मुगल भारत के लोगों का सामाजिक जीवन एवं आर्थिक अवस्था का इतिहास अधिक रोचक एवं महत्त्वपूर्ण है। इनके अध्ययन के साधन वास्तव में कम हैं, किन्तु समकालीन यूरोपीय यात्रियों के विवरणों तथा यूरोपीय कारखानों के कागजात से बहुमूल्य सूचनाओं का संग्रह किया गया है। उस युग के पारसी एवं देशी साहित्यों के समकालीन ऐतिहासिक ग्रंथों में आकस्मिक उल्लेख मिल जाते हैं।
समाज सामन्तवादी संस्था के समान दीखता था, जिसके शीर्ष पर बादशाह था।
बादशाह के नीचे पदाधिकारी सरदार थे। इन्हें विशेष सम्मान एवं अधिकार थे, जो साधारण जनता के भाग्य में कभी नहीं पड़े। इससे स्वभावत: उनके रहन-सहन के स्तर में अन्तर पैदा हो गया। पदाधिकारी सरदार धन एवं आराम से रहते थे, जबकि साधारण जनता की अवस्था अपेक्षाकृत दयनीय थी। अपने पास अत्याधिक साधन रहने के कारण धनी पुरुष स्वभावत: भोग-विलास तथा मद्यपान में लीन रहते थे। मृत्यु के पश्चात् अपने धन एवं जायदाद के राज्य द्वारा लिये जाने के भय से सरदारों में मितव्ययता की प्रेरणा नष्ट हो गयी। अमीरों में मदिरा एवं स्त्रियों के प्रति घोर आसक्ति एक आम बुराई थी।
यहाँ पर यह याद रखना चाहिए कि साधारणत: विदेशी सरदारों के रहने से देश का धन अधिक मात्रा में विदेशों को नहीं चला जाता था, क्योंकि उस वर्ग का कोई इसे देश के बाहर नहीं ले जा सकता था। प्रारम्भ में सरदारों में ऐसे गुण थे कि जब तक वे अपनी शक्ति को बनाये रहे, तब तक राज्य के योग्य सेवक बने रहे। परन्तु शाहजहाँ के राज्यकाल के अन्तिम वर्षों से उनकी पुरानी उपयोगिता नष्ट होने लगी तथा उनका आचार अधिक भ्रष्ट होने लगा। औरंगजेब के राज्यकाल तथा अठारहवीं सदी में उनका और भी पतन हुआ। उत्तर काल के स्वार्थी एवं पतित सरदारों की प्रतिद्वन्द्विताओं एवं षड्यंत्रों ने सामाजिक जीवन पर तो दूषित प्रभाव डाला ही, साथ ही उस युग की राजनैतिक अव्यवस्थाओं में भी उनका बहुत बड़ा हाथ रहा।
सरदारों के नीचे ठाटबाट के खर्चों से बचा हुआ एक छोटा और मितव्ययी मध्यम वर्ग था। इसके रहन-सहन का स्तर इसके पदों एवं धंधों के अनुकूल था। व्यापारी आमतौर पर सरल एवं संयमी जीवन व्यतीत करते थे।
दोनों उच्चतर वर्गों की हालत से तुलना करने पर निचले वर्गों की हालत बुरी थी। उनके कपडे पूरे नहीं होते थे। ऊनी पोशाक एवं जूते उनके साधन से परे थे। उनकी अन्य आवश्यकताएँ कम रहती थीं। इसलिए साधारण परिस्थिति में उनके लिए सामान्य भोजन का अभाव नहीं था। परन्तु दुर्भिक्ष और महँगाई के समय में उनके कष्ट और विपन्नता अवश्य बहुत बढ़ जाते रहे होंगे।
हिन्दू तथा मुसलमान दोनों ही ज्योतिष-विद्या के सूत्रों और भविष्यवाणियों में विश्वास करते थे। उस युग की प्रधान सामाजिक रीतियाँ थीं-सती-प्रथा, बाल-विवाह, कुलीन-प्रथा तथा दहेज-प्रथा। अकबर ने सामाजिक प्रथाओं को इस प्रकार नियमित करने का प्रयत्न किया जिससे विवाहों में दुल्हा तथा दुल्हिन की स्वीकृति एवं माता-पिता की अनुमति आवश्यक हो जाए। वह दोनों पक्षों के वयस्क होने के पहले विवाह, निकट सम्बन्धियों के बीच विवाह, अत्याधिक दहेज की स्वीकृति तथा बहुविवाह को रोकना चाहता था। परन्तु उसके प्रयत्न व्यवहार में सफल हुए मालूम नहीं पड़ते। अठारहवीं सदी में सामाजिक बुराईयाँ-विशेष रूप से बंगाल में बढ़ गयीं। तथा बोल्ट्स क्रौफर्ड एवं स्क्रैफ्टन जैसे समकालीन यूरोपीय लेखकों की किताबों तथा समकालीन साहित्य में इनकी ओर बार-बार संकेत किया गया है। परन्तु तत्कालीन मराठा समाज देहज की स्वीकृति को प्रोत्साहन नहीं देता था। पेशवा महाराष्ट्र के सामाजिक एवं धार्मिक मामलों पर काफी नियंत्रण रखते थे तथा डाक्टर सेन कहते हैं कि उनके विवाह सम्बन्धी नियमों में वह उदार भाव पाया जाता था, जिसका अनुकरण करके उनके आधुनिक वंशज लाभान्वित हो सकते हैं। वे बलपूर्वक विवाहों के विरुद्ध थे, परन्तु कभी-कभी नियम विरुद्ध विवाहों की अनुमति दे देते थे, यदि उभय पक्षों के अभिप्राय ठीक होते थे। महाराष्ट्र के गैर-ब्राह्मणों तथा पंजाब एवं यमुनाघाटी के जाटों में विधवा-विवाह प्रचलित था। उपर्युक्त जाटों में बहुपतित्व अज्ञात नहीं था। अठारहवीं सदी के मध्य में ढाका के राजा राजवल्लभ ने विधवा-विवाह चलाने का असफल प्रयत्न किया। यद्यपि स्त्रियाँ साधारणत: अपने स्वामी की इच्छा के अधीन रहती थीं, किन्तु राजनैतिक मामलों में उनके सक्रिय भाग लेने के दृष्टान्त भी अप्राप्य नहीं हैं।