपद गायक था। उसके प्रारंभिक गुरु मुहम्मद गौस थे। फिर उसने स्वामी हरीदास से संगीत की शिक्षा पायी थी। उसने रूद्रवीणा नामक वाद्ययंत्र की खोज की। साथ ही उसने मियाँ की मल्हार, मियाँ की तोड़ी, दरबारी कान्हीर आदि रागों का अविष्कार किया। तानसेन का प्रारंभिक नाम रामतनु पाण्डेय था। तानसेन के विषय में अबुल फज़ल ने लिखा है, उसके समान गायक पिछले हजार वर्षों में भी भारत में नहीं हुआ।
शाहजहाँ स्वयं एक अच्छा गायक था। इसके दरबार में तानसेन के दामाद लाल खाँ और तानसेन के पुत्र विलास खाँ रहते थे। उसके दरबार में सुख सेन और पंडित जगन्नाथ भी रहते थे। शाहजहाँ ने लाल खाँ को गुणसमुद्र एवं पंडित जगन्नाथ को महाकवि राय की उपाधि दी।
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