गुप्त साम्राज्य
गुप्त साम्राज्य इतिहास का उदय तीसरी शताब्दी के अंत में प्रयाग के निकट कौशाम्बी में हुआ ।
इतिहास जानकारी के स्त्रोत-
अभिलेखों
चन्द्रगुप्त का इलाहाबाद स्तम्भ अभिलेख, उदयगिरि गुफा अभिलेख, सांची शिलालेख तथा महरौली के लौह स्तम्भ अभिलेख । भूमि संबंधी दस्तावेज और सिक्के उस समय की आर्थिक दशा की जानकारी देते है ।
साहित्यिक स्त्रोत
चीन के यात्री फाह्यान की पुस्तक और कालीदास द्वारा लिखित ऋतु संहार, मेघदूत, अभिज्ञान, शाकुन्तलम् इन सब की सहायता से ही गुप्त साम्राज्य काल के इतिहास की कड़ियों को जोड़ना सम्भव हुआ है ।
चौथी शताब्दी में उत्तर भारत में एक नए राजवंश का उदय हुआ। इस वंश का नाम गुप्तवंश था. इस वंश ने लगभग 300 वर्ष तक शासन किया। इस वंश के शासनकाल में अनेक क्षेत्रों का विकास हुआ. इस वंश के संस्थापक श्रीगुप्त थे। गुप्त वंशावली में श्रीगुप्त, घटोत्कच, चन्द्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, रामगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय, स्कन्दगुप्त जैसे शासक हुए । इस वंश में तीन प्रमुख शासक थे – चन्द्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त द्वितीय (विक्रमादित्य)।
श्रीगुप्त :– गुप्त सेना के पूर्व में स्थित ताम्रपत्र अभिलेख में भी गुप्त का उल्लेख गुप्त वंश के आदिराज के रूप में किया गया है। लेखों में इसका गोत्र धारण बताया गया है। इनका शासन काल 240 से 280 ई. तक रहा। श्रीगुप्त ने महाराज की उपाधि धारण की। इत्सिंग के अनुसार श्रीगुप्त ने मगध में एक मंदिर का निर्माण करवाया तथा मंदिर के लिए 24 गॉव दान में दिए थे।
घटोत्कच गुप्त :- लगभग 280 ई. में श्रीगुप्त ने घटोत्कच को अपना उत्तराधिकारी बनाया। इसने भी महाराज की उपाधि धारण की।प्रभावती गुप्त के पूना व रिधपुर ताम्रपत्र अभिलेखों में घटोत्कच को गुप्त वंश का प्रथम राजा बताया गया हैइसका राज्य सम्भवत मगध के समीवर्ती क्षेत्र तक ही सीमित था। उसने लगभग 319 ई. तक शासन किया।
चंद्रगुप्त I:-गुप्त वंश का प्रथम वास्तविक संस्थापक शासक था। घटोत्कच के पुत्र चंद्रगुप्त प्रथम ने गुप्त साम्राज्य की नींव डाली। गुप्त साम्राज्य का प्रथम स्वतंत्र शासक जिसने महाराजधिकार की उपाधि धारण कर उन्होंने पाटलिपुत्र को राजधानी बनाया। चंद्रगुप्त प्रथम ने 319 ई. में गुप्त संवत की स्थापना की जिसका उल्लेख मथुरा अभिलेख में मिलता है। चंद्रगुप्त प्रथम शासक था जिसने सोने का सिक्का चलवाया जिसके एक ओर चंद्रगुप्त- कुमारदेवी का चित्र व दूसरी ओर लक्ष्मी का चित्र अंकित था। चंद्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवी राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह किया था।
समुद्रगुप्त :- समुद्रगुप्त, गुप्त वंश का एक महान योद्धा तथा कुशल सेनापति था। इसी कारण उसे विसेंट आर्थर स्मिथ ने अपनी अलीं हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया में समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहा था। सम्राट अशोक शान्ति व अनाक्रमण नीति में विश्वास करता था तो समुद्रगुप्त हिसा व विजय में विश्वास करता था।
चंद्रगुप्त- II (विक्रमादित्य) :- चंद्रगुप्त द्वितीय के शांसनकाल में गुप्त साम्राज्य अपने चरमोत्कर्ष को प्राप्त हो गया था। चंद्रगुप्त का साम्राज्य पश्चिम में गुजरात से लेकर पूर्व में बंगाल तक तथा उत्तर में हिमालय की तलहटी से दक्षिण में नर्मदा नदी तक विस्तृत था। चंद्रगुप्त द्वितीय का काल साहित्य और कला का स्वर्ण युग कहा जाता है। इसने रजत मुद्राओं का सर्वप्रथम प्रचलन करवाया था। चंद्रगुप्त द्वितीय के दरबार में 9 रत्न थे।
कुमारगुप्त- I :- उसके स्वर्ण सिक्कों पर उसे गुप्तकुलामल चन्द्र व गुप्तकुल व्योमशाशि कहा गया है। शक्रादित्य को कुमारगुप्त की उपाधि महेन्द्रादित्य का समानार्थी माना गया है। कुमारगुप्त की मुद्राओं में गरुड़ के स्थान पर मयूर की आकृति अंकित की गयी। कुमारगुप्त ने अश्वमेघ यज्ञ किया तथा अश्वमेघ प्रकार की मुद्रा चलाई। कुमारगुप्त प्रथम के शासन काल में नालंदा विश्वविद्यालय की स्थापना की गयी थी।
स्कंदगुप्त :- स्कंदगुप्त गुप्त वंश का अंतिम प्रतापी शासक था। हूणों का गुप्त पर आक्रमण स्कंदगुप्त के शासनकाल की महत्वपूर्ण घटना थी। श्वेत हूणों को पूर्वी हूण भी कहा जाता है, जिन्होंने हिंदू कुश पार कर गांधार प्रदेश कब्ज़ा कर गुप्त साम्राज्य का अभियान पूरा किया। सौराष्ट्र के गवर्नर पर्यटन के पुत्र चक्र्गणित ने सुदर्शन झील के तट पर विष्णु मूर्ति भी स्थापित कराई थी।
पुरुगुप्त :- यह कुमारगुप्त प्रथम का ही पुत्र तथा स्कंद्पुत्र का सौतेला भाई था। संभवत स्कंदगुप्त संतानहीन था और उसके बाद सत्ता पुरूगुप्त के हाथों में आयी। चूँकि वह वृधावस्था में राजा हुआ, अत उसका शासन अल्पकालीन रहा। उसके समय में गुप्त साम्राज्य की अवनति प्रारंभ हो गयी थी।
कुमारगुप्त दितीय :- पुरूगुप्त का उत्तराधिकारी कुमारगुप्त दितीय हुआ। सारनाथ से गुप्त संवत 154 का उसका लेख मिलता है जो बौद्ध प्रतिभा पर खुदा हुआ है। यह निश्चित रूप से पता नही कि वह स्कंदगुप्त का पुत्र
। सारनाथ लेख में भूमि रक्षित कुमारगुप्ते उत्कीर्ण मिलता है। उल्लेखनीय है कि यहाँ कुमारगुप्त को महाराज भी नही कहा गया है।
गुप्त साम्राज्य की आर्थिक दशा
कृषि
चीनी यात्री फाहियान से पता चलता है कि गुप्तकाल में भारतीय आर्थिक जीवन उन्नत था. लोगों में परस्पर दान देने की होड़ लगी होती थी. कृषि बहुत उन्नत स्थिति में थी. अनेक प्रकार के अनाजों के अलावा फल तथा तिलहन आदि की खेती की जाती थी. सरकार किसानों से भू-कर के रूप में उपज का 1/6 भाग लेती थी. परन्तु कुछ ब्राह्मणों तथा अधिकारियों को कर-मुक्त भूमि दी गई थी. इनमें से कई अधिकारियों को किसानों से कर वसूल करने का अधिकार भी था. यह घटना गुप्तकाल की एक महत्वपूर्ण आर्थिक घटना थी. किसानों को बेगार करने के लिए मजबूर किया था. गुप्तकालीन भारतीय उद्योग धन्धों की स्थिति बहुत समृद्ध थी. लौह इस्पात उद्योग के साथ-साथ समुद्री-पोत निर्माण का उद्योग भी देश में उन्नत था. फाहियान लिखता है कि देश में सोने, चांदी आदि धातुओं की मूर्तियां बनाई जाती थीं. हाथी दांत से भी अनेक प्रकार की वस्तुएं तैयार की जाती थीं. विभिन्न प्रकार के शिल्पकारों के संघ बने हुए थे जिन्हें ‘गिल्ड या श्रेणी’ कहा जाता था. इस शिल्पकारों की संस्थाओं के पास काफी धन हुआ करता था जो वे जनता की भलाई के कार्यो पर व्यय किया करती थीं.
व्यापार तथा नगर
फाहियान हमें जतलाता है कि मगध राज्य में अनेक नगर थे तथा वहां धनी व्यापारी रहते थे. इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि व्यापार बहुत विस्तृत था. व्यापार देश के एक कोने से दूसरे कोने तक होता था. सभी मार्ग सुरक्षित थे. जनता का नैतिक स्तर ऊंचा था. इसलिए लूटमार कम होती थी. शान्ति एवं सुरक्षा को व्यवस्था ने व्यापार को खूब बढ़ाया. गंगा, ब्रह्मपुत्र आदि नदियों में बड़-बड़े नावों द्वारा माल लाया ले जाया जाता था. व्यापारी वर्ग के लोग केवल धन कमाने में ही न लगे रहते थे बल्कि उनमें दान देने के लिए आपस में होड़ लगी रहती थी. मगर गुप्तकाल में विदेशी व्यापार का पतन होने लग गया था. सन् 550 ई० तक भारत का पूर्वी रोमन साम्राज्य के साथ थोड़ा बहुत रेशम का व्यापार होता था. सन् 550 ई० के आसपास पूर्वी रोमन साम्राज्य के लोगों ने चीनियों से रेशम पैदा करने की कला सीख ली. इससे भारत के निर्यात व्यापार पर कुप्रभाव पड़ा. छठी शताब्दी ई० के मध्य के पहले ही विदेशों में भारतीय रेशम के लिए मांग कमजोर पड़ गई थी. ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर कहा जाता है पांचवीं शताब्दी के मध्य में रेशम बुनकरों की श्रेणी (गिल्ड) पश्चिम भारत स्थित अपने मूल निवास स्थान लौट देश को छोड़कर मंदसौर चली गई. उन्होंने अपना मूल व्यवसाय छोड़कर अन्य पेशे अपनाए. गुप्तकाल में सारी गंगा घाटी के अधिकांश शहरों का जो पहले (विशेषकर कुषाण काल में) बहुत ज्यादा समृद्ध थे, विघटन शुरू हो गया. इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि पाटलिपुत्र जैसा महत्वपूर्ण राजधानी नगर भी ह्वेनसांग के काल तक गाँव बन गया था. मथुरा जैसा महत्वपूर्ण व्यापार-केन्द्र भी विधटन के चिन्ह प्रस्तुत करता है. कुम्रहार, सोनपुर, सोहगौरा और उत्तर प्रदेश में गंगा घाटी के कई महत्त्वपूर्ण केन्द्र हूण के प्रमाण प्रस्तुत करते हैं. सम्भव है कुछ, शिल्पी गंगा घाटी छोड़कर मध्य भारत चले गये हों और वहां अधिक आसानी से अपना जीवन गुजारते हों. थोड़ा-बहुत व्यापार चीन, लंका, जावा सुमात्रा और तिब्बत आदि से भी होता था. भड़ोंच, सुपारा आदि बन्दगाहों से विदेशी व्यपार होता था. लेन-देन के लिए कई प्रकार के सिक्के चलते थे. मोती, बहुमूल्य पत्थर, कपड़े, मसाले, नील, दवाइयां आदि पदार्थ दूसरे देशों को भेजे जाते थे.
भूमि अनुदान
स्मृतिकारों के अनुसार भारत में राजा भूमि का मालिक माना गया है. मनु और गौतम जैसे स्मृतिकारों ने राजा को भूमि का अधिपति बताया है. गुप्त काल में राजाओं को जो भूमिदान या कभी-कभी सारा गाँव दान करते हुए देखा जा सकता है. उससे यही धारणा मजबूत होती है कि गुप्तकाल में शासक भूमि को ब्राह्मण, किसी गृहस्थ अथवा किसी राज्याधिकारी को दान देने का अधिकारी था. भूमिदान जोतने वाले का कहां तक अधिकार होता था, यह प्रश्न अस्पष्ट है. हाँ, बृहस्पति तथा नारद स्मृतियों में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति के जमीन पर मालिकाना अधिकार तभी माना जा सकता है, जब उसके पास कानूनी दस्तावेज हो. अगर कोई साधारण व्यक्ति भूमि खरीदता था तो उसे राज्य से अनुमति लेनी पड़ती थी. जमीन को साधारणतया दान में देने के उद्देश्य से खरीदा जाता था. सबसे पहले खरीदने वाला व्यक्ति स्थानीय शासन को सूचित करता था कि वह कौन-सी जमीन किस उद्देश्य से खरीदना चाहता है तथा उस जमीन का जो भी मूल्य होगा, उसे वह देने को तैयार है.
अब जब कोई भूमि खरीदता था या दान में देता था तो उस भूमि की नाप-जोख, सीमा रेखा बहुत स्पष्ट शब्दों में व्यक्त की जाती थी. गुप्त युग और उसके पश्चात् जैसे-जैसे भूमि मंदिरों और मठों को दान में दी जाने लगीं वैसे-वैसे कृषि मजदूरों की स्थिति गिरती चली गई और वे अर्धदास जैसे हो गये.
गुप्त साम्राज्य का पतन
स्कन्द गुप्त के उत्तराधिकारी विशालगुप्त साम्राज्य को अक्षुण नहीं रख सके । शक्तिशाली हूणों के आक्रमण और विघटनकारी शक्तियों के आगे वे निर्बल सिद्ध हुयें इस प्रकार गुप्त साम्राज्य का पतन हो गया ।
- अयोग्य उत्तराधिकारी- स्कन्द गुप्त के उपरान्त कोर्इ ऐसा प्रतापी शासक नहीं हुआ जो साम्राज्य को सुसंगठित रख सके । समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा स्थापित तथा स्कन्दगुप्त द्वारा रक्षित विशाल गुप्त साम्राज्य को राजनीतिक एकता के सूत्र में आबद्ध रखने में परवर्ती गुप्त शासक असमर्थ रहें ।
- वंशानुगत राजतंत्र- गुप्त राज्य व्यवस्था वंशानुगत राजतंत्र की व्यवस्था थी इसके कारण भी पतन हुआ ।
सामंतों के द्वारा- गुप्त राज्य का दुर्भाग्य था कि इसका सामन्त वर्ग स्वाथ्र्ाी एवं महत्वकांक्षी था । इस वर्ग ने संकट के काल में राज्य को बचाने का प्रयास करने के बजाय उसकी कठिनार्इयों का लाभ उठाकर अपना स्वतंत्र राज्य बनाना ज्यादा बेहतर समझा । उनके इस कार्य ने भी साम्राज्य के पतन में योग दिया ।
- विदेशी आक्रमण- बाहर आक्रमणों के कारण गुप्त साम्राज्य खोखला हो गया था । शक और हूणों के आक्रमण से साम्राज्य का रक्षा करने में केवल स्कन्दगुप्त ही सफल रहा स्कन्दगुप्त की मृत्यु के पश्चात हूणों का पुन: आक्रमण प्रारम्भ हो गया । फलस्वरूप गुप्त साम्राज्य नष्ट हो गया ।
गुप्तकालीन प्रशासन
गुप्त सम्राटों के समय में गणतंत्रीय राजव्यवस्था का ह्मस हुआ। गुप्त प्रशासन राजतंत्रात्मक व्यवस्था पर आधारित था। देवत्व का सिद्वान्त गुप्तकालीन शासकों में प्रचलित था। राजपद वंशानुगत सिद्धान्त पर आधारित था। राजा अपने बड़े पुत्र को युवराज घोषित करता था। उसने उत्कर्ष के समय में गुप्त साम्राज्य उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विंघ्यपर्वत तक एवं पूर्व में बंगाल की खाड़ी से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र तक फैला हुआ था।
राजस्व के स्रोत
गुप्तकाल में राजकीय आय के प्रमुख स्रोत ‘कर’ थे, जो निम्नलिखित हैं-
भाग- राजा को भूमि के उत्पादन से प्राप्त होने वाला छठां हिस्सा।
भोग- सम्भवतः राजा को हर दिन फल-फूल एवं सब्जियों के रूप में दिया जाने वाला कर।
प्रणयकर- गुप्तकाल में ग्रामवासियों पर लगाया गया अनिवार्य या स्वेच्छा चन्दा था। भूमिकर भोग का उल्लेखमें हुआ है। इसी प्रकार भेंट नामक कर का उल्लेख हर्षचरितें आया है।
सामाजिक स्थिति
गुप्तकालीन भारतीय समाज परंपरागत 4 जातियों –
ब्राह्मण
क्षत्रिय
वैश्य एवं
शूद्र में विभाजित था।
कला और स्थापत्य
गुप्त काल में कला की विविध विधाओं जैसे वस्तं स्थापत्य, चित्रकला, मृदभांड कला आदि में अभूतपूर्ण प्रगति देखने को मिलती है। गुप्त कालीन स्थापत्य कला के सर्वोच्च उदाहरण तत्कालीन मंदिर थे। मंदिर निर्माण कला का जन्म यही से हुआ। इस समय के मंदिर एक ऊँचे चबूतरें पर निर्मित किए जाते थे। चबूतरे पर चढ़ने के लिए चारों ओर से सीढ़ियों का निर्माण किया जाता था। देवता की मूर्ति को गर्भगृह में स्थापित किया गया था और गर्भगृह के चारों ओर ऊपर से आच्छादित प्रदक्षिणा मार्ग का निर्माण किया जाता था। गुप्तकालीन मंदिरों पर पाश्वों पर गंगा, यमुना, शंख व पद्म की आकृतियां बनी होती थी। गुप्तकालीन मंदिरों की छतें प्रायः सपाट बनाई जाती थी पर शिखर युक्त मंदिरों के निर्माण के भी अवशेष मिले हैं। गुप्तकालीन मंदिर छोटी-छोटी ईटों एवं पत्थरों से बनाये जाते थे। ‘भीतरगांव का मंदिर‘ ईटों से ही निर्मित है।
मंदिरस्थान1- विष्णुमंदिरतिगवा (जबलपुर मध्य प्रदेश)2- शिव मंदिरभूमरा(नागोद मध्य प्रदेश)3- पार्वती मंदिरनचना कुठार (मध्य प्रदेश)4-दशावतार मंदिरदेवगढ़ (झांसी, उत्तर प्रदेश)5- शिवमंदिरखोह (नागौद, मध्य प्रदेश)6- भीतरगांव का मंदिर लक्ष्मण मंदिर (ईटों द्वारा निर्मित)भितरगांव (कानपुर, उत्तर प्रदेश)
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